हिन्दी का भविष्य (4)
“तो फिराक साहब की तरह तुम भी मानते हो कि हिंदी को संस्कृतनिष्ठ नहीं होना चाहिए?”
“संस्कृतनिष्ठ हिन्दी हिन्दी नहीं होती, यह तुम जानते हो? संस्कृतनिष्ठ का अर्थ जानते हो?”
वह मुझे यूँ देख रहा था जिसमें कुछ कहने की आकांक्षा तो थी पर यह डर भी था कि जवाब देना खतरे से खाली नहीं है। मुझे उसका उल्लूं खींचने में मजा आ रहा था। एक मिनट प्रतीक्षा के बाद बताना पड़ा, “देखो इसमें दो भाषाओं के नाम है, संस्कृत और हिन्दी । एक तीसरा पद है निष्ठ । इस निष्ठ शब्द के दो तरह से अर्थ लगाए जा सकते हैं, एक , जिसका अर्थ है, निष्ठा रखना और इस निष्ठा का अर्थ है श्रद्धा, विश्वास आदि। इसमें संस्कृत पूज्य भाषा बन जाती है और हिन्दी उसकी सेविका या भक्तिन। यह हिन्दी के गौरव के अनुकूल नहीं है, यह तो मानोगे ही ?’”
उसने बुझे स्वर में कहा, ‘’यह बात तो समझ में आती है।‘’
’’चलो, कुछ तो तुम्हारी भी समझ में आया। दिमाग खुलेगा तो बहुत कुछ समझ में आएगा। हॉ, निष्ठ का दूसरा अर्थ नि: स्थ से बनता है जिसका अर्थ हुआ नि:शेष रूप से स्थित। अब यदि हिन्दी संस्कृत निष्ठ हो गई तो उसे किसी भी सिरे से हिन्दी न कहोगे?’’
उसने लम्बी सॉंस ली, ‘’यार इस तरह तो कभी सोचा ही नहीं था।‘’
’’देखो, इस तरह अपनी तौहीन मत किया करो। सोचने का काम तो तुम पार्टी निष्ठा में कभी का बन्द कर चुके हो, जब कहते हो इस तरह तो सोचा ही नहीं था, तो तुम पार्टी के साथ विश्वासघात करते हुए यह बताते हो कि किसी और तरह से सोचने का काम तुम बीच बीच में करते रहे हो। मैं तुमसे इस गद्दारी की उम्मीद ही नहीं करता।‘’
उसने तमाचा जड़ने वाली भंगिमा में हाथ उठाया तो मैंने बाअदब सिर नीचा कर लिया। फिर उसे समझाने की कोशिश की,”देखो, भाषा पवित्र चीज नहीं है, यह झाडू़, चक्की, बरतन की तरह जरूरी चीज है। वे सीमित उपयोग के उपकरण हैं, इसलिए कुछ परिस्थितियों में उनके बिना हमारा काम चल सकता है, परन्तु भाषा असंख्य उपयोगों में आने वाले औजारों का भंडार है और मजे की बात यह कि इसमें ऐसे औजार भी है जो सफाई नहीं करते, कई बार गन्दगी भी करते हैं, या उनसे यह भ्रम पैदा होता है कि ये गन्दे हैं, परन्तु वे भी एक उपयोगी काम करते हैं। उनके बिना भी हमारा काम नहीं चल सकता। जैसे गालियॉं, जैसे विकृतियॉं, जैसे उन अंगों के नाम या उन क्रियाओं के नाम जिनका हवाला दे कर गालियॉं दी जाती हैं, या जिनकी चर्चा आने पर साहित्य को अश्लील करार दे दिया जाता है।
‘’रौ में हो, बोलते जाओ। नशा उतरेगा तो बात करूँगा।‘’
’तुम्हें एक वाकया सुनाउूँ। एक सज्जन भोजपुरी का एक शब्दकोश बनाना चाहते थे। राहुल जी से चर्चा करते हुए उन्होंने पूछा अमुक शब्द को उसमें रखना ठीक होगा। राहुल जी घबरा गए, कहा, नहीं, ऐसे शब्दों को रखना ठीक न होगा। हिन्दी में बताउूँ तो तुम भी घबरा जाओगे और मुझसे भी कहते न बनेगा पर अंग्रेजी में उसका आशय ‘प्यूबिक हेयर’ बताउूँ तो झेल जाओगे। राहुल जी, मेरी या तुम्हारी घबराहट का कारण यह है कि हमने भाषा को पवित्र मान लिया, उपयोगी औजार नहीं जिसे पवित्र नहीं, प्रभावकारी होना चाहिए। जिनसे और जितने अधिक लोगों से वह संवाद करना चाहती है, अपनी बात पहुँचाना चाहती है उन तक पहुँचाने में सक्षम होनी चाहिए।‘’
’’मैं चलूँ?’’ उससे कोई और उत्तर देते न बना तो आखिरी धमकी से काम लिया।
’’मैं तुम्हारी पीड़ा को समझता हूँ। तुम्हारी समझ ही गड़बड़ नहीं है, समझने की ललक और योग्यता तक खत्म कर दी गई है। नारों और नक्कारों की भाषा से आगे की भाषा तक की समझ खत्म कर दी गई है, इसलिए जब कोई बात समझाई जाय तो तुम्हें घबराहट होती है। तुम बौद्धिक ऐयाशों की ऐसी जमात में शामिल हो जिसने अपने क्षेत्र में श्रम करने से लगातार परहेज किया, किसी की जमी हुई खेती देखी तो असमय नोच चोंथ कर उसे भी बर्वाद कर दिया।‘
वह हँसने लगा, ‘’अरे भाई, अपने को सँभालो। ये अच्छे लक्षण नहीं हैं। किसकी खेती उजाड़ी है हमने और यदि उस खेती को तुम पूँजीवादियों की खेती समझते हो तो उस पर हमें गर्व है।‘’
’’तुम अपराध के मनोविज्ञान से परिचित हो? नहीं होगे। जब तुम अपना काम तक नहीं करते, बार बार वही करते हो जिसका नुकसान झेलना पड़ रहा है और फिर भी नहीं समझते, तो मनोविज्ञान के लिए तो तुम्हारे दर्शन में ही स्थान नहीं है। बुद्धि पदार्थ के खमीर से फफूँद की तरह पैदा होती है और जब पैदा हो जाती है तब खुराफात करती है इसलिए बुद्धिजीवी तुम्हा्रे मूल्यांकन में सबसे खतरनाक प्राणी होता है और उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। इसलिए तुम्हें समझा दूँ कि यदि किसी सज्जन से अपराध हो जाय तो वह तुरत उसे स्वीकार कर लेता है, उसकी ग्लानि भी अनुभव करता है, परन्तु यदि अपराध में संलिप्त कोई व्यक्ति अपना अपराध या अपनी गलतियॉं स्वीकार करने लगे तो वह मिट जाएगा, क्योंकि इसके अतिरिक्त उसने और कुछ किया ही नहीं। इसलिए पक्का अपराधी कभी कोई अपराध स्वीकार नहीं करता, अपराध दर्शन अवश्य तैयार कर लेता है जिससे अपने को अपराध मुक्त सिद्ध कर सके। इसलिए तुम्हें वह अपराध नजर भी न आएगा जिससे तुमने देश का सत्यानाश किया है। अपनी ऐयाशी के कारण तुम अपना जनाधार तैयार नहीं कर सके। लीगी सोच के कुछ लोगों ने सुझाया, एकमुश्त जनाधार हम देंगे, तुम द्विराष्ट्र सिद्धान्त को स्वीकार कर लो। तुम को खूनी क्रान्ति का नशा है, तुम्हें जितना खून चाहिए, उतना बहा कर हम देंगे। और तुम उस मॉंद में चले गए जिधर जानवरोंके जाने के निशान तो मिलते थे, वापस लौटने के नहीं।
तुमने सोचा, रक्तक्रान्ति न सही हुड़दंग ही सही, और हुड़दंग को क्रान्ति का पर्याय बना दिया। इतने बड़े देश में क्रान्ति तो नहीं की जा सकती इसलिए इसे तोड़ दिया जाय तो उस छोटे से इलाके में क्रान्ति करके मुक्त क्षेत्र बना कर कम्युनिस्ट देशों से मदद ले कर क्रान्ति की जा सकती है इसके लिए कितने बार कितने तरीकों से देश को तोड़ा। कम्युनिस्टों का पाकिस्तान तो एक ऐसे छोटे देश के रूप में ही बना था जिसमें क्रान्ति अधिक आसानी से हो सकती थी और जिस तक रूस की मदद पहुँच सकती थी। दूल्हे दूलहराज भाई भी वहॉं क्रान्ति का सपना ले कर ही तो पहुँचे। कितनी बचकानी रही है तुम्हारी समझ। फिर तेलंगाना, फिर नक्सलबाड़ी की गर्दन काट कर मुक्त क्षेत्र बनाने का सपना और अब दसियों साल से वनांचलों को अलग करके उनकी जनता को दुर्गति में रख कर अपनी वसूली का कारोबार। कल कारखानों के कारण मजदूरों की एकत्र जमात को हथियाकर पूँजीवाद को मिटाने की लड़ाई में तुमने राष्ट्रीय पूॅजीवादी विकास को कुंठित कर दिया। जिन मजदूरों के दोस्त बने थे उनको बेकारी में ढकेल दिया। पॅूजीपतियों का कुछ नहीं बिगड़ा, वे देश का पैसा विदेशों में लगा कर कहॉं से कहॉं पहुँच गए। जिन सामानों को देश स्वयं बना सकता था उनके लिए भी वह विदेशों का बाजार बन गया। देश का धन अपने पूँजीपतियों के माध्यम से विदेशों में पहुँचा, वहॉं की बेकारी कम हुई हमारी बेकारी बढ़ी, और देश का पैसा बाजार बनने के कारण दूसरे देशों को पहॅुचने लगा और उससे भी उनकी बेकारी कम हुई हमारी बढ़ी, यह तुम्हारी मूर्खता से हुआ या अपराधवृत्ति से यह तुम तय करो। पर अब मजदूरों का साथ छूटा या नाम मात्र को रह गया तो एकत्र भीड़ विश्ववविद्यालयों में दिखाई दी तो शिक्षा के लिए आए हुए प्रतिभाशाली नौजवानों से बिना किसी समस्या के शौकिया हुड़दंग कराने लगे, हुड़दंग के बहानों का आविष्कार करने लगे और इसे ही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बता कर पूरे देश में किसी न किसी अधिकार की आड़ मे पीछे से भड़का कर आग लगाने लगे या आग लगाने वालों के साथ हो लिए।‘’
मैं सचमुच तैश में आ गया था, ” दुनिया के किस देश में, सिर्फ उन देशों को छोड़ कर जिनमें अमेरिकी तन्त्र मानवाधिकार से ले कर जाने किन किन अधिकारों की आड़ में दंगे भड़काने पर लगा हुआ है और जहॉं की संपदा को किसी न किसी बहाने अपनी मुट्ठी में करने के इरादे बना चुका है, इस तरह के बवाल किए जाते हैं? और जहॉं ये सफलता पूर्वक कर लिए जाते हैं उन देशों की बौद्धिक दुर्गति का कुछ अनुमान है तुम्हें ? तानाशाही के हिमायती दर्शन में विश्वास करने वाले अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हुड़दंगतन्त्र से सर्वसुलभ कराना चाहते है? तुम किसका काम कर रहे हो?, किस देश में तुम लोगों की पूछ हाल के दिनों में बढ़ी है? मैं तुम पर छोड़ता हूँ तुम तय करो कि तुम देश का हित कर रहे हो या देशद्रोह कर रहे हो और करा रहे हो और उसको जायज ठहरा रहे हो।‘’
’’भूत उतर गया या अभी भी सवार है। बात भाषा की हो रही थी कहॉं से कहॉं पहुँच गए। बताओ होश में मैं हूँ जो तुम्हारी भडॉंस सहता रहा या तुम ।‘’
वह उठ खड़ा हुआ और इतनी सारी गलतियों के बावजूद मात्र चुप्पी साध कर उसने मुझे धूल चटा दी है।