हिन्दी का भविष्य (1)
‘’राजनीति के चने चबाना सबके बस की बात नहीं। जिन्होंने पूरी जिन्दगी लगा दी उनके भी दॉंत टूट जाते हैं, तुम तो न इसकी खबर रखते हो, न इसमें भाग लिया, तुम्हें यह डरावना लगेगा । तुम जिसको समझते हो उसी पर बात किया करो।‘’
’’समझता तो मैं किसी को नहीं हूँ। और राजनीति को तो समझ ही नहीं सकता क्योंकि इसमें गलत कुछ होता ही नहीं; सही कुछ हो ही नहीं सकता। अपनी अपनी जगह पर सभी इतने सही होते हैं कि मिटने के कगार पर भी सही खड़े रहते हैं।‘’
तुमने ठीक समझा इसलिए अपनी दुनिया में ही रहो, परधर्म भयावह होता है। तुम वह जो इतनी लम्बी भूमिका बना रहे थे हिन्दी के भविष्य के बारे में उसकी नींव खोद कर ही इमारत बनी समझ बैठे और जाने कहॉं कहॉ घूम आए । लौट कर देखा भी कि नींव बची हुई है या नहीं।‘’
‘’मैं हिन्दी के भविष्य के बारे में नहीं, भारत के भविष्य के बारे में, भारत के सभी भाषाभाषियों के बारे में बात कर रहा था । और मैं राजभाषा की बात भी नहीं कर रहा था, कागज पर तो वह है ही। कोई हिन्दी में ही लिखे पढ़े तो उस पर कोई रोक नहीं है। मैं शिक्षा की बात कर रहा था। उस बौद्धिक पराधीनता से उबरने की और आन्तरिक उपनिवेशों से मुक्ति पाने की बात कर रहा था जिसकी एक परिणति संपर्क की भाषा और केन्द्रीय राजकाज की भाषा से जुड़ जाता है। यह कोई नई बात भी नहीं है, परन्तु इसके लिए कभी ईमानदारी से प्रयत्न नहीं किया गया।‘’
’’तो तुम समझते हो इस बीच ईमानदारी की इतनी बृद्धि हुई है कि जो पहले संभव नहीं था अब संभव हो सकता है।‘’ उसने अपने जुमले का पूरा मजा लेने के लिए मेरी पीठ पर एक धौल भी जमा दिया।
’’देखो, ईमानदारी का भी एक समय होता है, परिस्थितियॉं होती हैं, और इसके लिए अपेक्षित मनोबल भी जरूरी होता है और ये सभी एक दूसरे से जुड़़े होते हैं।‘’
’’तुम्हें कहना चाहिए था कि ईमानदारी से बात करने का एक मुहूरत भी होता है इसलिए जोतिसी से पूछ कर ही सही बात बोली जा सकती है।‘’
’’ठीक कहा तुमने। मुहूरत भी होता है परन्तु इसके लिए जोतिसी की जरूरत नहीं होती, सिर्फ ऑंखों में जोत की और दिमाग में होस की जरूरत होती है। इसे ही सही ऐतिहासिक चरण कहते हैं। जब मैं साम्यवाद की आलोचना करते हुए कह रहा था कि यह अपने सही समय की प्रतीक्षा नहीं कर सका, इसे उससे पहले ही लाने का प्रयत्न किया गया इसलिए यह रुग्ण पैदा हुआ,यह एक तरह का भ्रूणपात था। इसे पूँजीवाद के चुक जाने, अपनी ही थकान से लुढ़क जाने तक की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी तब यही कह रहा था।
इस पर उसने मुँह तो बनाया पर बोला कुछ नहीं। मैंने अपनी बात जारी रखी, ‘’समय से पहले प्रयत्न अधिक करना होता है, फिर भी विश्वास नहीं होता कि ऐसा हो ही जाएगा इसलिए लोग मरे मन से औपचारिकता का निर्वाह करते हैं और फिर वह भी खत्म हो जाती है। सही समय आने पर परिस्थितियों के दबाव में परिणाम सुनिश्चित और सुलभ्य लगता है इसलिए लोगों में उत्साह का संचार हो जाता है, आत्मविश्वास बढ़ जाता है और वे कृतसंकल्प हो कर काम कर सकते है। इतना ही नहीं, वे जानते हैं कि यदि वे ऐसा नहीं कर सके तो सड़ने और मिटने के अतिरिक्त कोई दूसरा चारा नहीं रह जाएगा। फिर भी यह सवाल तो पैदा होगा ही कि क्या इतना जीवट बचा है इस देश में जिसके मानमर्दन के उपायों को गौरव गाथा की तरह दुहराया जाता रहा है।‘’
’’एक कदम आगे, दो कदम पीछे, एक कदम आगे, दो कदम पीछे, बढ़े चलो बहादुरो बहादुरो बढ़े चलो, और इहो देखलो कि अगर तुम चलने से इन्कार कर दिए तो मंजिल को ही चल कर तुम्हारे पास आना पड़ेगा जैसे ऋतुकाल आने पर डाल को हिलाओ न भी तो पके हुए फल को गुरुत्वाकर्षण के जोर से नीचे आना ही पड़़ेगा। यही कहना चाहते हो तुम ?’’
’’मैंने कुछ और कहा था, परन्तु उसे ग्रहण करने की योग्यता तुममे नहीं है। मैंने यह भी कहा था कि यदि पके हुए फल को अपने आप इतिहास के नियम से अपने मुँह में आने की आशा करोगे तो तुम भूखों मर जाओगे और वह गिरा हुआ फल भी सड़ जाएगा और दोनो से केवल दुर्गन्ध फैलेगी। इसलिए सही ऐतिहासिक चरण पर संकल्प और सक्रियता का अभाव और इस संकल्प और सक्रियता को जगाने वाले नेतृत्व का अभाव उस भविष्य की ओर ले जाता है जहॉं आप तब तक सुरक्षित है जब तक आप पर आपके पालनहार देशों की अनुकंपा बनी हुई है। जिस दिन यह कम हुई आप मिटने लगेंगे और या चुक गई तो आप एक झटके में मिट जाऍंगे।‘
’’मुझे तो हैरानी यह होती है कि तुम तो मेरी ही बात दुहरा रहे हो और मुझे गलत भी साबित कर रहे हो। अरे भाई जब हम आगे बढ़ते हुए भी दूसरे एशियाई देशों की तुलना में पिछड़ते जा रहे हैं तो एक कदम आगे दो कदम पीछे का मुहावरा क्या
गलत है? और तुम जो ठहराव या यथास्थिति को भावी उपलब्धि मान रहे हो, भावी से मिलन होगा का गाना गा रहे हो, वह भी तो किसी राजकुमार के नेतृत्व में ही होना है। वह तो गायब है फिर ले दे कर वही सॉंप और सीढ़ी का खेल। सच कहो तो वह भी नहीं, उसमें चढ़ाई होती तो है, यहाँ तो परिभाषाऍं बदल कर मान लिया जाता है कि कैलाश के शिखर पर पहुँच गए। तुमने ही अपनी किताब में लिखा था, ‘छोटे नरक से बड़े नरक की यात्रा छोटे स्वर्ग से बड़े स्वर्ग की यात्रा से अधिक शानदार होती है।‘ तुम बता चुके कि स्थिति नारकीय है। क्या तुम छोटे नरक को बड़े नरक में बदल कर जश्न मनाना चाहते हो?’’
’’तुम्हारे रहते मैं ऐसा क्यों चाहूँगा। तुम बेरोजगार हो जाओगे। मैं चाहता हॅू कि तुम मेरे कहे का अर्थ तो समझो। उतना ही तुम्हें विद्वान बनाने और रोजी रोजगार दिलाने के लिए काफी है, क्योंकि तुम को मेरे दो कदम पीछे का अर्थ तक नहीं मालूम। एक कदम आगे बढ़ने का मतलब है जो मिला है उसे अपने मानसिक उपापचय तन्त्र में डाल देना जहॉं गल-पच कर वे नई उूर्जा का उत्पादन कर सकें। नजर हो तो तुम्हें उस बुनियाद का परिचय मिलेगा जहॉं परिभाषाऍं बदल जाती है। तुम तो उन सुन्दरियों जैसे हो जो स्वाद पर काबू न रख पाने के कारण जो रुचा उसे खा तो लेती हैं पर इस चिन्ता से कातर हो कर कि इससे तो उनका वजन बढ़ जाएगा, शक्ल बेडौल हो जाएगी, उल्टी करने की आदत डाल लेती हैं और मनोरोगियों की कतार में खड़ी पाई जाती हैं। आज नहीं समझ पाओगे, समझाऊँ तो भी, कल फूल अच्छत ले कर आना तब बताऊँगा कि संभावना की किरण कहॉं से उदित हो सकती है और उसको अवसर देना हमारे सकल उत्थान के लिए कितना जरूरी है।
२६/०२/१६