Post – 2016-03-06

हिन्दी का भविष्य (7)

‘’अब मैं तुम्हें बताता हूँ कि नये ऐतिहासिक चरण के लक्षण क्या हैं। नया ऐतिहासिक दौर गोली बारूद के सहारे पुराने को लहूलुहान करता हुआ नहीं आता, अपितु पिछले की थकान और अन्तर्ध्वसन से आता है। यह मैं पहले भी कह चुका हूँ फिर भी इसे दुबारा इसलिए दुहरा रहा हूँ कि जो कुछ हम जानते या पहले सुन चुके है उसका प्रत्येक निर्णायक मौके पर ध्यान नहीं रख पाते। मार्क्सवाद की प्रतिज्ञा क्या है? एक न्यायपूर्ण और मानवीय व्ययवस्था की स्थापना! इसके मूल में है यह स्वीकार कि इससे पहले की सभी व्यवस्थाऍं अन्यायपूर्ण और अमानवीय रही है। इसके बाद भी उन व्यवस्थाओं के शक्तिशाली रहते उनको मिटाया नहीं जा सकता था । वे अपने भीतर से ही व्यर्थ हो जाती रही है। शस्त्रलबल तो केवल सत्ता पर अधिकार है, व्यवस्था में परिवर्तन नहीं। व्यवस्था में परिवर्तन के लिए शस्त्रबल की आवश्यसकता नहीं होती। व्यर्थप्राय व्यवस्था के स्थान पर नयी उच्चतर व्यवस्था की समझ पैदा करने और उस दिशा में सचेत हो कर प्रयत्न करने की जरूरत होती है। पुरानी व्यवस्था जब समस्याओं का हल देने की जगह ऐसी समस्यायें पैदा करने लगती है जिनके समाधान के बिना वह चल नहीं सकती, तब अपने आप इतनी नि:सत्वं हो जाती है कि उसे स्थानान्तरित करना आसान हो जाता।‘’

मैंने उसकी ओर देखा तो उसने कहा, ‘’बोलो, बोलो। मैं हॉं या ना तक नहीं करूँगा नहीं तो तुम्हें बहकने का बहाना मिल जाएगा।‘’

‘’तुमसे नोक झोंक के बिना मजा कैसे आएगा। बस एक काम करना, जब मैं पूछूँ तभी जवाब देना या आपत्ति करना। ठीक रहा?’’

“वह कुछ बोला नहीं, हामी में सिर हिला दिया और यदि कोई तमिल मेरे साथ बैठा होता तो वह समझता कि वह नहीं कर रहा है, क्योंकि हॉं को वे आम् बोलते हैं और आम् आम् के साथ‍ जिस तरह सिर हिलाते हैं उस तरह हम नहीं नहीं के लिए हिलाते हैं। तो समझ लीजिए कि संकेत भाषा में भी अर्थभेद होते हैं।

“खैर, मैने पूछा, ‘तुम्हे याद हैं वे दिन जब उत्तर भारत में सरकारी नौकरियों में ही नहीं, शिक्षा लभ्य व्यवसायों – वकालत, डाक्टेरी, यहॉं तक कि होमियोपैथी – पर बंगाली प्रभुत्व इस सीमा तक था कि बंगाली डाक्टर या वकील किसी अन्य, डाक्टर या वकील से अधिक योग्य माना जाता था। यहॉं तक कि बंगालियों में भी यह बोध बना रहा और पड़ताल करोगे तो पाओगे यह आज तक समाप्त नहीं हुआ है कि बंगाली शेष भारतीयों की तुलना में अधिक मेधावी, अधिक सुसंस्कृ त, अधिक कलाविद ‘रेस’ या जाति है।

” नेशन के लिए जाति का प्रयोग पहली बार किस अर्थ में किसने और कब किया था, इसका मुझे ज्ञान नहीं, पर एक मोटा अनुमान था। बंग जाति जैसी कोई जाति नहीं और बंग जन बॉंगड क्षेत्र जिनकी भाषा को हम उत्तरी राजस्थान में बॉंगड़ू कहते हैं और जिसका प्रभाव हिन्‍दी के चरित्रनिर्धारण पर भी पडा है, पूर्वी भारत में बंग, अर्थात् उन जनों के कुछ क्षेत्रों में प्रभाव को प्रकट करता है। ये तथाकथित द्रविड़ बहुल क्षेत्र में भी फैले थे यह बंगल उूरु (बंगलूरु या बंगलौर) – बंग जनों की बस्ती से प्रकट है । बंगारू लक्ष्मण अधिक बंग हुए बनिस्बत किसी बंगाली के। यह वंग कुछ समुदायों द्वारा बंक भी बोला जाता था और बॉंका, बॅांकीपुर, बंका जिसे अंग्रेजीमें बैंकाक लिखा जाता है में इसे पहचाना जा सकता है। तो यह समझो कि नृजातीय विशेषता जैसी न तो कोई बात है, न ही इस रूप में इसका दावा किया गया है, अपितु इसे क्षेत्रीय बना दिया गया जिसका कुछ प्रभाव रॉंगा माटी का गीत गाने वाले रवि बाबू में भी तलाशा ज सकता है। परन्तु क्षेत्रीय रूप में भी इसके पीछे लौटने पर कुछ खास नहीं मिलता। जो भेदक बात है वह यह अंग्रेजी शिक्षा यहॉं से आरंभ हुई और शेष भाग शैक्षिक दृष्टि से पिछडे़ रहे इसलिए शिक्षित मध्यंवर्ग का उदय और सत्ता में सहभागी या सहयोगी के रूप इसकी पहुँच हुई और वे अवसर मिले जिसमें यह दूसरों से आगे रहा। तुलनात्मक अग्रता स्वतन्त्रँता प्राप्ति तक बनी रही। लोक कल्पनाऍं करते कि बंगाली दूसरों से इसलिए अधिक मेधावी होता है कि वह मछली खाता है। यह ठीक उसी तरह का खयाल था जैसे जब सीराम पुर आदि में फ्रेच जनों की अग्रता को देखकर बंगालियों ने यह अनुमान किया था कि फ्रांसीसी दूसरों से अधिक मेधावी इसलिए होता है कि वह सुँघनी का प्रयोग करता है जिससे उसका दिमाग खुल जाता है और यह बीमारी ऐसी लगी कि इसे अंग्रेजों की सिग्रेट भी नहीं छुड़ा सकी जिसके धुँए के बारे में यह भरम पाल लिया जाता रहा है कि इससे लिखने की प्रेरणा मिलती है या इसका मूड बन जाता है। यही खयाल शराब और पुराने लोगों में भॉंग के सेवन को लेकर था। मूल कारण को न समझ कर हम कैसे कैसे भ्रमों और लतों के शिकार हो जाते हैं इसका यह अच्छाू नमूना हैा

”शिक्षा का दूसरा केन्द्र मद्रास में एलिस के प्रयत्न से स्थापित हुआ । दक्षिण भारत में ठीक वैसी ही अग्रता मद्रासियों या तमिल भाषियों को मिली और उन्हें भी यह खुशखयाली थी कि वे दूसरे भारतीयों से अधिक मेधावी है।

”स्वतन्त्रता प्राप्ति तक केन्द्रीय नौकरियों में और दक्षिण भारत में दूसरे सभी मामलों में मद्रासियों की अग्रता बनी रही। इस बीच शिक्षा के विस्तार तथा अन्य‍ कारणों से मध्यनवर्ग का भौगोलिक विस्तार हुआ और अब किसी भी क्षेत्र को जहॉं शिक्षा का समुचित प्रबन्ध है, किसी अन्य् से पीछे नहीं माना जाता।

”परन्तु सभी क्षेत्रों में एक उूपर से नीचे का विभाजन है जिससे वर्णवाद का भ्रम पैदा होता है, परन्तु इसका मूल कारण दूसरा है। वर्णव्यवस्था के दायरे में इसका रहस्य नहीं खुलता।

”यदि तुम एक तुलनात्मवक तालिका बनाओ जिसमें विभिन्न वर्णो की संख्या और नौकरियों और व्यवसायों में उनके अनुपात का अध्‍ययन हो तो पाओगे अभी पचास साल पहले तक हिन्दी प्रदेश में शिक्षा और राजकीय सेवा के क्षेत्र में सर्वोपरि स्थान कायस्थों का था और हो सकता है वह आज भी हो। इसके बाद ब्राह्मणों का स्थान आता था और अब यह लगता है पर सच नहीं भी हो सकता है कि वे अपनी संख्या के अनुपात में सबसे आगे हैं। कुछ समय पहले तक बनिया शिक्षा को गुलामी मानता था और उससे उपलब्ध होने वाले पदों से होने वाली आय को अपनी दूकान से होने वाली आय से दयनीय मानता था। यह प्रवृत्ति पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है, फिर भी अपनी आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारण बनिया शिक्षा से वंचित नहीं रह सकता था। अल्पतम शिक्षा उसकी जरूरत भी थी। फिर कुछ मेधावी बच्चों को दूकान की मनहूसियत और उच्च शिक्षा और उससे खुलने वाले अवसरों के कारण उच्च शिक्षा और प्रशिक्षण के प्रति आकर्षण पैदा होने लगा और जिसकी ओर डोनेशन प्रणाली ने उनके लिए सबसे अधिक अवसर पैदा किए। इसका नतीजा है इस तालिका में ब्राह्मणों और कायस्थों के बाद अपनी आबादी की तुलना में बनियों का प्रतिनिधित्व आएगा। मैं वर्ण से क्षत्रिय हूँ। मेरी स्थिति वर्ण से नहीं जीविका के स्रोत से निर्धारित होती है। मोटे तौर पर हमारी आय का स्रोत वह भूमि रही है जिसकी सीमित आय के बाद भी किसी का नौकर न होने और अपनी जमीन का मालिक होने का भ्रम था और यह भ्रम क्षत्रियों, भूमिहारों और जाटों में एक समान था इसलिए इन्होंने पहले शिक्षा पर कम ध्यान दिया। स्वतन्त्रता आन्दोलन तक में इनकी भूमिका नाममात्र को रही, इसलिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व में ये समान स्तर पर आते हैं, जिनमें से एक, जाटों को, ओबीसी हैसयित के लिए उस हद तक भड़काया जा सकता है कि वे दंगे पर उतारू हो जायँ। भूमिहारो को दलित उत्पीड़क माना जाता है और वह कभी अपने लिए किसी आरक्षण की सोच भी नहीं सकता। क्षत्रिय तो उन गुनाहों का भी प्रतीक मान लिया जाता है जिनसे उसका सीधा संबंध न था। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में या कहें तथाकथि‍त सामन्ती अर्थतन्त्रो में उसे ही उत्पी,ड़क माना जाता रहा इसलिए छूत और बराव के लिए भी उसी को प्रतीक के रूप में प्रयोग में लाया जाता रहा जिसका एक उदाहरण ठाकुर का कुऑं है । इसे मुस्लिम समुदाय पर स्थानान्तरित करें तो शिक्षित मध्य वर्ग उसी दायरे में सिमटा सा रहा है जिसे संभ्रान्त या अशराफ कहा जाता रहा है। अब इसे इस सिरे से समझने का प्रयत्न करो कि जो लोग मनुवाद आदि की बात करते है, वे वर्तमान का सामना नहीं कर सकते। जो वर्तमान का सामना नहीं कर सकता या जिसने इसकी योग्याता विकसित नहीं की है, वह उनका काम करेगा जो उसको अपनी चालाकी से अपने पोषित जानवरों की तरह उन्हीं के अपने हित के विरुद्ध इस्तेमाल करेगा।‘’

’’एक छोटा सा सवाल कर सकता हूँ। ज्ञान के इस महारास में मुद्दा ही गायब है। कहना क्याज चाहते हो तुम। मनुवाद का विरोध न किया जाय?’’

‘’मनुवाद यदि हो तो उसका विरोध किया जाना चाहिए। यदि खत्म हो गया हो, जैसा कि मैं बता रहा था और उसमें ब्राह्मण का स्थान शिक्षित मध्य वर्ग ने ले लिया हो तो मनुवाद से लड़ना उन शक्तियों के हाथ का खिलौना बनना है जो अंग्रेजी के माध्यम से शैक्षिक मध्यवर्ग का दायरा अपने तक या अपने जैसों तक सीमित रखना चाहते हैं। जब तक अंग्रेजी का वर्चस्व रहेगा, पूरे भारत में पिछड़े वर्गों, वर्णक्रम में आगे गिने जाने वाले लोगों के दरिद्रों, दरिद्र मुसलमानों या अन्य उपेक्षित जनो को भाग्योेदय का अवसर नहीं मिल सकता। अपनी आर्थिक विववशता के कारण वे अशिक्षित या अल्पशिक्षित रहने को विवश है, जब कि अपने को दलित कहने वालों में से वे जो आरक्षण का लाभ उठा कर उस हैसियत में आ चुके हैं जिनके लिए शिक्षित मध्य वर्ग का रास्ता सुलभ हो गया है अपने ही समाज के दरिद्रों के संख्या बल का अपने लिए इस्तेमाल तो कर सकते हैं परन्तु उसे न्याय और सम्मान दिलाने के अभियान का वैसे ही विरोध कर सकते हैं और करते हैं जैसे जिसे वे मनुवादी कह कर अपना दायरा बढ़ाना चाहते हैं, वे करते थे।

‘’अत: दलित आन्दोेलन इकहरा है, यह इतिहास में जा कर वर्तमान से लड़ने का मूर्खतापूर्ण प्रयास है, जो भूत बन चुका है उससे लड़ोगे तो भूत आपको पछाड़ देगा। कारण आप उससे लड़ रहे हो जो है ही नहीं। जो है ही नहीं उस पर कितने भी तरह से कितने भी प्रहार करो उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। आप की जुझारू उूर्जा की बर्वादी होगी और सही दुश्मन की पहचान न कर पाने के कारण आप उसके हाथ के खिलौने बन जाओगे। दलित आन्दोलन की सकल उपलब्धि है जिसे उपलब्धि कहने के लिए दिमाग के कुछ पुर्जे ढीले होने चाहिए ।‘’

”मैं फिर भी नहीं समझ पाया कि इसका हिन्दी से क्या संबन्ध है। मैं जानता था, इतनी मोटी बातें भी तुम्हारी समझ में नहीं आ सकती। कल बात करेंगे।”