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ये बौखलाहट भरे दिन हैं। उससे भी अधिक रहस्यमय गतिविधियों के दिन। फेसबुक पर विवेक मिश्र ने एक बहुत अच्छा विश्लेषण किया है जिसे दूसरों को भी पढ़ना चाहिए। उनके अनुसार पिछले लोकसभा चुनाव में जिन जिन श्रेणियों के मतदाओं का पहले की अपेक्षा अधिक समर्थन मोदी को मिला था उनको चिन्हित करके उनके बीच संवेदना भड़काने वाले मुद्दे तलाश कर लोगों को भड़काया जा रहा है।
यह सच है पर इसके साथ यह भी याद रखना होगा कि कांग्रेस के किसी नेता में इतनी चतुरता नहीं है जो इतना सुनियोजित और बहुआयामी और बहुरंगी उपद्रव आयोजित कर सके। यह सुपठित देशभक्तों की पार्टी रही है और इन्दिरा जी के समय तक राष्ट्रीय गरिमा के प्रश्न पर इसके शिखर बिन्दु पर भी कोई समझौता कभी सहन नहीं किया गया। इसके शिखर पर इटालियन इफेक्ट के बाद से सभी तरह के समझौते आरंभ हुए यहॉं तक कि भोपाल गैस त्रासदी के साथ समझौता तक जो आज इस चरम पर पहुँच गया है जिसे बदहवाही से अलग कोई नाम नहीं दिया जा सकता।
यह राष्ट्रीय बदहवासी नहीं है, कांग्रेस नेतृत्व की बदहवाही है जो सान्निपातिक लक्षणों से युक्त है, कथनी में भी करनी में भी, परन्तु इसे पीछे से नियन्त्रित करने वाली ताकत पूरे होस हवास में है – शीतयुद्ध के सीआइए और केजीबी की तरह। शीतयुद्ध सोवियतसंघ के बिखराव और उसके निराले समाजवाद की थकान से उत्पादन में गिरावट और आर्थिक कमजोरी के बाद से शीत-ताप-युद्ध में बदल कर नए रूप में जारी है और अब प्रतिरोधी शक्ति के अभाव में अधिक आक्रामक हो चला है। इसके निशाने पर वही शेष दुनिया है और वेस्ट के नाम पर केवल अमेरिका जो गोरे देशों को जब तक कोई बड़ी अड़चन न पैदा हो जाय, छेड़ने वाला नहीं है।
अभिव्यिक्ति की स्वतन्त्रता का पुराना राग आज भी उसके अफवाहों की सूची में है जिसका उपयोग उसने आपात काल में भी किया था और आज भी कर रहा है जब किसी को कुछ भी कहने की आजादी मिल चुकी है। मैंने ऐसी कविता पढ़ी है जिसमें देश के प्रधानमन्त्री तक को सूअर कहा गया है। संसद के लिए सूअरेर बाड़ा बहुत पहले भी पोस्टरों और पर्चों में देखा जा चुका है। आपातकाल के प्रति अपनी घोर असहमति के बाद भी और इन्द्रा जी के तानाशाही रवैये के विरुद्ध स्वयं छद्मनाम से लिखने के बाद भी मैं उनके इस अभियोग को, जिस पर तब विश्वाास नहीं करता था, आज पूरी तरह नकार नहीं पाता कि इसके पीछे अमेरिकी हाथ भी था भले इसका तत्कालीन संघ को और दूसरे आन्दोलनकारियों को स्वयं भी गुमान न रहा हो।
अमेरिकी ऐजेन्सियों के काम करने का तरीका इतना चतुराई भरा है कि सीधे उनके उकसावे तक का सामना न करना पड़े और आप को लगे आप स्वंयं अपने निर्णय से ऐसा कर रहे हैं। इसमें आज उसका सबसे कारगर हथियार ईसाई मिशनरी हैं जिनके एक भिन्न मजहब होने के कारण नहीं अपितु अमेरिका पोषित होने के कारण है एक खतरनाक उपस्थिति मानता हूँ। सोनिया जी के प्रभुत्व के अन्तर्गत उसे जितने रूपों में और जितना बढ़ावा मिला, संचार माध्यमों
में किस तरह उसके रास्ते बनाए गए, उसका शतांश भी सतह पर उजागर नहीं है यदि है तो केवल कतिपय सर्वविदित क्षेत्रों में उसका धमान्तरण का अभियान। गांधी परिवार आज नामत: जो भी हो धर्म: क्या है यह छिपा नहीं है इसलिए राहुल गांधी ही ऐसे व्य क्ति हो सकते थे जो अपनी नासमझी में यह कह कर कि भारत को टेररिज्मि से उतना खतरा नहीं है, जितना हिन्दुतइज्म से और वह भी विदेशी जमीन पर, उस सचाई को उजागर कर दें जिस पर परदा डाला गया था।
दलितो और मुसलमानों को जोड़ने, स्त्री- अधिकारों की ऐसी भूख कि आज तक उनको शनि की छाया से डर लगता था आज वह उनके मन्दिर में पुरुषों से समानता के आधार पर प्रवेश की मॉंग करने के लिए आन्दोलन के लिए भीड़ जुटाने में सफल हो गई और वह भी वे महिलाएँ जिनकी आधुनिक वेशभूषा से स्वत: प्रकट हो कि इनका मन्दिर या किसी देवता में विश्वास ही नहीं होगा। स्वा मीनारायण संप्रदाय में ब्रह्मचर्या पर इतना जोर है कि जब उनके मन्दिर में उसके साधु प्रवेश करते हैं, उसमें किसी स्त्री का प्रवेश नहीं हो सकता। मैं अपनी पत्नी के साथ मन्दिर देखने गया था और पाया महिलाऍं बाहर प्रतीक्षा कर रही हैं। पत्नी को भी प्रतीक्षा करनी पड़ी यद्यपि मैं यह देखने के लिए बढ़ गया कि उनका परिधान और उपासना की रीति क्या है। वे कुछ परिक्रमाऍं करते हैं परन्तु उनके उत्तरीय को लहराता हुआ छोर भी किसी स्त्री से छू जाए तो उन्हें कड़ाके की ठंड में भी दुबारा स्नान करना पड़ेगा। पर आन्दोलन इस बात का कि पुरुष यदि जा सकते हैं तो हम क्यों नहीं। विचित्र मॉंगें जो इससे पहले कभी उठाई नहीं गईं, एक झटके में इस उम्मीाद में उठाई गईं कि इसमें शासन हस्ततक्षेप करेगा क्योंकि दोनों राज्यों में भाजपा का शासन है जिसका रवैया परंपरावादी होगा और उन्हें शासन पर हमला करने का मौका मिल जाएगा और फिर भाजपा को मनुवादी अत: ब्राह्मणवादी ठहरा कर शेष जातियों को उससे अलग और वर्णवादी असमानता का शिकार दिखा कर उन्हें लामबन्दण करने, ईसाई-मुस्लिम-दलित एकता के नाम पर उनको हिन्दू् समाज से अलगाने में मदद मिलेगी। यदि आपने ‘लाखों भारतीयों की आकांक्षाओं का प्रतीक’ फारवर्ड प्रेस के अंक देखे हों तो इस योजना को समझने में आसानी होगी। इसके संपादक हैं डॉ. सिल्विया फर्नांडीस जिनकी संपादकीय योग्योता का मैं प्रशंसक हूँ और कार्ययोजना को सामाजिक सौमनस्य के विपरीत पाता हूँ। समझ की खोट हो सकती है। राजनीतिक पैंतरेबाजी की समझ मुझमें बिल्कुल नहीं है, उस नाले में कभी उतरा ही नहीं जो स्वच्छ हो तो पतित पावन बन कर आसमुद्र प्रवाहित होता है और मलिन हो तो परनाले में बदल कर पतित पावनियों से ले कर समुद्र तक को मैला कर देता है। औपनिवेशिक चंगुल से निकले सभी देशों की राजनीति परनालों की राजनीति क्यों बन गई यह नवमुक्त देशों को मिलकर सोचना चाहिए।
यदि मेरे ये विचार आपको मूर्खतापूर्ण लगें तो आपके समर्थन में हाथ उठाने वालाें में मैं पहला स्थान पाना चाहूँगा क्योंकि जब तब मुझे लगता है कि जो दूसरे सभी मानते हैं या लगभग सभी मानते हैं उसे मैं क्यों नहीं मान पाता । मूर्ख नहीं, सिरफिरा ही सही। कुछ तो गड़बड़ है। परन्तु मेरी चेतावनियॉं बाद में सच बनती रहीं और मेरी व्यााख्यायें जिस झूठ का पर्दाफाश कर सकीं और उनकी फसल उगाने वाले सर्वप्रभुता संपन्न विद्वानों को झुकने को बाध्य कर सकीं, वे पुन: मुझे दुस्साहसी बना देती हैं, इसलिए कहना पड़ता है कि जो मेरी गलतियों को साक्ष्य , प्रमाण, तर्क और औचित्य के साथ उजागर नहीं कर सकते, संचारमाध्यवमों के बल पर ऐसा करना चाहते हैं, उनका जवाब उन परिणामों से मिलता है जो आप के पास थे पर जिन्हें आप दबाते रहे, जैसे इशरत जहॉं के बारे में आप को अमेरिकी जॉंच एजेन्सी से पता था कि वह एक आत्मघाती हमलावर थी और आप उसे निर्दोष बताते रहे। आप आतंकवादियों के साथ तब से खड़े हैं जब से यह सूचना मिली और आपने आतंकवादियों का। इसलिए गलती करने की अधिकतम संभावना के बाद भी, समझदार कहे जाने वाले लोगों द्वारा गलत करार दिए जाने या उपेक्षा किए जाने के बाद भी मुझे यह भ्रम है कि मै बावरा नहीं हूँ, बौद्धिक परिवेश ही बावला हो गया है। मुझे उसकी जरूरत नहीं, उसे मेरी जरूरत है और बावलेपन का हाल यह कि वह इसे जानता तक नहीं इसलिए वह मेरे पास नहीं आएगा, मुझे ही उसके पास जाना होगा। उसकी गालियॉं सुनने के बाद भी, उसकी झिड़कियॉं खाने के बाद भी। उसका आघात सहने के बाद भी। जो होश में नहीं, उसे दोष कैसे दिया जा सकता है।
समसामयिक ‘राज-नीति’ में भागीदारी और समझदारी के अभाव में मैं इतिहास को देखता हूँ। सद्दाम के ईराक को किसने हरबा हथियार दिए थे जिसमें रासायनिक और परमाणु हथियार भी थे। उसे कुर्दों को उत्पीडि़त करने के लिए किसने उकसाया था। इराकी शिया समुदाय के प्रति घृणा यदि पहले उग्र थी तो हमारी जानकारी में नहीं आई थी। कुवैत र्ईराक के भूभाग के तेल भंडारों को भी दोहन कर ले रहा है इसलिए उसे उससे क्षतिपूर्ति मॉगने का अधिकार है और यदि वह न माने तो उसे बाध्य करने का अधिकार है। यह ईराक में अमेरिका की तत्कालीन महिला राजदूत के बयानों से प्रकट था परन्तुे उसे मास मीडिया से जल्द ही हटा लिया गया। कुवैत पर आक्रमण के दौरान अमेरिकी प्रसार माध्यमों से यह विज्ञापित किया जाना कि कल वह तेल के कुओं में आग लगा देगा, अगले दिन आग लग जाती थी, प्रचारित किया जाता वह तेल के टैंकरों को क्षति पहुँचाएगा। अगले दिन तेल के टैंकरों को नष्ट कर दिया जाता। तेल से प्रभावित समुद्र से साइबेरियन पक्षी निकाल कर उनकी सुध लेने वालों के चित्र दिखाए जाते, जिनकी करुण कथा में मनुष्यों का उत्पी ड़न छिप जाता। उसी समय दहशत में मैंने सोचा था आज इन पर बीत रही है कल हमारी बारी है। हंटिंगटन की पुस्तक पढ़ी न थी पर यह पता था यह पश्चिम और उसके नायक अमेरिका और शेष जगत – The West and the Rest का संग्राम है और यह नए रूपों में उभर रहा है जिसके दावपेच तक हमें नहीं मालूम। परमगति के आमुख की ये पंक्तियॉं ‘’सूचना, नव्य- न्याय-दर्शन और प्रहारशक्ति का यह सम्मिलित प्रदर्शन देख कर संसार मुग्ध था और मैं डर रहा था कि यह किसी दिन किसी के साथ भी हो सकता है। इसकी तैयारियॉं हमारे विरुद्ध भी कई ओर से चल रही हैं।‘
तब जो तैयारी थी वह अब कार्ययोजना बन कर सामने आ रही है इसलिए जरूरी है पड़ोसी की नाराजगी को भी समझें और हम सभी को जो अपना शिकार बना कर ठीक उन्हीं तरीकों से तीसरी दुनिया को अपने लिए खाली कराने के तरीके सोच रहा है उसे कुछ अधिक ध्या न से समझें। राहुल की अक्ल के बारे में लोगों को पता है, शक्ल ऐसी कि कुँवारियॉं क्या विवाहिताऍं तक फिदा हो जायँ, सेहत ऐसी कि लगे यह जिमनास्ट बनना चाहता था या राजनेता, पर इरादे ऐसे कि लगे इसको किसी शातिर ने शिकार बनाया है। राहुल और कांग्रेस पर गुस्साा उतारने की जरूरत नहीं, न मुसलमानों पर। ये अपने अपने कारणों से किसी बड़े बहेलिये के निशाने पर आ गए हैं।
अब अपने इतिहास में जाऍं। इस ऐक्शन प्लान के पहले प्रयोग जिसे अतिसमझदारों ने निर्भया कांड का नाम दे दिया, के उपलक्ष्य में पुलिस से पूर्व अनुमति के बिना आयोजित एक कार्यक्रम में एक विशाल रैली का आयोजन जिसमें पुलिस को वाटर कैनन तक का प्रयोग करना पड़ा, बुलेट प्रूफ का प्रयोग करना पड़ा। इसका संचालन जहॉं से और जैसे हो रहा था उसका पता किसी और को न था और उसका यह भोलापन ही मुझे संत्रस्त कर रहा था । मेरी नासमझी है, पर अन्ना के आन्दोलन की मैं सराहना नहीं कर सका और उनका इस्तेमाल करने वालों ने उन्हें जहॉं पहुँचा दिया वह उसी के काबिल थे। उन्हें किनारे डालने वालों ने विजय के बाद भी राजपथ से सटे, गणतन्त्र दिवस से ठीक पहले जो नाटक इस आशा में किया कि इसे दमन करने के लिए गोली चलेगी, राजपथ को देश हित से विचलन को कोई नया नाम देना होगा उसे तत्कालीन गृहमन्त्री की सूझ से विफल कर दिया गया और अनशन एक दिन एक रात में ही, खत्म हाे गया। भारत को असंतुलित बनाने के जितने संभव तरीके हें, वे सभी उठाए जा रहे हैं। गांधी परिवार का दुर्भाग्य है कि उसने साेच लिया कि वंश हमारा ही चलेगा। परन्तु इस महत्वाकांक्षा के कारण वे स्वयंं असमंजस में हो सकते हैं- भारत में ही कहीं हमको जगह मिल पाएगी क्या् या विदेश जाना होगा जहॉं सुनते हैं बहुत बड़ी कंपनी में इतना अधिक पैसा लगाया गया है कि उसकी शर्त पूरा करने के लिए वहॉं की नागरिकता लेनी पड़ी। मैं ईश्वर से प्राथर्ना करता हूँ कि इस चिट्ठठे का एक एक शब्द गलत हो और इसे मेरी नासमझी माना जाय।