न समझे अपने घर को पर बदल डालेंगे दुनिया को
“यह बताओ, तुमने दाभोलकर और कलबुर्गी को पढ़ा है? साफ साफ बताना।“
“पढ़ा तो नहीं है।“
“फिर तुमने उन्हें कमजोर और बदहवास लेखक कैसे कह दिया। क्या यह तुम्हें शोभा देता है।’’ उसने मुझे गर्दन से पकड़ लिया।
“पढ़ने का जी नहीं हुआ।“
“और फतवा देने को जी मचल उठा। पढ़ने को जी क्यों न हुआ, यह भी तो सुनूँ।“
“दोनों घटनाएँ दो कालों में हुई, दोनों के बीच घालमेल करके उसी तरह एक फर्जी दृश्य बनाया गया जैसे अलग-अलग स्तरों और स्थितियों से कंकाल जुटा कर बिना उनकी छानबीन किये, सच तो यह है कि पहले की छानबीन को किनारे डालते हुए, ह्वीलर ने मोहेंजोदड़ो के हत्याकांड का किस्सा बनाया था और जिसे तुम्हारे पेशेवर इतिहासकार, जो इस मजमे में भी शामिल हैं, बड़े विश्वास से सन दो हजार तक पढ़ाते रहे और इसे गलत सिद्ध करने वालों पर संशोधनवाद का आरोप लगाते रहे।
“परन्तु दोनों घटनाएँ हुईं एक ही शासन में जिसका इतिहास सांप्रदायिक दुर्भाव पैदा करके सत्ता में बने रहने का है। दोनों के विषय में जो सूचनाएँ छन कर आईं उनसे पढ़ने की उत्सुकता ही न हुई। लगा दोनों में या तो सामान्य बुद्धि का अभाव था, या वे बड़े लेखक थे ही नहीं। इनमें दाभोलकर की तो उनके साहस और संकल्प के लिए प्रशंसा भी की जा सकती है, कलबुर्गी को उसका भी श्रेय नहीं दिया जा सकता।“
“तुम जानते हो तुम क्या कह रहे हो?”
मैंने उसकी कही की अनसुनी कर दी, ‘‘कलबुर्गी को सहमत छापने जा रहा है तो यही इसका प्रमाण है कि वह मार्क्सवादी कलेवर में पलती मुस्लिम लीगी सोच का लेखक रहा होगा।“
“हद कर दी यार तूने। कई बार तो तुम्हारे मुँह पर थप्पड़ मारने का मन करता है।“
“तुम यही कर सकते हो। पर यह काम भी तुम ठीक ठीक नहीं कर सकते वर्ना अपने मुंह पर थप्पड़ मारते। थप्पड़ मारने से अच्छा है मेरी बात पर ध्यान दो।“
“क्या ध्यान दूँ तुम जैसे लोगों से बात की जा सकती है?“
“यार यदि तुम बात ही नहीं कर सकते, तर्क ही नहीं दे सकते, तुम्हारे पास कहने को कुछ है ही नहीं, केवल फतवे दे सकते हो, तो मुकदमा तो तुम लड़ ही न पाए। खुद हार गए और हार कर भी छाती फुला रहे हो।“
“बताओ, बताओ, तुम्हीं बताओ क्या मिल गया तुम्हें इन दोनों के खिलाफ?”
“उनके खिलाफ तो कुछ मिलना ही नहीं था। वे बेचारे अपनी समझ को दूसरों के लिए अनुकरणीय मानते हुए अपने अनुसार पूरे समाज को चलाने को आतुर थे। जिन्हें अपने समाज की समझ तक नहीं वे जिद ठाने बैठे हैं कि समाज उनके अनुसार चले। समझ होती तो यह जानते कि वे क्या कर सकते हैं और क्या उनके वश का नहीं है। मैंने एक दिन कहा था न कि हमारी मुसीबत का सबसे बड़ा कारण यह है कि हम अपना काम करते नहीं, दूसरों के क्षेत्र में घुस कर उनका काम करने लगते हैं और इसके दो नुकसान होते हैं, हमारा अपना काम धरा रह जाता है और दूसरों के काम में खलल पड़ता है, उूपर से एक नई समस्या खुद पैदा कर लेते हैं। ऐसे लोगों को क्या कहेंगे?”
“तुम कहते हो साहित्यकार को सामाजिक प्रश्नों पर लिखना बन्द कर देना चाहिए और धार्मिक प्रवचन देना चाहिए।“
मैं कहता हूँ कि साहित्य और दर्शन के लिए समस्त ब्रह्मांड खुला है बल्कि कल्पना का आकाश भी। वह किसी को भी विषय बना सकता है और उसका चित्रण और विवेचन कर सकता है। परन्तु यदि वह यह ठान ले कि वह अमुक को दूर कर देगा, अमुक को बदल देगा तो रुक कर सोचना चाहिए कि बदलने का यह काम वह कर भी सकता है या नहीं। जिसे बदलना चाहता है उसकी प्रकृति और शक्ति को वह जानता भी है या नहीं। उस बदलाव की जिम्मेदारी किसकी है, यदि उसका संज्ञान वह नहीं ले रहा है तो उसके तार को समझता है या नहीं।“
“तुम्हारा मतलब है दाभोलकर को अन्धश्रद्धा और पाखंड के खिलाफ अभियान नहीं चलाना चाहिए था?”
“देखो अन्धश्रद्धा और पाखंड के खिलाफ अभियान इस देश में हजारों साल से चलते रहे हैं। सबसे ताजे दो आन्दोलन ब्रह्मसमाज और आर्य समाज के रहे हैं। एक लेखक भी यह करे गलत नहीं है। उसके लिए उसका सम्मान होना चाहिए। पर इस कारण वह लेखक के रूप में बड़ा नहीं हो जाता। लेकिन यदि वह किसी पाए का लेखक है तो उसे यह भ्रम नहीं पाल लेना चाहिए कि चलो लगे हाथ वह काम भी कर ही डालें जो इतने सशक्त आन्दोलनों से संभव नहीं हो पाया। इसके स्थान पर वह इसका अनुसंधान करते कि इसकी जड़ें अतनी गहरी क्यों हैं और इसका अस्तित्व किन शक्तियों पर कायम है जिनका उन्मूलन हुए बिना इसे कमजोर नहीं किया जा सकता। तब पता चलता कि इसका इलाज पूंजीवादी विकास और उसके द्वारा वैज्ञानिक सोच का प्रसार है, न कि कोरी लफ्फाजी।
“सामन्ती व्यवस्था में अन्धश्रद्धा, ढ़ोंग, जादू टोना, मानसिक पिछड़ापन सब बना रहेगा। पूँजीवाद सामाजिक न्याय और समानता का पोषक नहीं है फिर भी उसकी एक प्रगतिशील भूमिका है अगली मंजिलों की ओर बढ़ने में, परन्तु तुमने तो राष्ट्रीय पूँजीवाद की जड़ों पर ही कुठाराघात कर दिया, समय से पहले समाजवाद लाने के चक्कर में, सो उसकी दुर्गति तो हुई ही तुम्हारी भी दुर्गति हुई और यह बात आज तक तुम्हारे पेशेवर चिन्तकों की जहन में आई नहीं। मोदी उस दिशा में बढ़ना चाहता है तो उसी का विरोध कर रहे हो। इतनी सारी चीजों का घालमेल करके जो पाखंड तुम कर रहे हो उसके खिलाफ तो दामोलकर भी खड़े नहीं हो पाते। अधिक संभव है तुम्हारे साथ हो जाते क्योंकि तुम और वह सभी सामन्ती सोच के ही लोग हो जो एक पाखंड से दूसरे को दूर करने के सपने देखते हैं।“
“दाभोलकर की सामाजिक समझ दुरुस्त होती तो उन्हें पता होता कि अंडरवल्र्ड के कई रूप हैं जिसमें एक अन्धविश्वास और आस्था का मुखौटा लगा कर चलता है और इसके पास अपराधियों का एक दल है जो इसके कारोबार में बाधक लोगों को ठिकाने लगा सकता है। एक आशाराम नहीं बहुत सारे आशाराम बापू और बाबा और स्वामी बन कर अपना गिरोह चला रहे हैं और अरबों की संपत्ति के मालिक हैं। उनके विषय में जानकारी हो तो उसे पुलिस को सूचित करना चाहिए। खुद उन्हें दूर करने के लिए कमर कसने पर नतीजे बुरे हो सकते हैं। यह नासमझी ही सही, हमारी सहानुभूति तो ऐसे व्यक्ति से हो सकती है परन्तु इससे उसका लेखन बड़ा नहीं हो जाता। कितने गवाहों को जेल में पड़े पड़े आशाराम और उसके बेटे ने खत्म करा दिया। उन मरने वालों के प्रति हम गहरा सम्मान प्रकट कर सकते हैं कि वे झुके या बिके नहीं, पीड़ा भी अनुभव कर सकते हैं पर उनकी यह भूमिका एक ईमानदार और साहसी नागरिक की है न कि कला या साहित्य की, भले उनमें से कोई और भी लिखता रहा हो।
“तुम जानते हो दाभोलकर की मृत्यु आशाराम के गुगों ने किया था और इस सचाई को उनका नाम उछालकर अपनी रोटी सेंकने वालों ने लगातार छिपाया कि जिस दिन उन्होंने आशाराम के खिलाफ अपने पत्र में लेख लिखा था उसके कुछ ही दिनों के बाद उनको गोली मारी गई थी।। छिपाया इसलिए जाता रहा कि इससे उनके मोदी हटाओ देश बचाओ की असलियत खुल जाती। ये लोकतन्त्र विरोधी लोग हैं। जनता ने जिसे चुन कर भेजा उसे ये काम करने नहीं देंगे। अभिजातवाद के समर्थक हैं ये लोकतन्त्र के नहीं।“
“कलबुर्गी का मामला इससे भिन्न है परन्तु अधिक मूर्खतापूर्ण। उठो, उसे कल के लिए रहने दो।“