Post – 2016-02-18

अधोगति का दर्शन
‘अब आज तो हमें राष्ट्राभाषा की समस्या को समझना ही पड़ेगा।‘ बैठते ही उसने दागा, ‘रोज कन्नी काट जाते हो।‘
‘राष्ट्रभाषा कोई समस्या है ही नहीं! वह तो लोकस्वीकृत है. राष्ट्रभाषा संविधान से नहीं बनती, न कोई राष्ट्रपिता बनता है, न देशरत्न, न देशबंधु, न लोकमान्य, न गुरुदेव, न महामना…’

’न भगवान, जोड़ दो यार, क्या लगता है, जिस रौ में हो उसमें चल जाएगा।‘

’मैं जानता हूँ तुम इतने गिर चुके हो कि तुम्हें इस बात तक का पता नहीं तुम किसका और कितना अपमान कर रहे हो, और क्यों ! हद यह कि तुम विटी माने जाने के चक्कर में यह तक नहीं जानते कि इनके कारण ही लोग तुम्हें गैरजिम्मेदार या मूर्ख समझ सकते हैं और उसके बाद तुम दिखाई दोगे पर कोई देखेगा नही, रहोगे पर शिफर बन कर। जिसे मिटाना चाहते हो वह तुम्हारी भर्त्सना के कारण ही आसमान में उठता जाएगा, और तुम रसातल में पहुँचने की अर्जी दोगे तो जवाब मिलेगा, जगह खाली नहीं है! त्रिशंकु बन कर टँगे रहो! जगह होगी तो भर्ती कर लेंगे। आज तुम्हारी पार्टी का यही हाल है न और फिर भी नहीं चेत रहे। रामचन्द्रिका की वह पंक्ति तुम्हें याद है, ‘चेतना ही न रही चढि़ चित्त सो चाहत मूढ़ चिताहू चढ्यो रे।‘
’यार, मैंने तो विनोदवश बातों में रस लाने के लिए तुम्हें छेड़ा था और तुम इतने नाराज हो गए कि जिसे पुराने मुहावरे में सात पुश्तोंं की खबर लेना कहते थे, उस पर उतर आए।‘

’तुमने फ्रायड की साइकोलोजी आफ एरर्स पढ़ी है?’

’नहीं पढ़ी है तो अब पढ़ लूँगा। तू इतना गुस्सा क्यों हो गया, यह तो समझूँ ।‘

’गुस्सा नहीं हुआ था। तुझे नंगा देख लिया था और घबरा गया था। जानते हो फ्रायड का हमारे विश्वुबोध में सबसे बड़ा योगदान क्या है?
‘तुम नहीं जान पाओगे, मैं बताता हूँ। उसका योगदान है यह तत्वदर्शन कि जिसे हम चूक, विनोद, दिवास्वन और स्वप्न आदि कहते हैं, इनमें से कोई अकारण या निराधार नहीं हैं। सचेत रहने पर हम अपनी कमजोरियों और विकृतियों पर परदा डाल लेते हैं, आवेग की प्रखरता में हम, उस परदे को उतार फेंकते हैं और हमारी सचाई हमारे न चाहते हुए भी सामने आ जाती है। तुम विनोद नहीं कर रहे थे। हमारे राष्ट्रवादी नेताओं के नाम से ही तुम्हें व्यतग्रता अनुभव होने लगी थी और फिर वह वाक्य‍ तुम्हारी समझ से विनोद के लिए निकला था पर निकला किसी अन्य कारण से था। यह थी आत्मघृणा जो एक उच्च जीवनमूल्य के रूप में तुम्हा्रे अन्त र्मन में एक विकृत पाठ के द्वारा उतार दी गई है। और माफ करना, यह पाठ ही मुझे मेरे सामने नंगा कर गया। मेरी समझ इतनी कम क्यों है कि मैं उस व्यक्ति तक को पूरी तरह नहीं जानता जो झगड़ता तो रोज है पर संबन्धं चुंबक के विरोधी ध्रुवों जैसा ही प्रगाढ़ है ! आज पता चला कि तुम सम्मोहन में मिले आदेशों का पालन कर रहे हो।‘
पता नहीं क्या हुआ, मेरे भीतर एकाएक ऐसा गहरा सन्ताप भर आया कि लगा मैं अपना सन्तुलन खो बैठूँगा। कुछ कहा तो वह भी अनर्थकारी ही होगा। एक दहशत सी भर गई, एक अतीन्द्रिय कुहाच्छन्नता जिसमें ऑंखों के आगे अँधेरा छा गया। अपने को सँभालने की कोशिश की तो ऑंखें गीली हो गईं। अपने दैन्य को छिपाने के लिए मैं उठ खड़ा हुआ।
मेरी स्थिति उससे छिपी न रही, ‘क्या हुआ, एकाएक तुम्हें हो क्या गया। वह भी उठ खड़ा हुआ। मैंने कुछ कहा नहीं, हाथ से बरज दिया, अभी नहीं, अभी कुछ मत पूछो’ और अपने में खोया हुआ ट्रैक पर चहल कदमी करने लगा। वह भी मेरे साथ चलता रहा, चुपचाप, सहमा हुआ सा। पन्द्रतह बीस मिनट के बाद ही थकान सी लगने लगी। किनारे पड़े एक बेंच पर बैठा तो वह वह भी साथ बैठ गया। इस बीच अपने को सँभाल लिया था, इसका आभास उसे भी हुआ होगा। सहमे हुए स्वर में ही बोला, ‘तुम्हें एकाएक हो क्या गया था?’
‘मैं खुद नहीं जानता क्या हो हो गया था। एक विजली की कौंध के साथ जैसे बादलों का दरकना और अन्तमर्दाह से चीत्का‍र करना। एक पर एक कौंध। एक क्रम जो इससे पहले कभी न सोचा था न देखा था। घबरा गया था।‘
‘समझ में नहीं आया क्या् कह रहे हो।‘
‘जानते हो हमारा अवचेतना उस समय भी किसी रहस्यरमय तरीके से काम करता और हमारे चेतन के लिए अग्राह्य सूचनाओं को घोल फेंट कर अपने तरीके से समाधान निकालता रहता है जब हम चेतन स्तर पर किसी दूसरी समस्या से टकरा रहे होते हैं । मैं जब तुम्हें झिड़क रहा था उसी समय मुझे जेएनयू का वह फुटेज सामने आ गया जिसमें अफजल गुरु के जिन्दांबाद और भारत को तोड़ने के नारे लग रहे थे। एक क्षण के लिए यह आशंका उभरी, अपने ही देश के इतने सारे लोग ऐसा कैसे कर सकते है? तभी वे नारे सुनाई पड़ने लगे जिनमें ब्राह्मणवाद को कोसा जा रहा था। सजा कांग्रेस के शासनकाल में हुई थी, फॉंसी उसी दौर में दी गई थी, भले दस पन्द्रह साल लटकाने के बाद, फिर इसमें ब्राह्मणवाद कहॉं से आ गया? फिर याद आया कि फॉंसी भले जज ने दी थी और सारी अपीलें खारिज हो गई थी, फिर भी कांग्रेस उसे बचाना चाहती थी और यह भाजपा थी जो लगातार देशद्रोही को सजा देने की मॉंग कर रही थी। भाजपा को ब्राह्मणवाद बता कर इसी न्याय से उसकी फांसी से जोड़ कर कोसा जा रहा था। घबराहट हुई यह सोच कर कि कांग्रेस उसे इसलिए बचाना चाहती थी कि जिस संसद पर हमला हुआ था, उसका सत्र चल रहा था और कांग्रेस में प्रभावशाली स्तर पर इस बात की पीड़ा थी वह हमला बेकार क्यों हो गया। सफल हुआ होता तो भाजपा के सारे नेताओं का जिन्होंने कांग्रेस से सत्ता छीनी थी, सफाया हो गया होता और उसके दिन लौट आये होते। की सत्ता के लिए कांग्रेस आतंकवादी हमले तक से सहानुभूति रख सकती है. और इस कारण ही अफजल गुरु से उसकी सहानुभूति थी और इसके कारण कोई न कोई बहाना बना कर इसे बार बार टाल दिया जाता था। तभी याद आया हैडली के अमेरिकी खुफिया एजेंसी के सामने यह स्वीकार करने की घटना जिसमें उसने इशरत जहॉं को आत्माघाती हमलावर होने की बात स्वीकार की थी और यह जानकारी मिलने के बाद भी उसे निर्दोष बता कर उन अफसरों को अपराधी सिद्ध करने का प्रयत्न किया जा रहा था और इसमें कोई प्रयत्न बाकी नहीं रखा गया कि उन्हें दंडित किया जाय। इसके साथ ही राहुल का अफजल के समर्थन में और पुलिस कार्रवाई की आलोचना करने पहुँच जाना, तुम्हारे नेता येचुरी की पैंतरेबाजी, दिल्लीे में क्या नाम है जामिया के पास का वह मकान, याद आया बाटला हाउस, जिसमें दिल्लीै में आतंकवादी कार्रवाई करने के अपराधी छिपे थे और जिस इनकाउंटर में पुलिस का अफसर, शर्मा मारा गया था, उसमें शर्मा को ही अपराधी बनाने की साजिश और इसके साथ ही बेशर्मी से कांग्रेस के दौर में हुई लूट जो पूरी तरह रुक गई है, फिर भी इतने कम समय में इतनी बाधाओं के बावजूद इतने नये आयोजनों के बाद किसी को अच्छे दिन दिखाई नहीं दे रहे है और तकनीकी दलीलें दे कर प्रेस से लेकर भीडिया तक संचार के सभी साधनों द्वारा केवल छिद्रान्वेकषण और पुराने दिनों की वापसी का इन्तजार । ये सारी घटनाऍं एक पर एक उस तड़तड़ाहट की तरह जो बिजली गिरने के साथ कुछ पलो के लिए जारी रहती है इस तरह चेतना पर छा गईं की उसे सम्भालना मुश्किल हो गया. लगा मैं भीतर से फट जाऊँगा । उस समय तो मैं स्वयं इनको समझ नहीं पा रहा था कि उसमें कितनी घटनाओं की कौंध एक साथ पुंजीभूत हो गयी थी । ’कांग्रेस का हाथ आतंकवादियों से किस तर्क से मिला हुआ है समझ में नहीं आता। यह तो उनका ही गृहमन्त्रीे था जिससे उसी पार्टी के बड़े घराने का बदजबान मुखौटा कहा जाता है, आतंकवादियों के पक्ष में खड़ा हो कर जंग लड़ रहा था।
’और देखो, उसी समय एक नंगा यथार्थ सामने आया कि अपने सैंतालीस साल के इतिहास में यह इतना ओवररेटेड विश्व विद्यालय किसी भी क्षेत्र में एक भी असाधारण विद्वान पैदा नहीं कर सका। इसकी पैदावारों में वे आत्मघाती नेता जिन्होंने अपने कैरियर के लिए पार्टी का सत्यानाश कर दिया। यह मेरे सोच में पहले से था पर उस क्षण कौंध गया कि करात और येचुरी दोनों जेएनयू की ही उपज हैं। देश को नेतृत्व देने के लिए ज्योति दा के नाम पर सभी दल एकमत थे, इन्होंने ही उसमें बाधा डाली थी। इनके नेतृत्व में ही सीपीएम हाशिए पर आना शुरू हुई और इतनी बेजान हो चुकी है कि अपनी भ्रष्टता के कीर्तिमान स्थापित करने वाली कांग्रेस के साथ गठजोड़ की स्थिति में आ गई है और येचुरी ने जो अभी बयानबाजी की उसको ध्या‍न में रख कर ही कह रहा था ‘चेतना ही न रही चढि़ चित्त सो चाहत मूढ़ चिताहू चढ़्यो रे।‘ पार्टी की अंत्येष्टि का काम जेएनयू का उत्पाद ही करेगा।
‘शायद चिता शब्द और उसका दृश्य ही था जिसने चेतना को इस तरह झकझोरा कि यह सब एक झटके से सामने आ गया।
‘यह बताओ, तुम्हें पता था का इस तरह के आयोजन तीन साल से चल रहा था और कांग्रेस प्रशासन इस पर चुप्पीे साध कर इसे चलने दे रहा था और सेक्युलरिज्म के नाम पर इसी तरह की देशद्रोही गतिविधियॉं भाजपा शासित राज्यों को छोड़ कर सभी राज्यों में चलने दी जा रही हैं कि कही इससे मुस्लिम वोट बैंक खिसक न जाय। ये घटनाएँ पहले दबा दी जाती थीं. पहली बार भाजपा के शासन सँभालने के बाद से सुर्खियों में आती जा रही है।‘
‘‘मैं तो कहूँगा भाजपा स्वंयं इन सबको उछाल रही है हिन्दू वोट बैंक तैयार करने के लिए।‘
‘उठो, फूलहि फलहिं न बेत जदपि सुधा बरसहिं जलद… आगे कुछ कहने की जरूरत नहीं है।‘