Post – 2015-12-07

कीजिये हाय हाय क्यों

आज मैंने ही बात शुरू की, ‘‘देखो, कल मैं जान बूझ कर कुछ आक्रामक हो रहा था। विज्ञापनों की दुनिया से हम जानते हैं कि जादुई यथार्थ पैदा करके झूठ को सच और सच को झूठ में कैसे बदला जा सकता है। इस मोटी सचाई को न समझ कर तुम किसी न किसी बहाने उसी मुद्दे को उछाल देते हो, जो है नहीं, फिर भी जिसके होने का भ्रम पैदा किया जा रहा है।“

“तो तुम मान रहे हो सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है।“

“ऐसा कैसे मान सकता हूँ, कभी ऐसा हुआ ही नहीं तो आज क्यों होगा। यह तो प्रलय के समय होगा, जब सारी झंझट ही खतम हो जाएगी। ‘मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों’, इसलिए ‘रोइये जार जार क्यों कीजिये हाय हाय क्यों।‘ जब तक मनुष्य है तब तक बहुत कुछ ठीक होने के बाद भी बहुत कुछ गड़बड़ रहेगा और उसे दूर करने के प्रयत्न में ही आगे का विकास होगा, परन्तु विकास के साथ नई गड़बड़ियाँ भी पैदा होंगी। आज तक इतिहास में कभी कोई दौर दिखाई नहीं देता जब असन्तोष के हजार कारण न रहे हों। कभी कभी ये ऐसा उग्र रूप ले लेते हैं कि हम उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते। अन्यथा जीवन की सहज गति को बनाए रखना समस्याओं के समाधान का सबसे कारगर उपाय है। समस्यायें अनन्त हैं। जितने लोग उतनी समस्यायें या कहो एक-एक के पीछे दस दस समस्यायें। सभी लोग अपनी समस्याओं के समाधान में ही लगे हैं और इन समस्याओं के समाधान के क्रम में अन्य सतस्याओं का भी समाधान होता चल रहा है। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम अपने लिए और दूसरों के लिए समस्याएं पैदा न करें। इसलिए मन लगाकर अपना काम करो। समय बचे तो दूसरों की भी मदद करो।“

“तुम बातों को दूसरी ओर मोड़ देते हो यार! मैं उस असहिष्णुता की बात कर रहा था जिसमें लेखकों को मार दिया जा रहा है। मैं उस अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की बात कर रहा था जिसमें वे अपने विचारों को निडर हो कर प्रस्तुत कर सकें। मैं दाभोलकर और कलबुर्गी के हत्यारों की बात कर रहा हूँ। तुमने आज का अखबार नहीं देखा। रामचन्द्र गुहा भी इससे असुरक्षित अनुभव करने लगे हैं और तुम पर कोई फर्क नहीं पड़ता।“

“कितनी बार कहा तुमसे कि अनपढ़ आदमी अपने पूरे दिमाग से काम लेता है, ज्ञानी लोगों के पास अपना दिमाग होता ही नहीं। वे इसे गिरवीं रख कर ज्ञानी की ख्याति और लाभ पाते हैं और फिर इसका इतना चस्का लग जाता है कि अपने दिमाग से काम लेना बन्द कर देते हैं। सिर्फ फायदा ही फायदा दिखाई देता है। रामचन्द्र गुहा भी ऐसे ही लोगों में आते हैं लेकिन अंग्रेजी बहुत अच्छी लिखते हैं। ये भी समाज से ही नहीं, अपने जमीन तक से कटे हुए, आत्म विकल प्राणी हैं। अपने गले में फाँसी लगाने वाले लोग । असुरक्षित अनुभव करने के लिए सीधे इंग्लैंड से भागे चले आए बेचारे। इन पर भरोसा मत किया करो नहीं तो तुम्हारी दशा भी वैसी ही हो जाएगी। सोचोगे पूरब की जाओगे पच्छिम।“

“तुम नहीं सोचते कि तुम अपनी लफ्फाजी से हत्यारों को बचा रहे हो?
“हत्यारों को तो उन्होंने बचा लिया यार, जो छाती पीट रहे हैं। दबाव में आ कर पुलिस कई बार तत्परता दिखाने के लिए बेगुनाह को पकड़ लेती है, उसे डरा धमका कर गुनाह भी कबूल करवा लेती है और फिर पता चलता है वह आदमी तो बेकसूर था। इस बीच जो बच निकलता है वह है सही अपराधी। वही यहां भी हुआ। अपराध हुआ कांग्रेस के शासन में गुनागार भाजपा को साबित करने लगे। जनता, जो इसे जानती है, उसके दरबार में साबित तो नहीं हो पाएगा, शोर जरूर मचा रहेगा। परन्तु उस शोर के अनुपात में ये बुद्धिजीवी अपने ही समाज की नजर में गिरते जाएंगे, अपनी साख खोते जाएंगे और साहित्य और विमर्श का दायरा सिकुड़ता जाएगा।
मैं उन अभागों को मरने से तो नहीं बचा सका, परन्तु बचे हुए लेखकों की साख और सम्मान और विवेक को बचाने की कोशिश अवश्य कर रहा हूँ और यह जानते हुए कर रहा हूँ कि वे इसके लिए मुझे ही बदनाम करेंगे, पर न सीख पाएँगे न अपने को बचा पाएँगे।“

“मेरी समझ में तुम्हारी बात नहीं आती।“

“आती है, पर तुम्हारी जिद की वजह से बात तुम्हारे माथे से टकरा कर दूर छिटक जाती है। मैं कहना चाहता हूँ कि अभिव्यक्ति की मर्यादा होती है, स्वतन्त्रता की भी मर्यादा होती है। स्वतन्त्रता हमारे पास नहीं होती है, इसे हमें अर्जित करना होता है। अर्जित करना हमारे विवेक और संकल्प पर निर्भर करता है, अर्जित कर पाना हमारे अतिरिक्त कुछ और बातों पर भी निर्भर करता है। तुम स्वयं भड़काने वाले वक्तव्यों की निन्दा कर रहे थे। यदि तुम्हें लगे कि तुम्हारे लेखन से कुछ लोगों की भावनाएँ आहत हो रही हैं तो लेखन का तरीका बदलो। एक चेतना की सुगबुगाहट होती है, यह सुगबुगाहट पैदा करना रचनाकार का दायित्व है। यही उसकी सामाजिक भूमिका है। पर एक वेदना की कसमसाहट भी होती है, इससे लेखक को बचना चाहिए। यदि कोई एक व्यक्ति भी किसी कृति से आहत होता है तो लेखक को उसे समझाने का प्रयत्न करना चाहिए कि उसका इरादा उसकी भावना को आहत करने का नहीं था। लेखक बहुत बड़ा हो कर भी अपने पाठक से छोटा होता है, उसी को समझाने, सही दिशा देने के लिए, कहो, उसी की सेवा में तो वह अपना लेखन अर्पित करता है। उसका स्वान्तः सुख भी अपने पाठक से स्वान्तः सुख से एकमेक होता है। कोई महान से महान लेखक या रचनाकार समाज से महान नहीं हो सकता। यह समझ लेखक को विनम्र बनाती है, यदि यह समझ नहीं है तो उद्धत लेखक उद्धत प्रतिक्रियाओं के लिए स्वयं जिम्मेदार है।“

“समाज में जागृति पैदा करने के लिए, समाज की अभ्यस्ति को तोड़ने के लिए, उसकी सोच को बदलने के लिए, जो कुछ लिखा जाएगा, उससे बहुतों को आपत्ति होगी।“

“जागृति पैदा करने वाला स्वयं तो जगा हो! सोए सोए खर्राटे भर कर दूसरों की नीद खराब करने को जागृति का आह्वान कहते हो? मेरी पूरी सहानुभूति उन लेखकों के साथ या ऐसे लोगों के साथ है जिनके अपने विचार से मतभेद होने पर कोई उनकी हत्या कर देता है। ऐेसे हत्यारों के प्रति मेरे मन में कटुता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। मैं किसी पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने को भी गलत मानता हूँ। सत्ताइस साल बाद एक कांग्रेसी ने माना कि सैटेनिक वर्सेज पर प्रतिबन्ध गलत था। रश्दी की हत्या के फतवे को तो जघन्य मानता हूँ। पर इसके साथ ही मैं रश्दी को घटिया और खुदफरोश लेखक भी मानता हूँ जो पश्चिमी पाठकों के मनोरंजन के लिए अपने समुदाय की भावनाओं को सचेत रूप में आहत कर रहे थे। रश्दी एक बहुत समर्थ लेखक हैं। उनकी रचनात्मक क्षमता का मैं आदर करता हूँ। मैं इन्दिरा जी की बहुत सी बातों की कटु आलोचना करता हूँ, परन्तु मिडनाइट चिल्ड्रेन में जिस बेहूदे ढंग से उनका चित्रण है उससे मुझे रश्दी के भीतर के लफंगेपन का भी आभास हुआ था, जिसके रहते समर्थ से समर्थ रचनाकार महान रचनाकार नहीं बन सकता। सैटेनिक वर्सेज में वह उससे अधिक कुत्सित लगे और अपनी कलात्मकता में भी कलाबाज अधिक कलाकार कम लगे। दाभोलकर और कलबुर्गी के मामले में वह कुघट घटित हो गया जिससे रश्दी बच गए, परन्तु उनकी नृशंस मृत्यु के कारण ही वे मेरी नजर में अच्छे लेखक नहीं हो जाते। मैं उन्हें खासा कमजोर और एक हद तक बदहवास लेखक पाता हूँ। पुरस्कार पर मत जाना।“

“मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ पर इस पर कल बात करेंगे।“
12/7/2015 10:31:50 AM