आमुख-विमुख
आज फरवरी की 22वीं तिथि है। जिस समय मैं ये पंक्तियॉं लिख रहा हूँ, उस समय टीवी पर जाट आरक्षण को ले कर हुई हिंसा और आगजनी से पूरा हरयाणा दहक चुका है। जले हुए पार्को, टोल बूथो, मालों, दूकानो, कारो, बसो, मालगाडि़यों के दृश्य चैनलों से दिखाए जा रहे हैं और यह आगजनी एक दाह बन कर मुझे और मुझ जैसे करोड़ों लोगों को शर्म, अपमान और ग्लानि से अभिभूत कर रही है। यह किसका प्रदेश’ है ? जाटों का ? इसे कौन तबाह कर रहा है? स्वयं जाट ? इसका अगुआ कौन है? कोई नहीं ? यह किसी मॉंग को लेकर किया जा रहा आन्दोलन है, या आरक्षण की आड़ में भड़काया गया दंगा? इसे किसने भड़काया है और भड़काता जा रहा है और मुँह दिखाने का साहस तक नहीं कर पाता ? क्या वह भी जाट ही है? अपने घर को ही बर्वाद करने के किस्से जिस विक्षिप्त मानसिकता को प्रकट करते हैं, वह जाटों के बारे में इतनी सच हो सकती है कि हजारों लाखों में कोई होश हवास में न मिले? क्या जाटों की असाधारण समझदारी के जो किस्से लोग विनोदवश सुनाया करते थे, उनको सच सिद्ध करने की ठान कर ऐसा किया जा रहा ? जब तक उन असाधारण प्रतिभा के मित्रों की याद बनी हुई है, पूरी जाति को ले कर इस तरह की याद आना भी शर्मनाक है, परन्तु वे मनस्वी, लोग किस कोने में छिप गए हैं जो जाट पहचान से जुड़े अनर्थ पर हस्तक्षेप तक नहीं कर पाते।
सच यह है कि एक जाति के रूप में जाटों की छवि को ही नष्ट करने का खेल खेलने वाला कोई और है जो उस परदे के पीछे लगे परदे में कहीं छिपा होगा। कारण यह अकेले एक कारण से एक राज्य में नहीं हो रहा है, अखिल भारतीय स्तर पर असंख्य झूठे और धूर्ततापूर्ण बहानों से किया गया और किया जा रहा है और जब से उसकी भ्रष्टता, कुनबापरस्ती और ढोंग के कारण भीतर से खोखली हो चुकी कांग्रेस को मतदाताओं ने अस्वीकार करने का मन बना लिया तभी से इसकी तैयारी और प्रयोग चल रहे थे कि यदि सत्ता हमारी मुट्ठी में न रही तो संसद, लोकतन्त्र यहॉं तक कि इस देश को नष्ट कर देगे, परन्तु झुकेंगे नहीं ।
पूरा देश विस्मय में था कि युवराज एकाएक संसद का सत्र छोड़ कर कहॉं गायब हुआ और इतने रहस्यमय ढंग से क्यों गायब हुआ कि लोग अटकलें लगा रहे हैं वह है कहॉं? कब लौटेगा? क्या कर रहा है? राजमहल के बहुमुख बहुत कुरेदने पर ताली बजाते हुए गाते थे, ‘लौटेगा भई लौटेगा’, राजा भैया लौटेगा, राजा बन कर लौटेगा’ केवल, यह नहीं बता रहे थे कि कहॉं है और कब लौटेगा और बाद में पता चला वह किसी रहस्य मय राजनीति की ट्रेनिंग पर गया था और क्या सीख समझ कर आया इसका कभी खुलासा नहीं हुआ। उसका आत्मविश्वास का स्तर अवश्य पहले से बढ़ा मिला और वह बाद की पराजयों से भी कम नहीं हुआ और आज तक बना हुआ है।
क्या वह उसी की ट्रेनिंग का असर है जो इतने व्यापक रूप में दिखाई दे रहा है? संसद नहीं चलने पाएगी, संसद जिस प्रयोजन से बनी है, उसकी जरूरत हमें नहीं, वह हमारी शर्तो पर चल सकती है और विपक्ष के दावेदारी के बाद भी संसद हम चलाऍंगे जनता के प्रतिनिधि नहीं। देश पर हमारा शासन नहीं तो हम इसे नष्ट कर देंगे। हम इस देश के जन्मजात शासक हैं और जो कुछ है हमसे ही है।
मुझे इस समय अपनी ही एक कृति की जिसे मैंने चम्पू (गद्य पद्य मिश्रित) शैली में लिखा था, कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो 1997 में लिखी गई थी पर इस चिन्ता में लिखी गई थी कि आगे होने वाला क्या है:-
खूँबहा किसने लिया खून बहाया किसका।
क़त्ल जिसने भी किया कत्ल कराया किसका।।
किससे मिल कर के किया किसके इशारे पर किया ।
किसको क्या सब्ज दिखा किसके सहारे पर किया ।।
फिर भी कहते रहे सब कुछ है हमीं से, हमसे ।
और कहते रहे घटकर है यह आलम हमसे ।।
लिक्खोे भूगोल नया, लिक्खो इतिहास नया।
लिक्खोे इस तरह कि लोगों को विश्वास नया ।।
जो भला है वह भला मेरे खानदान से है।
कुछ बुरा भी है हुआ, देखिए किस शान से है ।।
झूठ पर झूठ के अम्बारर लगा कर रख दो।
जो बदनुमा है उसे दूसरों के सर रख दो ।।
कहीं नहीं हैं कहीं भी नहीं लहू के निशान।
न दस्तो पा में ने टोपी में न अचकन में कहीं ।
न ही उस भूल में जो फूल बनी लिपटी रही ।
सोच में भी नहीं, देखो कहीं जहन में नहीं ।।
उचक उचक के यही तर्ज गुनगुनाते हुए ।
बदल के शब्द वही नीतियॉं चलाते हुए ।।
लगे कि देश यह आजाद है गुलाम भी है।
कि वही राज छुपा गो है सरेआम भी है ।।
बोली बानी में वही, चुश्त जबानी में वही ।
गौर से देखिए तो फिर कई मानी में वही ।। …
ताज किनको मिला और ताजिए किनके निकले।
पाई आजादी पर किस भाव पर और किनके भाव
सिर कलम किनके हुए किसकी शहादत ठहरी
लाभ किसका हुआ किन लोगों के नुकसान के बाद ।
फिर भी समझाया कि यह मेरी इनायत ठहरी ।
जाहिर है जब इसे लिख रहा था तब कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि नेहरू की चेतना में वंशवाद और आत्मराग और सत्ता के लिए देश और समाज का किसी तरह का सत्यानाश स्वीकार्य था। इसके खुलासे के लिए चौथी पीढ़ी तक प्रतीक्षा करनी पड़ी जब कांग्रेस के अपने ही एक पत्र ने उसका इतिहास और अन्त:-सत्य उगल दिया। गनीमत है कि जिस समय मैं अपना यह आमुख लिखते हुए विमुख लोगों को भी संबोधित कर रहा हूँ मेरा मित्र यहॉं नहीं है, वर्ना पूछता, तुम स्वयं बुद्धिजीवियों को राजनीति से दूर रहने को और अपना काम करने को कहते हो और खुद भी राजनीति में घुस गए और जैसी कि मेरी आदत है मुझे कहना पड़ता, ‘तुम मूर्ख हो इसलिए राजनीति की समझ, उसके बौद्धिक विमर्श और नारेबाजी, मजमेबाजी और हथियाने वाली सक्रिय राजनीति में फर्क ही नहीं कर पाते तो दोष किसका है?
इतना भारी नुकसान हुआ है कि लोग बयान दे रहे हैं कि रोहतक नगर बनने से पहले यह जो कुछ था उसमें पहुँच गया है। सुनते हैं आइंस्टाहइन ने कभी कहा था कि यदि तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो उसके बाद के युद्ध पत्थर के हथियारों से होंगे। उसकी याद आ रही है। परन्तु आइंस्टाइन को भी पता नहीं था कि तीसरा विश्व युद्ध हथियारों से नहीं अफवाहों और सूचनातन्त्र के विनाश के माध्याम से लड़ा जाएगा जिसमें सूचना के स्रोत भी अफवाहों के प्रसार में सहायक की भूमिका ऐसे तेवर से देंगे कि लगे झूठ ही सच है और सच ही झूठ। फिर उसी पुस्त क की याद-
सच की महिमा बहुत है सच बिन मोल बिकाय।
लागे लंगी झूठ की मुँह के बल भहराय ।।
सच के बल हरिचन्द से सेवा डोम कराय।
उूपर से सुत का मरन, घरनी रही बिकाय ।।
अनृतमेव जयते रे बन्दे अनृत अमृत की खान।
अनृतानृत के जोर से यह चल रहा जहान ।। २३/०२/१६
अपू्र्ण