Post – 2016-02-27

हिन्दी का भविष्य (2)

”अक्षत तो यह रहा, फूल लाना भूल गया, चलेगा काम। ”

”चलेगा, तुमसे अच्छा फूल कहाँ मिलेगा, आओ, बैठो।”

”हॉं अब बताओ वह रहस्य की बात जिसका मुहूर्त आज के लिए निकला था और वह भी कर्मकांड के साथ।”

” जहॉं तक भाषा की समस्या है, इसके तीन ऐतिहासिक चरण हैं, पहला उन्नीसवीं शताब्दी का जब संपर्क भाषा के लिए एक राष्ट्रीय सहमति थी और साथ ही उसी के भीतर सेंध लगा कर सामाजिक विघटन के बीज बोए गए थे। दूसरा स्वतन्त्रता आन्दोलन का जिसमें स्वतन्त्र भारत की भाषा क्या होगी इस पर गांधी को छोड़कर किसी दूसरे की नजर नहीं थी परन्तुं गांधीवाद के दूसरे कार्यक्रमों की तरह इसे भी चलाया जा रहा था और इस विषय में किसी ने कोई आपत्ति नहीं जताई थी कि हिन्दी से इतर कोई भाषा स्वतन्त्र भारत की राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती है। जो कील अंग्रेजी कूटनीति ने गाड़ी थी उसमें उसके स्वरूप को ले कर कुछ माथापच्ची जारी थी और इसके चरित्र को बोलचाल के निकट की भाषा बनाने पर सहमति थी, जिसमें हिंदी उर्दू संस्कृात फारसी अरबी, तुर्की और इसलिए अंग्रेजी के भी बोलचाल में आए और भारत के आम लोगों द्वारा समझे जाने वाले शब्दों को स्थान दिया जाना था। यह व्यवहार की भाषा का आदर्श रूप था परन्तु इसके बाद उन लोगों को कोई मुद्दा नहीं बच जाता था जो अलगाव की राजनीति कर रहे थे इसलिए उन्होंने भाषा के स्थान पर लिपि को मुद्दा बनाया क्यों कि वे यह जानते थे कि सामान्य उपयोग के लिए अरबी लिपि स्वीकार नहीं की जा सकती, इसलिए मुसलिम समाज को अलगाने का यह एकमात्र आधार बन सकता है। ”

‘’ये कहानियॉं तुम कितनी बार दुहरा चुके हो याद है तुम्हेंं ?’’

‘’जानता हूँ। मैं यह याद दिला रहा था कि ये ऐतिहासिक मोड़ थे जिन पर वही हो सकता था जो हुआ। तर्क का, जनमत का, देशहित का, सौहार्द का असर नहीं हो सकता था। और यही उस खींच तान का भी असर होना था जो 1965 में हुआ। सच कहो तो हिन्दी को अंग्रेजी के स्थान पर प्रयोग में लाने के लिए जो वातावरण तैयार करना था उसमें हिन्दी के लिए काम करने वाले स्वयं बाधक बने। उन्होंने इसे एक चुनौती समझने के स्थान पर एक अवसर समझा, भुनाने पर उतारू रहे। यह मैं अपने अनुभवों से कह सकता हूँ कि हमने पहले अपनी भाषा को खोया और फिर उस अवसर को खोया जो इतिहास प्रदत्त नहीं था, संविधान प्रदत्त था, और इसलिए इतिहास के विपरीत था । कुछ लोग कहते हैं न कि गोर्बाचेव ने सोवियत संघ को नष्ट कर दिया और उनके विपरीत मैं मानता हूँ कि उसने सोवियत संघ को उस खास ऐतिहासिक चरण पर बचा लिया जब वह मरणासन्न था और सड़ने के लिए तैयार बैठा था। उसी तरह मैं यह मानता हूँ कि उस तमिल सिरफिरे ने हिन्दी को और प्रशासनिक तन्त्र को गिरावट से बचा लिया जो उस समय उस हिन्दी द्वारा अंग्रेजी को स्थानान्तरित होने से उत्पन्‍न होती।‘’

‘’पहले मुझे शक होता था लेकिन आज पक्कां विश्वास हो गया कि तुम्हारे दिमाग का कोई पुर्जा ढीला है। तुम ऐसा मानते थे तो तुम हिन्दी की चाकरी करने क्यों गए?’’

‘’बताने चलूँ तो आत्मश्लाघा होगी, और तुम्हारी समझ में इससे अधिक कुछ न आएगा। परन्तु उस खास चरण पर मैं भी समझता था कि शास्त्री जी ने एक सिरफिरे के आत्मदाह और इस विद्रोह के विस्तार से आतंकित होकर जो यह निर्णय लिया कि जब तक दक्षिण के लोग अंग्रेजी को अपदस्थ करने के लिए तैयार नहीं होते तब तक कोई हिन्दी या अंग्रेजी जिस भी भाषा में काम करना चाहे उसके लिए स्वतन्त्र है, गलत है। उस समय मुझे आघात लगा था। मैं हिन्दी की चाकरी करते हुए इस बात के लिए प्रयत्नशील था कि हिन्दी में कामकाज हो और इसके लिए अपनी जान लड़ाने के लिए तैयार था। बेकारी के लम्बे और तकलीफदेह दौर के बाद और बड़ी मुश्किल से मिली इन नौकरी को भी एक बार छोड़ने को तैयार हो गया था, परन्तु ़सचाई यह है कि मैं तब तक जानता ही न था कि भाषा क्या होती है, भाषा कैसे फैलती-फलती-फूलती है, और मैं ऐतिहासिक औचित्य के विरुद्ध काम कर रहा था इसलिए पूरी भारत सरकार भी सिर के बल खड़ी हो जाती तो हिन्दी को व्यवहार्य नहीं बना सकती थी और यदि बना देती तो ऐसी अन्तर्ग्रन्थियॉं पैदा होतीं जिनके दुष्परिणाम का हम अनुमान तक नहीं कर सकते। जो प्रयोग में आया ही नहीं उसके दुष्परिणाम को समझना कठिन है, पर उसके घटकों की व्याख्या करें तो वह समझ में आ जाएगी।‘’

’’क्यां तुम अपने कथन को प्रभावशाली बनाने के लिए उलटबॉंसियों में बात नहीं कर रहे हो?’

’’उलटबॉंसी का मतलब जानते हो?’’

“जानूँगा क्योंा नहीं, चमत्कार पैदा करने के लिए उलटी पलटी बातें करना।‘’

’’उलटबॉसी का अर्थ है अब तक तुम उल्टे सिरे से बॉंसुरी बजा रहे थे, शब्दों का उल्टा अर्थ ले रहे थे, जिससे शोर और नासमझी पैदा हो रही थी, विचार और सही समझ नहीं। इसे सही सिरे से पकड़ो और सही सिरे से फूँक मारो तो संगीत भी पैदा होग, समझ भी और यह पढ़े-अनपढ़ सभी की समझ में आजाएगा और एक वैचारिक क्रान्ति पैदा हो जाएगी।‘’

“यार तुम कह रहे हो तो दोस्ती के लिए मान लेता हूँ पर इस तरह की व्यापख्या तो दूसरे किसी ने की ही नहीं।‘’
‘’की भी हो तो क्या तुम सर्वज्ञ हो। कहो, यह तो पहली बार जान रहा हूँ।‘’

’’तुम्हारी आदत है, बाल की खाल निकालने की। पुरानी बीमारी है, छूटेगी कुछ देर से। पर यह बताओ, उसे सधुक्कवड़ी भाषा क्यों कहते हैं?’’

’’इसलिए कि तुम जैसे नासमझ यह समझ नहीं पाते कि अ ब से कितनी दूरी पर मिलता है। सधुक्कड़ी का मतलब बिल्कु़ल अलग है। इसका अर्थ है वह भाषा जिसमें कई भाषाओं का घालमेल हो गया हो, क्योंकि साधु सन्त अपने मत का प्रचार करते हुए कई भाषाक्षेत्रों में विचरण करते थे और यह मैं बता चुका हूँ कि यह पैदल यात्रा, एक ही गॉंव या उससे सटे गॉंव में कई दिनों, कभी कभी महीनों के निवास के कारण वे स्थानीय भाषा में अपनी बात कहने लगते थे और उनकी वचनावली में एकाधिक बोलियों के तत्व मिल जाते थे। इसके लिए शायद शुक्ल जी ने पहली बार इस सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया था और वह तब से अब तक चालू है। सन्तों और सूफियों की भाषा में यह भेदक अन्तर है। सूफियों की भाषा उस अंचल विशेष की भाषा है और सन्तों की भाषा एक विशाल क्षेत्र के कतिपय प्रभावों से बनी भाषा है। सन्तों के बोध क्षेत्र में भारतीय परंपरा और इतिहास का बोध तो है ही, ज्ञानपरंपरा का सार भी है, इसलिए इसमें एक क्लाकसिक ऊँवाई है, सूफियों के काव्य में लोकचेतना और संवेदना की अभिव्यक्ति है जो भाषा और विचार दोनों दृष्टियों से एक सीमित परिधि में सिकुड़ कर रह जाती है। ‘’

“’यह कहॉं लिखा है? किसने कहा है ऐसा?’’

‘’यदि तुम्हािरी तरह ग्रन्थीे होता तो ग्रन्थ से आगे बढ़ ही न पाता, न ऐसा कुछ कह पाता जिसे अपना विचार कह सकूँ। तुम्हारे जैसा फूलचन्द बन कर रह जाता जो अक्षत तो लाते हैं पर यह तक नहीं जानते कि इसमें टूटे चावल भी मिले हुए हैं। अक्षत का मतलब जानते हो? यह उस युग का शब्द है जब वन्य नीवार के छिल्के नाखून से उतार कर चावल निकाला जाता था। जब कूटने के औजार तक विकसित नहीं हुए थे। अक्षत उस युग की सबसे बड़ी निधि है। इतने श्रम से अर्जित और संचित । इससे बड़ी कोई निधि हो सकती थी किसी के पास किसी को देने के लिए? इसका निर्वाह रीतिविधानों में बहुत बाद तक किया जाता रहा। पता नहीं किस संहिता का वाक्य है, स तु कृष्णानां व्री‍हीणां नखै निर्भिद्य नैर्ऋतं चरुं श्रपयति। तुम सोचते हो अक्षत चावल ही तो है। रीतिविधान को त्याग दें तो हम आधुनिक हो जाऍंगे। पहले अपनी भाषा, अपने समाज, अपने इतिहास को समझो और तब शायद पता चले कि इनको जारी रखने से हमारी प्रगति का रास्ता बन्द नहीं होता, पर समझ का रास्ता अवश्य बन्द हो जाता है।‘’

’’अब जिधर तुम बहक गए हो, उधर से मोड़ कर सही रास्तेा पर लाने के लिए चौबीस घंटे का समय तो चाहिए ही। चलूँ।‘’ ’

’चलो, घरवाली कोस रही होगी, पर यह ध्यान रखो कि तुम जब अपनी भाषा के उन शब्दों तक को नहीं समझते जिनका आए दिन बोलचाल में व्यवहार करते हो, तो तुम किस भाषा को राजकाज की भाषा बनाने पर तुले थे और उससे भाषा और देश का अनर्थ होता या नही?”