Post – 2015-12-09

न यहाँ के रहे न वहाँ के रहे

“हाँ कलबुर्गी के बारे में तुम क्या कह रहे थे?”

“कलबुर्गी के बारे में कुछ कहने चलूँ तो कई तरह के सवाल बीच में खड़े होंगे, इसलिए पहले उन सवालों पर बात कर लूँ तो कलबुर्गी पर बात करना आसान हो जाएगा। परन्तु ये सवाल भी ऐसे हैं कि इनको रुक-रुक कर समझना होगा, क्योंकि ये दार्शनिक अवधारणाओं से जुड़े सवाल हैं जिनको लोग जिस रूप में समझते हैं, उससे लगता है कि वे इनको समझते ही नहीं। इनमें पहली है स्वतन्त्रता।“

“हमारी तो लड़ाई ही इसी की है।“

‘‘अखाड़िया आदमी हो, जहाँ सोचना चाहिए वहाँ भी लड़ने लगते हो। लड़ने वाले समझते नहीं । समझते होते तो जैसा भी समाजवाद आया था, जैसे भी आया था, उसे बचा तो सकते ही थे। और बचा सकते तो दुनिया का बहुत कुछ नष्ट होने से बचाया जा सकता था। सोवियत क्रान्ति करने वाले डरे हुए लोग थे। आईने से डरने वाले लोग थे, अपने ही इतिहास से डरे हुए, अपने ही समाज के आगे बढ़े हुए हिस्से से डरे हुए, आसपास की दुनिया से डरे हुए। डरे हुए आदमी के पास बाँटने को भी डर ही होता है। वह जितना बनाता है उससे अधिक का ध्वंस करता है, उन सबका जिनसे डरा हुआ है। यही उसने किया। अपने इतिहास से ले कर समाज तक के साथ, फिर भी उसमें बहुत कुछ रक्षणीय था। और अपनी अधूरी समझ के कारण दूसरे देशों के साथ भी। फिर भी उसमें बहुत कुछ रक्षणीय था जिसे स्वतन्त्रता की सही समझ से बचाया जा सकता था। डरा हुआ आदमी या समाज स्वतन्त्रता का न तो अर्थ समझ सकता है, न स्वतन्त्र हो सकता है। सच कहो तो वह स्वतन्त्रता की परिभाषा से भी डरने लगता है।’’

‘‘स्वतन्त्रता की आड़ में लूटने की छूट, हड़पने की छूट, अन्याय करने की छूट, गुलामों का व्यापार करने की छूट लेने वालों का समर्थन करने वाले क्या स्वतन्त्रता का अर्थ जानते हैं? स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाने वाले क्या यह जानते हैं कि वे किसके गुलाम हैं?’’

‘‘यार मैं तो हैरान हो जाता हूँ। साल दो साल में एक बार तुम भी ऐसी बात कर जाते हो जिसके लिए सोलह आने सच का मुहावरा बना था जिसने सौ पैसे सच को मुहावरा बनने से रोक रखा है। तुमने तो यह भ्रम भी पैदा कर दिया कि तुम्हें लिबर्टी और इंडिपेंडेंस और फ्रीडम का भी अन्तर मालूम होगा, क्योंकि अनैतिक पर रोक न होने को तुमने छूट कहा और स्वतन्त्रता को उससे अलग रखा, इसलिए अनुमान भी करना पड़ता है कि तुमको आत्मनिर्भरता का भी अर्थ मालूम होगा। आज का दिन तुम्हारा रहा। नहीं गलत कह गया, अभी तक के चन्द लमहे तुम्हारे रहे, आगे तुम पर क्या बीतेगी इसे पहले से कैसे जाना जा सकता है?’’

वह अपनी खास हँसी में हँसा जिससे पेड़ों से चिड़ियों के उड़ भागने की आवाजें सुनाई देती हैं। दम ले कर बोला, ‘‘तुमको जल्लाद होना चाहिए था। फँसरी की रस्सी को मजबूत और चिकना बनाने के लिए कैसी रस्सी, कितनी चर्बी और कैसी गाँठ लगानी है, इस पर तुम्हारी मास्टरी है।’’

दोस्ती का मामला ठहरा। वह हँसा तो साथ तो देना ही था। पर यह जताने के लिए कि मैं उसकी उपमा का बुरा नहीं मानता। मुझे उस समय भी हँसना जारी रखना पड़ा जब वह अपनी उपमा को पूर्णोपमा बनाने का प्रयास कर रहा था।

‘‘देखो, मैं केवल तुम्हें नहीं, किसी भी धर्म, किसी भी विचारधारा, किसी भी पन्थ, किसी भी दल या संगठन से जुड़े व्यक्ति को न तो स्वतन्त्र मानता हूँ, न ही यह मानता हूँ कि उसमें स्वतन्त्रता का अर्थ समझने की योग्यता है। वह ‘स्व’ में होता ही नहीं है, किसी ‘अन्य’ से बँधा या उसकी कारा या उसके द्वारा बनाए गए दायरे में होता है, वह स्वतन्त्र कैसे हो सकता है? तुम हिन्दू हो तो स्वतन्त्र नहीं हो, तुम मुसलमान हो तो स्वतन्त्र नहीं हो, ईसाई हो तो स्वतन्त्र नहीं हो, गरज कि जितने भी अन्य तन्त्र हैं, उनसे जुड़े या बँधे हो तो स्वतन्त्र नहीं हो। तुम देश भक्त हो तो स्वतन्त्र नहीं हो, और यही बात भक्ति के सभी रूपों पर, सभी वादों पर, सभी इज्मों पर लागू होती है। विश्ववाद या इंटरनेशनलिज्म पर भी।’’

‘‘तुम स्वच्छन्दता को स्वतन्त्रता का पर्याय बना रहे हो।’’

‘‘नहीं। मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था कि तुम इनका भेद जानते हो या नहीं और दुख इस बात का है कि तुम इस परख में फेल हो गए।

देखो जिन लोगों ने इन पारिभाषिक शब्दों का अनुवाद किया वे पश्चिम के बराबर आना चाहते थे। वे मानते थे कि हमारे पास तो कुछ था ही नहीं। यदि पश्चिम को अपना लें तो हम आधुनिक हो जाएँगे। इसका अर्थ है, वे सोचते थे, पश्चिम अखोट है और यदि हम उसके समान बन जाएँ तो हम आगे बढ़ जाएँगे। इसमें यह निहित था कि हम जितना भी आगे बढ़ें, पश्चिम से पीछे ही रहेंगे। हम अपने को स्वतन्त्र कहते हुए उनके गुलाम बने रहेंगे। और जानते हो, तुम पश्चिमी परिभाषाओं के भी गुलाम बने हुए हो। परन्तु यदि हम कहें हमारे यहाँ इस समस्या पर यह कहा गया था, इसलिए हमें अपनी जातीय समझ से काम लेना चाहिए, तो यह भी अपने अतीत की गुलामी है।“

‘क्या सोचना हवा में होता है। उसका अथ-इति नहीं होता?’’

‘‘कमाल है यार। आज तो तुम एक पर एक अनमोल बचन बिन मोल बोले जा रहे हो। सोचना हवा में नहीं होता। उसकी जमीन होती है। उसका आधार होता है। यह जमीन पहले के सोचे और जाने हुए से तैयार होती है। दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे अन्तिम माना जा सके। इसलिए प्रत्येक अन्त एक नए आरंभ का प्रस्थान बिन्दु भी होता है। जो अब तक सोचा जा चुका है उसकी समीक्षा से सामने आता है वह पहलू जिसे सुलझाने के क्रम में नई पहल आरंभ होती है। पुराने पर अधिक भरोसा गुरुत्वाकर्षण का काम करता है। आप नई परिस्थितियों के अनुसार सही समाधान तलाशना चाहते हो, और गुरुत्वाकर्षण तुम्हें ऊपर उठने नहीं देता।’’

‘‘इतना सोचा-विचारा गया और उसके बाद यह माना गया, क्या इसके बाद भी सोचना बाकी रह गया है? तब तो किसी समस्या का अन्त हो ही नहीं सकता। सुलझ गया फिर भी अनसुलझा रह गया। फिर तो सीढ़ी और साँप के खेल की तरह ऊपर चढ़ो और नीचे आओ और फिर ऊपर चढ़ने की कोशिश करो।श्

‘‘नहीं, फिर नीचे आने की बात नहीं कर रहा हूँ, उस शिखर से ऊपर उठने की बात कर रहा हूँ। नए शिखर की पहचान की बात कर रहा हूँ।

‘‘स्वतन्त्रता हमारे ज्ञान-मीमांसा में थी ही नहीं। पश्चिम में गुलामों का व्यापार चलता था। यह यूनानियों के समय से या हो सकता है उससे भी पहले से चला आ रहा था। इसलिए वहाँ गुलाम की औलाद भी गुलाम हो जाती थी। उससे अलग आजाद आदमी की औलाद की, फ्री बार्न की अवधारणा पैदा हुई। फिर वह समझ कि आदमी आजाद पैदा होता है और हर जगह बेड़ियों में जकड़ा हुआ है जैसा मुहावरा बना जो रूसो के नाम से चलता है और जिससे उसने सामाजिक करार का सिद्धान्त गढ़ा था। परन्तु रूसो के करार सिद्धान्त से चार पाँच हजार साल पहले से हमारी चिन्ता धारा में करार सिद्धान्त प्रतिपादित था जिसमें मनु को राजा निर्वाचित किया जाता है और अपने राजकीय कर्तव्य के निर्वाह के लिए उन्हें प्रजा द्वारा कर देने की सहमति होती है। मैं नहीं कहता कि रूसो के चिन्तन पर भारतीय दर्शन का प्रभाव पड़ा था, गो पड़ा हो सकता है यह कहना गलत नहीं। परन्तु यहाँ स्वतन्त्रता की अवधारणा नहीं है। सामी मतों में पुनर्जन्म में विश्वास नहीं था, इसलिए उसमें पुरा जन्मों के आश्रवों या अवलेपों से बँधे होने और उन्हीं के भोग के लिए उन सभी बन्धनों और विवशताओं या अवसरों की कल्पना नहीं की गई थी।’’

‘‘तुम बोर बहुत करते हो यार! किसी भी चीज को ले कर तब तक बोलते जाओगे जब तक सुनने वाला बेहोश हो गर गिर न जाय।’’

‘‘तुम ठीक कहते हो। बोर होने से बचने के लिए हमने सोचना तक बन्द कर दिया है। सीधे यहाँ या वहाँ से विचार उड़ा लेते हैं और उसे नारे की तरह उछालना आरंभ कर देते हैं। साहित्यकारों का ज्ञान तो ललित लवंग लता परिशीलन से आगे बढ़ता ही नहीं। वही कविता, कहानी और आलोचना जिसमें सोच नदारद है। हमारे आलोचक अपनी विशिष्ट कलादृष्टि तक विकसित नहीं कर सके। या तो पुरानी दरबारी रुचि या पश्चिमी सामाजिक और सांस्कृतिक तकाजों से विकसित मानों का सीधा आयात। ऐसे लोग स्वतन्त्र न तो हैं न स्वतन्त्रता को समझ सकते हैं। मैंने कहा था न, तुमको तो स्वतन्त्रता की परिभाषा से भी डर लगेगा।’’

वह हँसने लगा, ‘‘चलो अपनी भड़ास निकाल लो। मैं भाग तो सकता नहीं।’’

‘‘तो मैं कह रहा था कि ये हमें उपलब्ध विचार हैं जो दो भिन्न परिस्थितियों और भिन्न जरूरतों से विकसित हुए हैं इसलिए स्वतन्त्रता की कोई पुरानी परिभाषा मात्र काम चलाऊ हो सकती है। यह वह जमीन है जहाँ से हमारी आज की परिस्थितियों में स्वतन्त्रता की एक व्याख्या करनी होगी, जिसमें इनमें से किसी का न तो बहिष्कार होगा न तिरस्कार न समग्र स्वीकार।“

‘न यहाँ के रहे न वहाँ के रहे, कोई तुमसे ही पूछे कहाँ के रहे। थक गए होगे, उठो ।“