विषयान्त र
जामिया में नौ साल पहले छात्रसंघ भंग कर दिया गया था । अब वहाँ इसे बहाल करने की माँग की जा रही है, जब कि विचार इस पर होना चाहिये कि क्या छात्रसंघ छात्रों के हित के किसी सवाल को उठाते हैं और क्या जेएनयू छात्रसंघ को भी भंग करके यह देखा जाना चाहिए कि इससे इसका शिक्षा और शोध कार्य का स्तर सुधरता है या नहीं ।
दूसरे देशों के अध्येता हमारी समस्याओं का अध्ययन करते हैं। हम इस मामले में कोरे हैं । एक अध्ययन इस बात को लेकर होना चाहिए कि यूनियनबाजी में – तैयारी, प्रचार, आन्दोलन में कितने शिक्षा दिवस व्यर्थ चले जाते हैं और इनकी उपलब्धि क्या आती है?
एक तुलनात्मक अध्ययन इस बात का भी होना चाहिए कि पिछड़े देशों में छात्रों की राजनीतिक सक्रियता का अनुपात आगे बढ़े हुए देशों की तुलना में क्या है और उनके ही शीर्ष संस्थानों में राजनीतिक सक्रियता का अनुपात अन्य संस्थाओं की तुलना में क्या है और देश हित में उन्हें मि कर किसी निर्णय पर पहुँचना चाहिए ।
मैं जानता हूँ यह सुझाव किसी के गले नहीं उतरेगा क्योंकि किसी दल के पास कोई ऐसा कार्यक्रम नहीं है जिसे लेकर वह जनता के पास जाए और इस क्रम में उसका व्यापक जनाधार तैयार हो इसलिए शिक्षा केन्दों को वे अपने काडर की प्रयोगशाला बनाने में समान रुचि रखते हैं शिक्षा का सत्यानाश होता है तो हो। यह व्यवस्था अध्यापकों को भी रास आती है । उन्हें अपने विषय की तैयारी नहीं करनी पड़ती और क्लास लेने की झंझट से भी मुक्ति मिल जाती है।
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा की समस्या अभिव्यक्ति की निष्कलुषता से जुड़ी हुई है। कलुषित अभिव्यक्ति – गाली, अपमान, दुष्प्रचार, मानहानि आदि – आपराधिक परिधि में आती है। यह प्रभावित व्यक्ति की निजता और सम्मान की रक्षा से जुड़ी है, जिसे सुनिश्चत करना राज्य का दायित्व है। यह कानून और व्यवस्था का प्रश्न है जिसे बनाए रखने में असमर्थ शासक को सत्ता में बने रहने का अधिकार नहीं ।
आपात काल की छोटी सी अवधि को छोड़ कर किसी शासक ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन नहीं किया । इसका हनन केवल कम्युनिस्ट विचारधारा करती रही है जो अपनी मान्ताओं से असहमत व्यक्तियों को लांछित, अपमानित करती रही है और इस बात के लिए बाध्य करती रही है कि उससे भिन्न कोई विचार पनपने न पाए । इसके खेदजनक उदाहरण भी उसी जनेवि से आए जिसमें एबीवीपी के निर्वाचित पदाधिकारी को अपने संगठन से इस्तीफा देने को बाध्य होना पड़ा, क्योंकि उसकी मखौल उड़ाई जाने लगी। अंग्रेजी के एक अधयापक केे अपनी अलग राय रखने के कारण हूट कर दिया गया । एबीवीपी से जुड़े एक छात्र को यह सिद्ध करने के लिए कि वह मनुवादी नहीं है उस मनुस्मृति की प्रति, नारी दिवस पर, जलानी पड़ी, जिसमें यह कहा गया है कि जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है वहाँ देवता विराजमान रहते हैं और जहाँ उनकी उपेक्षा होती है वहाँ सभी क्रियायें निष्फल होती हैं । जिसमें कहा गया है कि यथा स्थिति पिता, पति, पुत्र को स्त्री की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए क्योंकि स्वतः वह असुरक्षित है । बिना पढ़े, जाने और समझे ही आग के हवाले कर दिया, यह प्रमाणित करने के लिए कि वह भी किसी से कम प्रगतिशील नहीं है। शिक्षाकेन्द्रों को हुड़दंग केन्द्र बनाने वाले अपनी समझ से देश और समाज का कल्याण कर रहे हैं । इन्हें और इनके पक्षधरों को जेल की नहीं चिकित्सकों की जरूरत है जो इनके धुले हुए दिमाग में पुरानी स्मृतियों और संस्कारों को जाग्रत कर सकें ।
जो छात्रसंघ अपने परिसर में रैगिंग तक नहीं रोक सकते वह देश की निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंकने का आन्दोलन चलाते और बदहवासों की भाषा में बात करते हैं? वे सभी चिकित्सा के पात्र हैं जो ऐसों के साथ हैं।