हिन्दी का भविष्य (3)
‘’तुम क्या सचमुच मानते हो कि हमने हिन्दी को गढ़ने के बहाने उसका सत्या्नाश किया, या जैसी तुम्हारी आदत है, जो जी में आया बोल गए, बिना सोचे समझे कह बैठे थे?’’
उसने मुँह कुछ ऐसा बनाया हुआ था जिससे यह तय करना कठिन था कि वह सचमुच जिज्ञासा कर रहा था, या मस्खरी।
‘’तुमको फिराक साहब की आदत का पता है कि वह बात बे बात हिन्दी वालों का और हिन्दी कवियों का मजाक उड़ाया करते थे और जब तरल गरल में डूबने उतराने लगते थे तो बहुत बेहूदी बातें तक कर जाते थे। उनको संस्कृत निष्ठ हिन्दी समर्थकों से चिढ़ सी थी और इसे उन्होंने अपने को उर्दू का मुसलमानों से अधिक समर्थक होने के उत्साह में नहीं पैदा की थी, पर इसके दबाव में, खास कर जब दिमाग भी तरल हो जाता था, तब, बिना प्रसंग के उूल-जलूल बकने लगते थे। उन्हें अरबी-फारसी बहुल उर्दू से भी चिढ़ थी पर उर्दू लिखावट या अरबी फारसी की सनक का विरोध कभी नहीं किया, अरबी लिखावट का तो लिख कर समर्थन भी किया क्योंकि उसमें लिखने में उन्हेंं आसानी होती थी। शमशेर के साथ भी यही था।‘’
’’चलइ जोंक जिमि वक्र गति …’’ उसने ठहाका लगाया।
‘’अरे यार हम बात कर रहे हैं, गाय पर निबन्ध तो नहीं लिख रहे हैं कि उसमें गाय के गोबर तक का जिक्र आएगा, पर शेर का या अमीबा का जिक्र नहीं आ सकता। पहले धीरज से सुनो। गोरखपुर में एक मुशायरे में तुरीयावस्था में वह कुछ झूमते हुए मंच पर पहुँचे । जब उनके पढ़ने की बारी आई तो उन्होंने पुरुषोत्तम दास टंडन का नाम ले कर अपने अद्भुत अन्दाज में जिसमें मंच और मजलिस एक हो जाती थी, वह रुबाई पढ़ी:
‘माज़ी से /उनक दाम”ले थे/ माज़ी के/ दोस पर चढ़ने
अरे
माज़ी ने
उठा
उठा के
पटका
मजलिस की ओर से, ठहाके के साथ ‘सौ बार।‘
अब मुशायरे की ऐसी की तैसी,तरंग संस्कृ‘त शब्दों के मखौल पर पहुँच गई थी। अब उन्होने अपने ठहाकेदार अन्दाज में फर्माया, ‘प-श्चा-त्ता-प, जानते हो इसका मतलब, नहीं जानते। शाम को लहसन और मिर्च की चटनी खाओ, और अगले दिन जब फारिग होने जाओगे तो इसका मतलब समझ में आ जाएगा।‘
मैं नहीं कहता कि उन्हें बवासीर की शिकायत भी रही होगी, पर उनके अन्दाज का दूसरा आदमी तो खुशवन्त सिंह ही बचा रहा जो जब था था तो था, नहीं है तो नहीं है, क्योंकि उसने चौंकाया अधिक समझा और समझाया कम। ।
खैर, उसी दिन उन्होंने उसी तरंग में एक ऐसी बेहूदी बात कह दी जिस पर किसी अन्य स्थिति में एक ओर से मुसलमान जूते मारते दूसरी ओर से हिन्दूं।‘’
ऐसी कौन सी बात थी यार कि जूते मारने के सवाल पर साम्प्रदायिक सद्भाव पैदा हो जाय। यदि यह सच है तो लोगों को सद्भाव के विकास के लिए जूते मारने और बुद्धिजीवियों को जूते खाने की आदत डालनी चाहिए।‘
‘बहुत कम मौके होते हैं जब तुम अमर वचन बोलते हो। बुद्धिजीवी और तर्कवादी और जो जी में आये बोलने की आजादी के समर्थकों को इसका अभ्यास भी करना चाहिए ताकि चमड़ी जूते खाने की आदी हो जाय और उसमें मजा आने लगे।’
‘तुम बात करते हो या बकवास?’
’श्रोता पर निर्भर करता है, यदि बात समझने वाला मिला तो बात, यदि बक पंक्ति का सामना हुआ तो उनकी समझ में आने वाली भाषा, जिसे तुमने ठीक ही बकवास का नाम दिया। पहले सही श्रोता बनो, बीच बीच में उद्विग्न न हो जाया करो। बताता हूँ तुम्हें वह वाक्य जिससे सौमनस्य तो पैदा नहीं हो सकता परन्तुं सेक्यु लरिज्म की गलत समझ रखने वालों को दोनों जमातों के जूते अवश्य खाने पड़ सकते हैं, इसका अन्दाजा होता है। फिराक़ साहब टंडन जी पर अपनी रुबाई पर दाद और तरल गरल के दबाव से ऐसी तरंग में आ गए थे कि उन्होने अपनी गजलें और नज्में पढ़ने की जगह, बिना किसी प्रसंग के फर्माया, ‘एक ओर मुहम्मद साहब का चेहरा देखो, जैसे नूर टपक रहा हो, और दूसरी ओर तुलसी का चेहरा, जैसे राह चलते भैंस ने चोत कर दिया हो।‘
मजनू साहब नें, जो उर्दू के पाये के आलोचक थे और जिनकी कद्र फिराक साहब भी करते थे,, उन्हें अपने आगोश में लिया और उन्हें मंच से उतार कर बाहर ले गये। उनका इतना सम्मान था कि फिराक भी उनके आगे कोई तमाशा नहीं कर सकते थे।
‘मुसलमान उन्हें इसलिए पीटते कि मुहम्माद साहब मूर्तिपूजा के इतने विरोधी हो गए थे कि उनका चित्र बनाना, यहॉं तक कि कुरान या मस्जिद की पूजा करना तक इस्लाम में वर्जित है। उनके चेहरे से नूर बरसाने की कल्पना फिराक साहब के अवचेतन में मुहम्मद साहब की याद के साथ नानक जी के चित्र से आई हो सकती है, गो यह जरूरी नहीं। पर मूर्तिपूजा का भाव इसमें था और मुहम्मद साहब के काल्पनिक चित्रों को ले कर कई बवाल हो चुके हैं। तुलसीभक्त उन्हें जूते क्यों मारते इसकी व्याख्या की जरूरत नही।‘
’बदजायका हुआ मगर मकसद तो बता दो।’ उसने फिकरा ही जड़ दिया।
‘कलम कागज तो ले कर चलते नहीं, मोबाइल में नोट करते चलो:
’पहला यह कि फिराक साहब हिन्दू थे, मुसलमान नहीं। भाषा और लिपि का प्रश्न सुविधासंपन्न लोगों की अपनी सुविधा से जुड़ा था। तार्किक, वैज्ञानिक या व्याावहारिक औचित्य से नहीं। ’
दूसरा यह कि फिराक हिन्दी का सम्मान करते थे, हिन्दी उर्दू के बीच एक सेतु बनना चाहते थे, इसलिए उनको हिन्दी से प्रेम था, हिन्दी के आन्दोिलनकारियों से नहीं। उर्दू का कोई दूसरा शायर ‘हठधर्मियों’ जैसे शब्द का प्रयोग नहीं कर सकता था।
‘’तीसरा यह कि फिराक उर्दू, अंग्रेजी और हिन्दी के कवियों में सबसे उूँचा दर्जा तुलसी को देते थे। तुलसी के सामने दूसरे सभी कवि उन्हें ठिगने दिखाई देते थे, और उसी तुलसी के प्रति, उनके काव्य् के प्रति नहीं, उनका जो चित्र छपता है उसके प्रति उन्होंने इतनी गर्हित बात की जिसे होश में आने के बाद वह शर्मशार होते रहे होंगे या अपने को आत्मग्लाननि से बचाने के लिए कुछ तर्क कुतर्क गढ़ते रहे होंगे।
’’चौथा यह याद दिलाने के लिए कि अपनी बदहवाशी में भी व्यक्ति किसी सत्य को उद्घाटित करता है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पश्चात्ताप जैसे प्रयोगों से उनकी चिढ़ इस बात को ले कर थी कि जब हिन्दी में पछतावा है और वह निम्नतम स्तर से ले कर उच्चतम स्तर तक समझा जाता है तो हिन्दी के अपने मिजाज को विकृत करते हुए उसे संस्कृत बनाने की क्या जरूरत है।
‘और अन्तिम यह सावधान करने के लिए कि किसी विचार को किसी महान व्यक्ति से जुड़ा देख कर उसे स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए। हमारा सहारा हमारी अपनी बुद्धि ही है, वह नहीं तो हम जड़ हैं। वह है, पर उसका प्रयोग किन्हीं लोगों के प्रति अतिश्रद्धा के कारण न किया तो हम जड़वत आचरण करते हैं। इसलिए हर हालत में हमें अपनी समझ, अपने दिमाग से काम लेना है, जो आप नहीं कर पा रहे हैं।‘’
’’मैं अन्तिमोत्तंर वचन बोलूँ तो झेल पाओगे? तुम्हारी पहुँच कितने छोटे दायरे में है। इसी को तुम पूरी दुनिया समझ रहे हो। सोचते हो इन फिकरेबाजियों से दुनिया बदल दोगे?’’
’’मैं ऐसा भ्रम नहीं पाल सकता, पर यह जरूर सोचता हूँ कि जिनका प्रचार और विचार के प्रसारण के सभी माध्यमों पर अधिकार है और जिसका उन्होंने वहशियाना प्रयोग किया है, वे अपने इसी कारनामे से हाशिये पर क्यों आ गए थे और अब वे भारतीय भूगोल से बाहर जाने का जश्न क्यों मना रहे है।‘