वी. के. सिंह ज़िंदाबाद
“क्या तुमको नहीं लगता कि जब से भाजपा की जीत हुई सांप्रदायिकता अधिक बढ़ी है।“
“तुम इसे इस रूप में भी रख सकते थे कि भारतीय समाज में सांप्रदायिकता का विस्तार हुआ है इसलिए भाजपा की जीत हुई।“
“हाँ, शायद यही ठीक है।“
“यदि यह ठीक है तो सांप्रदायिकता का विस्तार किसने किया, पिछली सरकार ने, या प्रेस और दृ श्य-श्रव्य माध्यमों ने या सभी ने मिल कर, या इन सभी से भी अधिक विश्व फलक पर घटित घटनाओं और व्याख्याओं ने, या इन सबके परिप्रेक्ष्य में हिन्दू समाज के भीतर पैदा हुई आशंका ने?”
वह उलझन में पड़ गया। मैंने उसे आड़े हाथों लिया, “तुम्हारे पास अक्ल तो है नहीं, पार्टी से पूछ कर बताना। हो सकता है सांप्रदायिकता को बढ़ाने में उसका भी हाथ रहा हो, क्योंकि यह मैं एक बार बहुत साफ कह आया हूँ कि उसके पास कोई और कार्यक्रम नहीं रह गया है। उसके पास ही नहीं, इसमें संघ से ले कर मुस्लिम मुल्ला तन्त्र और गुर्गातन्त्र तक, ईसाई मिशनरी संस्थाओं और मठों तक, और दूसरी सभी पार्टियों तक के पास कोई ऐसा ठोस कार्यक्रम या दर्शन नहीं है जिसके आधार पर वे पूरे समाज को अपनी ओर आकर्षित कर सकें और अपने को बचाए रख सकें। जाति पर आधारित सभी पार्टिया वैसे भी अपने चरित्र में सांप्रदायिक होती हैं। यानी अपने संप्रदाय या जाति को छोड़ कर उनको और किसी की चिन्ता नहीं होती। दूसरे बचे रह जाते हैं इतने ही को अपना भाग्य समझते हैं।’
उससे कुछ बोलते न बन रहा था। मैंने एक रद्दा और जड़ा, ‘हो सकता है जिन राजनैतिक दलों ने सांप्रदायिकता का विस्तार किया, उन्होंने किया तो मुस्लिम वोट बैक को अपनी ओर खींचने के इरादे से, लेकिन पन्द्रह प्रतिशत वोट अगर पाँच में बँट भी गया तो इससे अधिक हिन्दू वोटों का रुझान उस दल की ओर होगा ही जिसको वे संघ से जुड़ाव के कारण सांप्रदायिक कहते हों परन्तु जिसके शासन से एक बार गुजरने के बाद सभी ने यह अनुभव किया कि इससे डरने की जरूरत नहीं । पाकिस्तान और कशमीरी मुसलमान तक शान्ति और सदभाव के लिए वाजपेयी सरकार को ही याद करते हैं। और 2004 का चुनाव भी वह हारी नहीं थी, जीतते¬-जीतते रह गई थी। और जानते हो क्यो? अपने प्रचार तन्त्र की मूर्खता के कारण। यदि वे विनम्रता से कहते, हमें आप ने जो अवसर दिया, उसका हमने आपके हित में उपयोग किया हो तो हमें एक अवसर और दीजिए, हम अधूरे सपनों को पूरा करना चाहेंगे। परन्तु जब आप कहते हैं कि इंडिया शाइन कर रहा है तो आप दो सोई इुई कुरेदों को जिसे आप क्वेरी कह सकते हैं, पैदा करते हैं और दोनो से आप की जान पर बन आती है। पहली यह कि शाइन कौन कर रहा है, हम तो जहाँ थे वहीं रह गए। दूसरे यह कि इसके बूते का जो करना था वह कर चुका। इसी को देश का और अपना सौभाग्य मान रहा है। आगे भी हमारे लिए कुछ ऐसा नहीं करेगा जिससे हमारी समस्याएँ समाप्त हों। दोनों में नकारात्मक मत मिलते हैं और आप हार जाते हैं। इसलिए राजनेताओं को समझना चाहिए कि ईमानदारी विज्ञापन पर भारी पड़ती है और अपनी कमियों के साथ जो कुछ आप कर सके उसे कच्चे चिट्ठे की तरह लोगों के सामने रखें तो कर्मनिष्ठ दल को कोई हरा नहीं सकता।
“खैर सांप्रदायिक भावना उभारने का जो काम उन्होंने किया उसका लाभ भाजपा को मिला पर इससे कुछ सीख नहीं पाए। हो सकता है वे ही परदे के पीछे से आज भी सांप्रदायिकता का विस्तार कर रहे हों और पोषित और पल्लवित प्रचार माध्यमों का उपयोग करके उसका इल्जाम भाजपा पर, इस डर से लगा रहे हों कि यदि इसे पूरा कार्यकाल काम करने को मिल गया तो हमारा पत्ता सदा के लिए साफ हो जाएगा क्योंकि, तब विकास ही भूखी जनता हमें घास न डालेगी।“
अब उसे मौका मिला, “क्या बात करते हो? यहीं दादरी में, तुम्हारे ठीक बगल में, जो हुआ वह तुम्हें दिखाई नहीं दिया। कौन लोग अपराधी को बचाने की कोशिश कर रहे थे, दिखाई नहीं दिया तुम्हें?”
“दादरी मैं नहीं गया। वहाँ काफी भीड़ पहले से ही लग गई थी और ऐसे मौकों पर जाना भी नहीं चाहिए, पर उसको लेकर जो राग दादरा शुरू हुआ, उसे जरूर सुनता रहा। वह बहुत क्षोभकर था। उस राग में भी एक स्वर पृष्ठभूमि से उभरा था जिसे दबा दिया गया। अर्थात् एक व्यक्ति की निजी रंजिश जो शायद बीएसएफ में था और छुट्टी लेकर आया था। दादरी में या कहीं भी यदि कोई नृशंस अपराध होता है तो इसकी खबर तो बन सकती है, पर इसे लेकर हुड़दंग मचा कर, जाँच से पहले ही किसी को अपराधी बता कर, नंगानाच करते हुए, पुलिस की जाँच में रुकावट पैदा नहीं की जानी चाहिए; न ही उसकी जाँच को कोई दिशा देने का दबाव तैयार किया जाना चाहिए। उसकी जरूरत तभी पड़ती है जब सरकार उस पर कार्रवाई करने में हिचके या पुलिस निष्क्रियता दिखाए। जिस सरकार को कार्रवाई करनी थी वह मुस्लिमप्रेमी मानी जाती है। यदि वह इसके बावजूद शिथिल थी तो गुस्सा उस पर उतारना था, परन्तु वह भी उसके विफल होने के बाद। मीडिया स्वयं सनसनी पैदा कर, अपने को लोकप्रिय बनाने के चक्कर में, इस समस्या को अनुपात से अधिक बढ़ा और आवष्यकता से अधिक समय तक खींच कर सांप्रदायिक असुरक्षा का वातावरण तैयार करती है और खुद ही इस चिन्ता में भी शामिल हो जाती है कि असहिश्णुता बढ़ रही है। चिनगारी को आगजनी में बदलने का प्रयत्न करने वाले आग लग सकती है, इसकी चिन्ता जताने लगते हैं।
परन्तु जघन्य कोई घटना होती है उतना ही, या उससे भी अधिक जघन्य, उसका रेकार्ड, घिसने की हद, तक चलाकर व्यापार करने को मानता हूँ, क्योंकि पहले के साथ अन्ध आवेग जुड़ा होता है जिसमें लोगों की मति भीड की मानसिकता के कारण मारी जाती है, परन्तु ये तो अपना काम पूरे होश हवास में, सोच समझ कर, केवल पैसे के लोभ में करते हैं। ये जानते हैं कि इससे असहिश्णुता का का विस्तार होगा। सनसनी फैलेगी। जो काम पहले अफवाह करते थे वही ये तथ्यों का पूरा पता चलने से पहले खुद ही, कुछ ठान कर, अपनी सनक के पक्ष में जनमानस को ढालने लगते हैं।“
“तुम जानते हो इस समय तुम्हारी जबान से कौन बोल रहा है?” उसने उत्तर देने का मौका नहीं दिया, खुद ही जवाब दिया, “वी.के. सिंह।’ वह भी तो इन्हें सुपारीबाज कहते हैं।“
“देखो सही बात कहने और अपनी बात के लिए सही मुहावरा ढूँढ़ लेने में अन्तर होता है। वी.के. सिंह कहते गलत नहीं हैं, पर सही मुहावरे नहीं तलाश पाते। मेरा एक मित्र था, कहता था, सेना या पुलिस में जाने वाले लोगों को आदमी से मशीन बनाने के लिए लम्बी ट्रेनिंग दी जाती है। उसके बाद वे आधे आदमी और आधे बटन दबते ही चालू हो जाने वाली म शीन बन जाते हैं। रिटायरमेंट के समय इन्हें फिर नागरिक जीवन में दाखिल करने के लिए एक ट्रेनिंग दी जानी चाहिए जिससे ये आम लोगों की तरह बोलना, चलना, व्यवहार करना सीख लें। वह नहीं किया जाता। नहीं किया गया। बेचारे वी.के. सिंह का क्या दोष । किसी रिटायर हुए सैनिक अधिकारी को सड़क पर देख लो, पहली नजर में ही पता चल जाएगा यह सेना में रहा है और पूरा सिविलियन नहीं बन पाया है, न बन पाएगा। हम जबान चलाते हैं, वे गोली चलाते हैं। आज जब गोली पास नहीं रह गई तो जबान भी गोली की तरह चलाते हैं, पर निशाना बिल्कुल सही होता है। गोली से अगला मरता है, उनकी बोली से तुम लगातार तिलमिलाते रहते हो।“
उसने कहा, “वी.के. सिंह जिन्दाबाद।“ और हाथ तानते हुए उठ खड़ा हुआ। पर चलते चलते बोला, “लानत है तुम्हारी समझ को।“
12/5/2015 9:22:15 PM