Post – 2016-03-03

हिन्दी का भविष्य (5)

‘तुम जानते हो, मैं कितना चिन्तित रहा तुम्हारे दिमाग की हालत पर। तुम अपना संतुलन खोते ही नहीं जा रहे हो, उसमें तुम्हें मजा भी आने लगा है। इसके बाद मेरे कहने को कुछ रह नहीं जाता, जो होना है वह होने को ही रह जाता है।‘

मैं हँसते हुए अपनी झेंप छिपाने लगा। मैं गलत कुछ नहीं कह रहा था, पर सत्‍य को प्रिय न भी बनाया जा सके, आवेगमुक्त तो रखा ही जा सकता है। इसके बिना तो वह सच होते हुए भी सच नहीं रह जाता, उसके अर्थ बदल जाते हैं। मैंने कहा, ‘देखो, मैं एक व्यक्ति के रूप में तुमसे बहस कर रहा था और इतिहास आ कर सर पर सवार हो गया। तुमने ठीक कहा था, ‘भूत उतर गया या अभी भी सवार है?‘

”कितनी पतली झिल्ली विचार को आवेग की धारा से अलग करती है। एक मामूली सी खरोंच, एक नगण्य सी घटना से उस झिल्ली में तनिक सा छेद हुआ कि आवेग उसे चीर कर विवेक पर हावी हो जाता है। हम संयत रूप में, सतर्कता के साथ कुछ कहते या करते या सोचते हैं और एक क्षणिक प्रमाद या उकसावे के कारण हम अपना आपा खो देते हैं। हमारे चेतन, अवचेतन और अचेतन में संचित घोल, जिसका बहुत कुछ हमारी समझ में कभी आ ही नहीं सकता, आवेग बन कर हमारे उूपर हावी हो जाता है। हम जानते तक नहीं कि हम किसी महाशक्ति के द्वारा प्रयोग में लाए जा रहे हैं और कर्ता प्रतीत होते हुए भी निमित्त में बदल चुके होते हैं। हम दोष या श्रेय व्यक्तियों को देते हैं जब कि काम इतिहास कर रहा होता है।‘’

’’तुम इतिहास की आड़ उसी तरह लेते हो जैसे बहुत सारे लोग भाग्य की आड़ लेते हैं या जैसे तुलसी कलिकाल की आड़ लेते थे। जो लोग अपने कामों का दायित्व स्वयं नहीं लेना चाहते हैं, वे ही इस तरह के बहाने तलाशते हैं। हम इसे पलायनवाद कहते हैं।‘’

‘’सच तो यह है कि तुमने अपने किये का दायित्‍व कभी लिया ही नहीं। अपना दोष किसा और के मत्‍थे डालते रहे । पक्‍के पलायनवादी तो तुम हो और साथ ही तुम अधकचरे मार्क्सवादी भी हो, फैशनपरस्त, डमडम डीगा डीगा वाले, जैसा बोलने पर लोग चौंके, क्या बात कही है कह कर पीठ ठोकने वाले मिल जाय, तेवर विद्रोही का लगे, वैसे मार्क्सवादी, नहीं तो जानते कि मार्क्स ने भी अपने दर्शन का नाम ऐतिहासिक और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद रखा था। जिसमें ऐतिहासिक द्वन्‍द्वात्‍मक से पहले आता हैा वह भी मानते थे कि जब जी में आये, जो कुछ भी करना चाहो, वह तुम केवल ठान कर नहीं कर सकते। जिस समाज में तुम रहते हो उसमें एक दूसरे की काट करती अनेक शक्तियॉं, विचार और संगठन काम कर रही होत है और उनकी सही पहचान या जब तक स्थितियॉं अनुकूल नहीं हो जाती तब तक तैयारी में लगा रहना भाग्यावाद नहीं है। इसकी सही समझ के लिए तटस्थ और वैज्ञानिक सोच जरूरी होती है। तुम्हारे भीतर इसकी इतनी कमी है कि तुम्हारे किए के सभी परिणाम तुम्हारी योजना और आशा के विपरीत गए हैं, फिर भी यह समझ नहीं कि सच्चे मन से स्वीकार कर सको कि तुम्हारी भाषा की, समाज की, इतिहास की, और राजनीति तक की समझ गलत रही है। मैं तुम्हें यह याद दिलाना चाहूँगा कि कुछ चरण ऐसे होते हैं जिनमें कुछ गलत, विनाशकारी शक्तियॉं या विचार और उनसे जुड़े जन और संगठन इतने प्रबल हो जाते हैं कि उनका विरोध होता है और पूरे तर्क और औचित्य के साथ होता है, तो भी उनके दबदबे के कारण विरोध का स्वर भी लोगों तक नहीं पहुँच पाता। आलोचना या विरोध करने वालों को, दुष्ट, विद्रोही, नासमझ या पिछडा बता कर उनका सफाया कर दिया जाता है और उनके प्रति सहानुभूति में कोई आह भरने वाला तक नहीं मिलता। अक्सर तो वे बाद के लोगों की याद से और इसलिए इतिहास से भी लुप्त हो जाते हैं। परन्तु इस डरावनी शक्ति के बावजूद वे अपने इकहरेपन के कारण भीतर से खोखला और व्यर्थ होते चले जातेहै और इसका पता होता भी है तो वे और उग्र और विनाशकारी खेल खेलते हुए इस पर परदा डालने की कोशिश करते हैं। भारतीय वाम की स्थिति मुझे ऐसी ही लगती है। तुलसी ने इसे अन्‍त काल निज रूप दिखावा कहा है।

‘’इतिहास के चरण को निर्णायक बताते हुए मैं व्यवक्ति विशेष को श्रेय या दोष देने का विरोध कर रहा था क्योंकि दृश्य और अदृश्य शक्तियों के दबाव में वह वही कर सकता था जिससे अलग कुछ कर ता भी तो निष्‍फल होता। एक व्यक्ति के रूप में वह इसी अर्थ में महत्वपूर्ण है कि अपने समय और इसकी शक्यताओं की नाड़ी को वह दूसरों से अधिक अच्छीं तरह पहचानता है। इसलिए इतिहासकार को व्यक्ति को नहीं, किसी खास परिघटना को समझने के लिए दो बातों पर ध्यान देना चाहिए, उसमें प्रतापी विचार या शक्तियों का संकेन्द्रण कैसा था और कैसे हुआ और यदि वह अनिष्टकर था तो उससे बचने का तरीका क्या हो सकता है। इतिहास यदि विज्ञान है तो इसी रूप में हो सकता है। अभी तक तो हम वर्चस्ववादी इतिहास की झड़प देखते आए हैं जिसमें इतिहास ही गायब है।‘’

’’फिलसफी बघारने का क्या यही सही समय है?’’

’’मैं इस बहाने यह बताना चाहता था कि हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ नहीं बनाया गया, बल्कि हिन्दुहस्तानी जबान को हिन्दी और उूर्दू में बॉंटते हुए ब्रिटिश कूटनीति के तहत उर्दू को पहले अरबी फारसी बोझिल बनाने के लिए उकसाया गया। मैं 1973 में प्रकाशित अपनी ही पुस्तक के कुछ वाक्यों को उद्धृत करूँ तो, ‘’बीम्स के मत से सीह नस्र ए जौहरी की भाषा ही भारत की सभी उत्कृष्ट रचनाओं की भाषा हो सकती थी। … उनका विचार था कि वादी या फरियादी की तुलना में मुद्दई, प्रतिवादी की तुलना में ‘मद्द आ अलयहि (मुद्दालेह), जैसा कि नीचे लिखा है की जगह ‘हस्ब-ए-तफ्सील-जैल’ अधिक श्रेयस्कर प्रयोग हैं। उनके विचार से बाद इन्किजा-ए-मोहलत (अवधि समाप्त होने पर) का हिन्दी में अनुवाद हो ही नहीं सकता। कहें यह बीमारी अंग्रेज कूटनीतिज्ञों की चालाकी से उर्दू के माध्यम से हिन्दीे में फैलाने की कोशिश की गई, परन्तु हिन्दी के लेखकों और कवियों ने इस विषय में सावधानी बरती थी। हिन्दी में तत्सम प्रियता दो कारणों से आई । पहली उस तेवर के कारण जिसमें फारसीकरण को श्रेष्‍ठता की कसौटी बना कर हिन्दीे को गॅवारों की भाषा बताया जा रहा था और यह उकसावा दिया जा रहा था कि हिन्दी में परिष्कृत व्यंजनाओं के लिए शब्द हैं ही नहीं और इसका पहला नमूना हरिऔध जी का प्रियप्रवास और शुक्ल जी की आलोचना की भाषा हो सकती है। परन्तु कविता में तत्सम-प्रेम ‘नव गति नव लय ताल छन्द नव’ के घोष के साथ बंगला के प्रभाव से आरंभ हुआ न कि उर्दू से मुकाबला करने के लिए। इस भाषा को संस्कृतनिष्ठ नहीं कहा जा सकता था। यह बहुत सधी हुई, ओजस्वी भाषा थी।

‘’पहली बार हिन्दी भाषा का सत्यानाश करने का, इसे भाषा से जार्गन बनाने का काम उस खास चरण पर आरंभ हुआ जब इसको एक बहुत बड़ी चुनौती का सामना करना था और यह काम साहित्यकारों के द्वारा नहीं, भाषाविज्ञानियों द्वारा किया गया। विशेषज्ञ इतने मूर्ख क्यों होते हैं, कि भाषा का विज्ञान उनके पास है पर भाषा के स्वाभाव का ज्ञान और ध्यान है ही नहीं। जानते हो बांग्‍लादेश के एक बहुत बडे भाषाविज्ञानी थे और उनका विचार था कि पाकिस्‍तान की भाषा अरबी होनी चाहिए, इससे कोई विवाद न पैदा होगा। ऐसे ही लोगों ने भारत की राष्‍ट्रभाषा संस्‍कृत को बनाने का सुझाव रखा था जिनमें बाबा साहब भी थेा‘’

’’मैं तुम्हारी मूर्खता को सराहूँ जो लगातार इतिहास के चरण की दुहाई देते हुए जाने कितने दिन खराब कर गया पर यह न बता सका कि उस चरण पर हुआ क्या और हमारा आज का चरण उससे किस माने में भिन्न है, या भाषाविज्ञानियों की मूर्खता को जिन्होंने दवा की आड़ में बीमारी को बढ़ाया और बीमार को पहले से अधिक लाचार बनाते चले गए।”

” मेरे पास सिर्फ पॉंच मिनट का समय है, इसमें तुम मेरे सवाल का जवाब दे सको तो ठीक, वर्ना मैंने किसी को समय दे रखा है।‘’

’’देखो इस समय तीन तरह की घटनाऍं हुईं। देश विभाजन से पहले भाषा को हिन्दुस्‍तानी बनाया जा रहा था। भाषा भी विभाजन का मुद्दा बनी और उर्दू पाकिस्तान की भाषा बन गई, इसलिए हिन्दी को अब संस्कृत निष्ठ बनाने का वैध रास्ता तैयार हुआ। एक नई राजनीतिक मॉंग यह हुई कि हिन्दी को सर्व-स्वीकार्य बनाने के लिए दूसरी भाषाओं के भी कतिपय पारिभाषिक शब्दों को अपनाना चाहिए। यह सब एक हड़बड़ी और नासमझी में प्रयोग की तरह किया जा रहा था और एक साथ कई विरोधी आकांक्षाऍं पाली जा रही थीं। भाषा सरल भी होनी चाहिए, सटीक भी होनी चाहिए, तकनीकी अभिव्यक्तियों में एकरूपता होनी चाहिएए आदि। जिस एक बात का ध्यान नहीं रखा गया वह यह कि जिन शब्दों को आम जन समझते हैं, उनके स्थान पर दूसरा नया और अटपटा शब्द न लाया जाय।

इतनी मामूली सी समझ से बहुत सारा श्रम तो बचा ही होता, भाषा की स्वाभाविकता नष्ट न हुई होती।‘’

’’अब मैं चलूँगा।‘’ उसके साथ ही मैं भी उठ खड़ा हुआ ।