हिन्दी का भविष्य (6)
‘’जो बातें मैं पहले से जानता हूँ और मजे की बात यह कि जिन्हेंं तुम भी कई बार कई तरह से दुहरा चुके हो, उन्हीं को तर्ज बदल कर दुहराने लगते हो तो उूब होती है। कल मैंने किसी को समय नहीं दिया था, तुम्हारी डफली से बच कर भागना चाहता था।‘’
‘’तुमने कभी इस बात पर गौर किया है कि जिन बातों को नितान्त सरल ढंग से समझाया जा सकता था, जो सरल थीं ही, उनको पुराने लोग कूट भाषा में, पहेलियों में, उलटबॉंसियों में, कथाओं में पिरो कर क्यों प्रस्तुत करते थे ? या जैसा कि भिखारी दास ने कहा है कि अभिधा उत्तंम काव्य है फिर भी कविता में लोग व्यंजना, व्येतिरेक, अपह्नुति, विरोधाभास, व्याज कथन, अतिरंजना आदि का सहारा क्योंं लिया करते थे?’’
’’कभी इस पर सोचा नहीं।‘’
’’कमाल है, जिन्द’गी भर हिन्दी’ पढ़ाते रहे और इन बुनियादी सवालों पर सोचा तक नहीं। फिर सोचते किस विषय पर रहे, आय कर बचाने के तरीकों पर?’’
वह झुँझला गया। मैंने उसे छेड़ा भी इसीलिए था। ‘’इसमें सोचने की ऐसी क्या बात है। यह तो कोई आदमी बता सकता है कि कूट भाषा और पहेलियों में विचित्रता की भूख रही हो सकती है और अलंकारों में भी चमत्कारप्रियता प्रधान कारण रही हो सकती है। एक और कारण समझ में आता है, उनके पास समय बहुत अधिक था, आज जैसी भागमभाग न थी, समय काटने के लिए सीधी बातों को भी टेढ़ी बना कर कहने की आदत डाल ली होगी।‘’
’’तुम्हारी हर एक बात सही है और कोई इतनी सही नहीं कि उसे मान लिया जाय।‘’
वह मुझे उस अकड़ से देखने लगा कि उसकी रीढ़ एक फुट लंबी हो गई, ‘’सही है, पर सही नहीं है। सच कहूँ भी तो तुम मानोगे नहीं। फिर बात करने को रह क्या जाता है?’’
’’रह जाता है यह समझना कि इनमें से हर बात गलत है। मनुष्य के पास कभी समय बहुत अधिक नहीं था। और एक ऐसे समय में जब विकास सभी क्षेत्रों में इतना कम था कि आज जिसे हम घंटों में कर लेते हैं उसमें वर्षों का समय लग जाता था, फालतू समय उनके पास हो कैसे सकता था।‘’
’’क्यों कि उनकी आकांक्षाऍं कम थी, आवश्यकताऍं पेट भरने और बाद में तन ढकने और उसके बाद मौसम की मार से बचने के लिए छाया तक सीमित थी। छोड़ो इसे तुम। मैं देख रहा हूँ तुम कुछ कहने को तैयार हो यह तुम्हारे होठों पर उभरी सिकन से ही मालूम है, पर यवह तो बताओ जिसे बताने के प्रलोभन में मुझे लगातार घसीटते रहे वह क्याा है? इतिहास का वह चरण। उसके निशान तुम्हें उसके आने से पहले कब और कैसे दिख गए?’’
‘’बताता हूँ, पर पहले तुम्हें यह बता दूँ कि जब औजार अविकसित थे तब उसी काम को करने के लिए बरसों लग जाते थे जिन्हें आज लम्हों में कर लिया जाता है। आवश्यकताऍं कम थीं क्योंकि उनकी पूर्ति में ही इतना समय और श्रम करना होता था कि फालतू समय को बिताने का सवाल ही नहीं था। दूसरे आज जब वर्षों का काम लम्हों में, हजारों का काम केवल एक व्यक्ति द्वारा कर लिया जाता है, भागमभाग इतनी है कि किसी को खाने और सोने तक का पूरा समय नहीं मिलता और इस कमी को पूरा करने के लिए लोगों को टानिक और शामक ओषधियों का सहारा लेना पड़ता है समय बर्वाद करने और अपने को भीतर से खाली होते हुए बाहर से चमकदार दिखने के युग में भी शिक्षा और अभिरुचि के नाम समय बर्वाद करने का एक विज्ञान विकसित किया जा चुका है जो वीडियो गेम्सु, कार्टून फिल्स्ए , से आरंभ हो कर कैसिनो, कैब्रे, ड्रग डेन और स्ट्रिपटीज तक पहुँचता है। वक्त काटने वाले हर युग में रहे है और आज के भागमभाग युग में अधिक विकृत रूप में पाए जा सकते हैं।
और जहॉं तक एक ही बात को कई तरह से या आवृत्ति के साथ प्रस्तुत करने का प्रश्न है, तुमने देखा है, समाचार पत्रों में वही समाचार शीर्षक बन कर आता है, फिर संक्षिप्त सार बन कर आता है, और फिर विस्ता्र से उसको बयान किया जाता है। कहें, आज भी आदमी के पास अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से पाठक या श्रेाता तक पहुँचाने के आवृत्तिपरक तरीके अपनाये जाते हैं। इसलिए गुजरे जमाने के लोगों को निरा मूर्ख समझ कर जो पहली तरंग में सूझ गया, उसे ही उनका सत्य बताने के अहंकार पर विजय पाओ तब तुम पाओगे कि वे अपने समय में भी कुछ मामलों में हमारे जमाने से कुछ आगे बढ़ हुए थे और उनके आविष्कार किए गए तरीकों का हम इस्तेमाल तो करते हैं पर कृतघ्न भाव से। इतिहास को नष्ट करने वालों की जमात में शामिल हो कर तुम इससे अलग कुछ कर भी नहीं सकते, इसलिए प्रथम दृष्टि में तुम्हारी जो बातें सही लगती है वे गहरी छानबीन के बाद अधकचरी समझ का परिणाम लगती हैं। अब तुम समझना चाहो तो समझा सकता हूँ कि जिस ज्ञान या बोध के साथ हम जितना समय गुजारते हैं, वह हमारी चेतना और ज्ञान-व्यवस्था और संवेदना तक में गहरे उतरता जाता है। तुरत जाना और तुरत भुला दिया और जरूरत पड़ने पर डींग हॉंकने लगे कि मुझे मत समझाओ, इसे मैं जानता हूँ, पर अपने विवेचन और आचरण में नहीं उतार सके। ज्ञान या संवेदन को चेतना में गहरे उतारने, उनके साथ उूहापोह में लंबा समय गुजारने और कथाओं में पिरोकर उन्हें बार बार सुनाने की जो सर्वशिक्षा प्रणाली विकसित की गई उसका उपहास करने से पहले यह बताना कि ऐसी सर्वशिक्षा योजना किन सभ्याताओं में रही है और जिनमें नहीं रही है उनकी तुलना में अपना समय बर्वाद करने वालों का समाज किस उूँचाई पर सिद्ध होता है। इतिहास में जाओ तो उसकी कालरेखा पर जाओ, अन्यथा इतिहास को समझ ही नहीं सकते।
”मैं तुम्हे यह बताउूँ कि बहाना किसी भी विषय का हो, मैं उस विषय पर बात करते हुए अपने समय की चुनौतियों, समस्याओं और बाधाओं पर भी बात कर रहा हूँ। मैं जो किताब लिख रहा हूँ उसका शीर्षक है इतिहास का वर्तमान। मैं कई बहानों से तुम्हें थकाते और उबाते हुए भी तुम्हारी चेतना में यह उतारना चाहता हूँ कि तुम जानने और समझने तक से डरते हो, ज्ञान के भी छोटे रास्ते निकालते हो, इसलिए स्मार्ट दीखते हुए भी निरे गधे हो, आदमी बनने के लिए तुम्हेे अपने को, अपने समाज को, इसके इतिहास को, इसकी विश्वास धारा को, इसके मूल्यों को, इसकी विकृतियों को, इसकी व्याधियों को समझना होगा, किसी की भी उपेक्षा करने से अनर्थ होगा। कई बहानो से मैं यही कर रहा था। अब यदि तुम इसे सुन कर उूब गए हो तो अभी जा सकते हो, और यदि उस मोड़ को समझने की इच्छा है तो मैं बोलूँगा, तुम सुनोगे और बीच में चीं चपड़ नहीं करोगे।‘’
वह कुछ बोला नहीं, ऐंठ से मुस्कराता रहा।
’’देखो, मैं पहले कह आया हूँ कि अपना ऐतिहासिक चरण पूरा करने से पहले संस्थाओं, व्यवस्थाओं और तन्त्रों में जीवट बना रहता है और वे विरोध को स्वल्प प्रयास से ध्वमस्त या निष्प्रभाव करने में समर्थ होते हैं। उनका काल पूरा हो जाने के साथ उनकी जिजीविषा तक चुक जाती है, वे बाहर के हमले से नहीं टूटतीं, भीतर से टूटती हैं, अन्तर्ध्वस्त हो जाती हैं, एक्सप्लोड नहीं करतीं, इम्लोड करती हैं, और इसके लक्षणो को जो पहचानता है वह नये युग के चरणचिन्हों को उसके आने से पहले ही पहचान लेता है।‘’
वह ‘’तारीफ करूँ क्या उसकी जिसने तुम्हें बनाया’’ गाते हुए उठा और बिना और कुछ बोले रवाना बना।
०४/०३/१६