बात पर वाँ ज़बान कटती है
“एक लेखक के नाते तुम्हें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मोर्चे पर तो लेखकों का साथ देना चाहिए।””
“अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को केवल लेखकों तक क्यों सीमित कर रहे हो? दूसरों को इससे वंचित कर दोगे?”
“नहीं, मेरे कहने का यह मतलब नहीं था। मैं तो बोलने की आजादी की बात कर रहा हूँ।”
“किसकी आजादी पर रोक लगी है। यहा तो अनाप-सनाप बोलने, बरजने पर भी बोलते रहने की आजादी है। निरीह बालिकाओं के साथ सामूहिक बलातकार करने वालों तक का बच्चों से गलती हो जाती है कह कर पक्ष लेने वालों तक को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्राप्त है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध तो साहित्यकार, खास कर आलोचा ही लगाते रहे हैं कि यदि ऐसा लिखा तो तुम्हें रिऐक्शनरी सिद्ध कर देंगे और तुम्हारा लेखकीय भविष्य चौपट हो जाएगा। बोलने की आजादी की हिमायत करने वाले लोग चुप रहने तक की आजादी पर हमला करने को तैयार रहते हैं।“
“चुप्पी का मतलब होता है मिली भगत। सहमति। तुम अपने मुँह से नहीं उनके मुँह से बोल रहे हो. उन लोगों का मौन समर्थन कर रहे हो जो बकवास करते फिरते हैं। जिनके बयान से समाज में उत्तेजना फैलती है।“
“तुम मानते हो कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में उत्तेजना पैदा करने वाली अभिव्यक्ति नहीं आनी चाहिए। उस पर रोक लगनी चाहिए। उसकी भर्त्सना की जानी चाहिए।“
उसे लगा कि उसे ही उसके ही कथन से घेरा जा रहा है। तुरत जवाब देने को मुँह खोला और फिर बन्द कर लिया।
“जब उत्तेजना पैदा करने वाले बयानों की भर्त्सना की जाती है, उस पर भी मौन रहने को क्या यह नहीं मानोगे कि इससे भी मौन सहमति जताई जा रही है। देखो, उत्तेजना पैदा करने वालों को उत्तेजित प्रतिक्रिया का स्वागत करना चाहिए । यदि उत्तेजना न पैदा हो तो उन बेचारों का प्रयास ही विफल होगा। परन्तु भारतीय समाज की परिपक्वता तो देखो। दोनों धड़ों के सिरफिरे ऐसे बयान दे रहे हैं जिससे उत्तेजना पैदा हो और इसके बाद भी समाज पर किसी का गहरा असर नहीं पड़ता क्योंकि समाज उत्तेजना और उग्रता पसन्द नहीं करता। हमारा मिजाज क्षमा-दया, अनसूया, अहिंसा और सत्यनिष्ठा आदि के उन मूल्यों को आत्मसात करके बना है जिसमें क्षोभ क्षणिक होता है और शान्ति और सहयोग स्थायी। जल अपने तल को सँभालना जानता है पर हवा और अवरोध से कुछ तरंगें भी पैदा हो जाया करती हैं। यह समाज सृष्टि का मूल जल को मानता रहा है और इसकी प्रकृति को इसकी आत्मा ने आत्मसात् कर रखा। पानी को काटना आसान है, टुकड़े करना असंभव। इसलिए तुम्हारा लेखक हो या पंडा या मुल्ला उत्तेजना पैदा करने का अपराध ये ही करते हैं, लोगों की नजर में आने के लिए। साहित्य में भी बहुत कुछ ऐसा किया जाता है जो मानवद्रोही, उत्तेजक और अनिष्टकर होता है और इसलिए वर्ज्य होना चाहिए, इसके बाद भी हमारे समाज में कभी किसी भी अभिव्यक्ति को किसी काल में प्रतिबन्धित नहीं किया और इसकी दुहाई तो संघ भी देता रहता है। फिर दूसरों की जबान कौन काटता फिरता है?
तुम। तुम जिस दर्शन में विश्वास करते हो उसमें बोलने वाले अपनी जबान खुद कटवा कर जान बचा लेते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि ज़बान खुली तो जान से जायेंगे, और मन को समझा लेते हैं कि वे एक क्रांतिकारी काम कर रहे हैं। शोषित, पीड़ित और वंचित सर्वहारा के स्वयंभू प्रतिनिधि जो जी आए कहते रहें और लोग सुनते रहें, परन्तु यदि वे कुछ कहना चाहेंगे तो यदि सत्ता हाथ में हुई तो उन्हें यातनागृह में भेज दिया जाएगा या चीन का वह कौन सा चैाक था, तिनामेन, जो भी नाम हो, उसमें अपने ही नौनिहालों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की माँग पर कत्ल कर दिया जाएगा। बख्तर बन्द गाड़ियों से मशीन गन चला कर और रौंद कर मार दिया गया था। न हवाई फायर, न आंसू गैस, न वाटरजेट, न गोली, सीधे गोला और रौदने वाला चेन तुम्हे याद है, आपात काल के सबसे बड़े समर्थक और सहयोगी तुम लोग थे और यह तुम्हारे मिजाज को दर्शाता है। तुम आपात काल और आपातकालीन स्थितियों में खुश रहते हो और खुशी खुशी अपनी जबान कटवा लेते हो – मजे ही मजे हैं, अब बोलना भी न पड़ेगा और वजीफों की बरसात होती रहेगी। मजे के ऐसे ही दिनों से बाहर आ जाने के कारण असुरक्षित अनुभव करने लगते हो। हम ठहरे इंसान। पानी में दम घुटने लगता है और तुम खुली हवा में आते ही तड़पने लगते हो। मैं तुम्हें समझ नही पाता यार। अभिभ्यक्ति की स्वतन्त्रता छिन जाने पर तुम मान लेते हो, तुम जो चाहो कह सकते हो जब कि तुम्हारे पास कहने को कुछ रह ही नहीं जाता, कलाबाजी दिखाने की अनुमति अवश्य होती है।
सत्ता हाथ में न हो तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का इसतेमाल करने वाले को लांछित और खतरनाक बता कर उसको गर्हित बना दिया जाएगा। लोग उसकी बात न सुन पाएँ इसका प्रबन्ध किया जाएगा। इसका भुक्तभोगी मैं स्वयं हूं और तुम भी इसे जानते हो। आज तक तुम लोग यही करते आए हो।