मित्रो मैं आज तुलसीदास की लेखक के दायित्व पर सबसे सरगर्भित टिप्पणी की और आप का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा :
भाषा भणिति भूति भल सोई सुरसरि सम सबकर हित होई. इसमें सबकर हित की साधना ही लेखक को सबका सेवक बना देती है. पाठक मित्रों ने आदेश दिया, ड्यूटी पर हाज़िर रहना है. प्रूफ वूफ का बहाना नहीं चलेगा. सो हुक्म तो बजाना ही पड़ेगा.
परन्तु यह याद दिलाते हुए कि हाल के दिनों में आई सार्विक गिरावट के कारण सुरसरि भी कलुषित हुई और भाषा और भणिति भी. अपनी अक्लमंदी में लेखक यह तक भूल गया कि जब वह सब कर हित को समर्पित होता है तो तानाशाह भी उससे डरते हैं, अपने रस्ते से सबसे पहले हटाते भी उसी को हैं पर हटा नही पाते क्योंकि वह जन-मन तक पहुँच चुका होता है. भाषा और भणिति की पवित्रता और लेखक और विचारक का गौरव और साहित्य की गरिमा तभी तक बनी रहती है. जब लेखक, कलाकार,विचारक ताज और सिंहासन से जुड़ना चाहता है तो उसे सत्ता में बैठे लोगों के चरण चूमने पड़ते हैं और उनकी अपनी कलाबाज़ी के कारण वे कलाबत्तू लगे मसखरों में तब्दील हो जाते है और भाषा और भणिति की सुरसरि विशालकाय नाले में बदल जाती है. हमारे हंगामेबाज लेखको, अध्यापकों, पत्रकारों को आत्ममंथन करना चाहिए और सत्ता की चरणधूलि बनकर इतराने की जगह जन गण को समर्पित होकर कम से कम भाषा और भणिति की सुरसरि की पवित्रता पर ध्यान देना चाहिए.
इसके साथ ही एक चिंतित करने वाली संभावना. क्या आप कोल्ड वॉर या शीतयुद्ध का अर्थ जानते हैं.आपमें से बहुत से लोग जानते होंगे, पर मैं नहीं जानता था. आज समझ में आया कि इसका अर्थ है अफवाह और दुष्प्रचार से शत्रु देश को उसके ही भीतर विक्षोभ और अराजकता पैदा कर के उसे अंतर्ध्वस्त कर देना. इस युद्ध में अपने खुफिया तंत्रों के माध्यम से अमेरिका और रूस दोनों तृतीय विश्व युद्ध लड़ते रहे और दुनिया के दूसरे देशों में अपनी पैठ के अनुसार अपनी जंग लड़ते रहे और हमारे लोग भी उसमें शामिल हुए. अमेरिका ने सोवियत संघ को ध्वस्त कर दिया. भारत में कम्युनिस्ट विचार दर्शन ने उसे टक्कर दी पर आज के दिन सारे मार्क्सवादी अमेरिका की गोद में चले गए हैं और तेवर सेकुलरिज्म, साम्यवाद का रखे हुए हैं. प्रसंगवश यह याद दिलादें कि हमारे यहां शीतयुद्ध के लिए ‘छाया युद्ध’ का प्रयोग किया जाता था.
खैर शीतयुद्ध तत्वतः द्रव्य युद्ध था. जो अधिकतम पैठ बना सकता था वह विजेता. यह बोध मुझे अपनी प्रकाश्य पुस्तक इतिहास का वर्तमान का प्रूफ पढ़ते हुए हुआ. उसमें एक उद्धरण है जिसे आपने पढ़ा होगा पर जब जिसने लिखा या उद्धृत किया उसे ही याद नही तो आप को क्यों होगा:
Give me a hundred million dollars and a thousand dedicated people, and I will guarantee to generate such a wave of democratic unrest among the masses–yes, even among the soldiers–of Stalin’s own empire, that all his problems for a long period of time to come will be internal. I can find the people. — Sidney Hook, 1949
अमेरिका पैसे की दौड़ मेँ आगे होना ही था, वह लूट का माल बांटता था, सोवियत संघ अपने लोगों का पेट काट कर दुनिया को समझाना चाहता था कि पूंजीवाद हथियार के बल पर पलने वाली व्यवस्था है और जब तक यह है, मनुष्य शांति से नहीं रह सकता. इसे इंसान को बेहतर इंसान बनाने की जगह उसे अति-सूचना -सम्पन्न शैतान बनाने या किसी ऐसे ही अनुभव से हमारी चेतना में यह भरा गया था कि भौतिक शक्तियों पर विजय पाने वाला राक्षस मनुष्यता के लिए कितना बड़ा खतरा है. अमेरिका के पास एक ही उद्योग है, आयुध परिष्कार और आयुध उत्पादन, यह उसकी ज़रूरत है कि वह शांति की बातें करे और युद्ध भड़काए. सोविएत संघ टूट गया, पर वह अकेला है जो मानवता की रक्षा कर सकता है. अमेरिका आतंकवाद की निंदा करेगा और उसे बढ़ाने के लिए पाकिस्तान को इमदाद भी देगा कि पाकिस्तान से आगे जाने के लिये भारत उसका हथियार खरीदे. मैं मोदी की इस सूझ के लिए दाद तो देना चाहता हूँ कि वह अमेरिका से अच्छे सम्बन्ध भी चाहते हैं, आत्मनिर्भर होने तक सामरिक तैयारी भी करना चाहते हैं पर अमेरिकी जाल में नहीं आना चाहते. विश्वास नहीं होता कि इतनी कूटनीतिक चतुरता इस चाय बेचने वाले के पास हो सकती है! परन्तु तभी ध्यान आता है यह समझ किताबी आदमी में नहीं हो सकती है जो आकाशवेलिवत फैलता हो और अपने ही समाज को निःसत्व करने के बाद स्वयं सूखता हो ।.
पर ध्यान दें उस उद्धरण पर, क्या अनायास हो जा रहे है एक संस्था से दूसरी तक पलीते की तरह विष्फोट. इसकी जांच होनी चाहिए. इस तंत्र को उजागर करना जरूरी है ऐसे आयोजनों पर सक्रियता एक राष्ट्रीय चिंता का विषय है.पैसे की गणिति को समझना हुंकार भरने से अधिक जरूरी है. कहॉं से आ रहा है वह पैसा, कैसे वितरित हो रहा है और किनके मन क्यों तेजी से बदल रहे हैं। अमेरिका जिसका देास्त होगा उसे बर्वाद करके अपना हित साधेगा- हुआ वह दोस्त जिसका उसका दुश्मन आसमॉं क्यों हो। अमेरिका नही, सोवियत संघ अपनी क्षीणशक्ति के बावजूद हमारा मित्र है परन्तु भारतीय मार्क्सवादी आरंभ से ही स्वार्थी रहे हैं और वे नाम के मार्क्सिस्ट थे और काम के मामले में पूंजीवादी हितों के अनुकूल रहे हैं । जांँचिये आज के दिन सभी नंगे मिलेंगे और देशद्रोह की सीमा तक जा कर अपने को सर्वोपरि बताने को उद्वेलित भी।