अन्धा-बाँटे-रेवड़ी-युग की विदाई
“हमारा देश सड़ चुका है यार! इसे ब्रह्मा भी नहीं सुधार सकते और तुमको मोदी पर इतना भरोसा है।“
“कोई भी एक व्यक्ति, या बड़ा से बड़ा संगठन भी, सभी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। परन्तु एक व्यक्ति भी, यदि उसमें प्रतिभा और संकल्प है तो, निर्णायक स्थिति में पहुँच कर ऐसी स्थिति पैदा कर सकता है जिसमें समस्याओं की पहचान बदल जाए, उनका चरित्र बदल जाए, उनका समाधान उसी के बीच से निकलने लगे। तुम समस्याएँ पैदा कर सकते हो, पहले की समस्याओं को बढ़ा सकते हो क्योंकि तुम निरा शावादी हो। तुम्हें यह देश सड़ा हुआ लगता है जिसमें एक सड़ी हुई चीज तुम भी हो। दूसरों को सड़ा सिद्ध करके अपने को साफ-पाक सिद्ध करने वाले। मोदी तुमसे ठीक उलट है। वह आशावादी है। वह मुहावरे बदल देता है, पुराने मुहावरों में से सही का चुनाव करना जानता है। वह कहता है यह मत कहो कि गिलास आधा खाली है, कहो गिलास आधा भरा हुआ है। याद है तुम्हें?”
वह बोला कुछ नहीं, मुस्कराता रहा।
“अभी कल तक लगता था हमारी जनसंख्या इतनी विस्फोटक हो गई है कि सँभालना मुश्किल है। आक्षेप लगते थे मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है और इसका संप्रदायवादी आशय निकाला जाता था। चिन्ता थी अगर अनुपात बराबर करने के लिए हिन्दू भी ऐसा ही करने लगें तो स्थिति विस्फोटक हो जाएगी, दाना तो दूर पानी तक नहीं मिल पाएगा सभी को, पीने के लिए। जन संख्या वही, मोदी ने कहा हम 125 करोड़ संख्या वाले लोग हैं। दुनिया के कई दूसरे देशों में आबादी में गिरावट आ रही है। उनके यहाँ कार्यदल की जरूरत पूरी करने को लोग नहीं मिल रहे हैं। हम इस जरूरत को पूरा कर सकते हैं। स्थिति वही है, केवल इंफैसिस बदल गई और समस्या का समाधान यह कि हमें तकनीकी कौशल बढ़ाने वाली शिक्षा की जरूरत है। स्किल्ड श्रमिक पैदा करने हैं।“
“कोरी बातें हैं भाई। तुम जैसा मूढ़ ही इसके चकमे में आएगा। इतने लोगों के लिए स्कूल, शिक्षक कहाँ से आएँगे। अभी तो प्राइमरी शिक्षा तक सही नहीं हो पा रही है।“
“पहले दृष्टि पैदा होती है, फिर दिशा मिलती है और फिर कदम बढ़ते हैं और मंजिलें मिलती हैं। मंजिल नहीं, मंजिले। उपलब्धि, दर उपलब्धि। परन्तु यह दृष्टि भी बेकार है, यदि अन्धा-बाँटे-रेवडी-युग की शक्तियाँ इतनी प्रबल हों कि वे अपने द्वारा फैलाई गई अशिक्षा और कुशिक्षा का लाभ उठा कर लोगों को बरगलाने में सफल हो जायँ कि उधर खतरा ही खतरा है। बढ़े कि खाई में गिरे। जब हमारे संस्थागत ढाँचे में ही ऐसी अड़चनें हों कि जनता जिसे अपना नेता चुने उसे काम करने ही न दिया जाय। जनता अपने प्रतिनिधि संसद में चुन कर भेजे कि वे उसकी समस्याओं पर विचार करके उनका समाधान निकालेंगे और रेवड़ी युग के उच्च सदन में बैठे प्रतिनिधि कहें जनता की ऐसी की तैसी। हम कोई काम होने ही न देंगे, करके दिखाए तो सही। जब पूर्ण बहुमत वाली एक सरकार को प्रतिपक्ष की योग्यता तक से शून्य दल यह ललकारते फिरें कि हम कोई काम होने ही न देंगे। कोई एक व्यक्ति क्या कर सकता है? और इसके बावजूद वह जितना कर पाया वह हैरानी पैदा करती है।“
“अभी कल ही अन्ना हजारे पूछ रहे थे, ‘अच्छे दिन आए?’’
मैंने कहा, ‘‘अन्ना हजारे को कितनी बार कितने लोगों ने बेवकूफ बनाया है, इसका कोई हिसाब है तुम्हारे पास?’’
वह चुप रहा।
‘‘अन्ना हजारे की समझ पर भरोसा मत करो। नीयत पर भी नहीं। महत्वाकांक्षा की बात अवश्य कर सकते हो और उसके लिए कुछ सहने झेलने और डटे रहने की ताकत को भी। परन्तु मैंने तुम्हें कितनी बार समझाया कोई कुछ कहे तो यह मत समझ लो कि वह जो कुछ कह रहा है, वही कह रहा है।
हँसना जरूरी था और वह खुल कर हँसा भी, ‘फिर क्या मान लूँ भाई।’
‘सोचो वह कब कह रहा है, क्यों कह रहा है और उसको सुनने वालों की संख्या घटी है या बढ़ी और फिर तय करो कि उसके वाक्य भरोसे लायक हैं भी या नहीं। और यह भी सोचो कि यदि उसे कुछ दिखाई नहीं दिया तो क्या तुम्हें भी कुछ दिखाई नहीं देता।’
‘‘क्या किया इस आदमी ने? क्या दिखई दे रहा है तुम्हें जो मैं नहीं देख पाता।’’
एक वाक्य में सुनना चाहो तो उसने ‘अन्धा-बाँटे-रेवड़ी’ युग का अन्त कर दिया जिसमें रेवड़ी तो छूने टटोलने से दीख जाती थी, अपने जन भी घेरे मिल जाते थे, पर देश और इसकी समस्यायें नहीं दिखाई देती थीं। इसी का दूरा नाम अच्छे दिन की नींव है। अब ‘विकास युग की थाप सुनाई पड़ने लगी है। अब पहले के लुटेरे दलों को भी, उन्हें भी जो जाति को जीवित करके सत्ता में आए हैं, विकास की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इस देश की समसे बड़ी समस्या तुम्हें क्या लगती है?’’
‘‘भ्रष्टाचार और बेकारी ।’’
‘‘ठीक कहा तुमने, इसमें एक सही शिक्षा प्रणाली को भी जोड़ लेते तो अच्छा रहा होता, जिसके अभाव में ही ये दोनों व्याधियाँ बढ़ती चली गई हैं।’’
‘‘तुम समझते हो मोदी भ्रष्टाचार खत्म कर देंगे!’’
‘‘नहीं, मैं इतना भोला नहीं हूँ। इसकी जड़ें मानव स्वभाव में हैं। उस लोभ में जिसे उन छह रिपुओं में से एक माना गया है जिनसे लड़ते हुए ही मनुष्य मनुष्य बना रह सकता है। इनसे तो मोदी को भी लड़ना पड़ता होगा। भ्रष्टाचार तो चन्द्रगुप्त के उस राज्यकाल में भी था जिस में ईमानदारी का स्तर यह था कि लोग दरवाजों पर ताले नहीं लगाते थे । चोर बेईमान वेद के समय में भी थे और आज तक बने आए हैं। अन्तर केवल एक बात में है। हमारे यहाँ इसे गर्हित माना जाता रहा है और दूसरी मूल्य व्यवस्थाओं में सफलता और समृद्धि को ही साधन की परख का आधार माना जाता रहा।“
“तुम मोदी की बात कर रहे थे, यार!”
“मेदी और नेहरू में एक अन्तर याद दिला दूँ। गाँधी ने अपने सत्य अहिंसा और सादगी के जीवन ने आदर्शों और साधन को भी साध्य की तरह पवित्र रखने के आन्दोलन से नैतिकता का एक ऐसा पर्यावरण तैयार किया था जिसमें असंख्य लोग अपने निजी जीवन में गाँधी बनने के प्रयोग कर रहे थे। नेहरू ने उसे उलट दिया। इसने उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार और कदाचार का आरंभ उनके साथ हुआ और इतने धूर्ततापूर्ण ढंग से हुआ कि लोग देख कर भी आँखें मूँदे रहे.
‘‘नेहरू के बारे में भ्रष्टाचार की बात तो कम से कम मत कर यार!”
‘‘1948 में सेना के लिए जीप खरीद का घोटाला किसके समय में हुआ था। मेनन ने यदि ब्रिटेन में राजदूत रहते पदीय मर्यादा का उल्लंघन किया था तो विदेश विभाग किसके पास था? नेहरू उनका बचाव क्यों करते रहे। उनको अपना सबसे प्रियपात्र ही नहीं मानते रहे, अपितु रक्षा मंत्री का पद भी सौंप दिया। किनकी गलत और असफल रक्षानीति और रखरखाव के कारण भारत चीन विवाद में देश को इतना अपमानित होना पड़ा? रक्षा उपकरणों का पैसा किन चीजों पर खर्च होता रहा?”
“फिर मूधड़ा कांड, जिसे दबाने के नेहरू के प्रयत्न का विरोध उन्हीं के दामाद फीरोज गांधी ने किया, जिससे उनके पहले से खराब संबन्ध और खराब हो गए परन्तु उसके बाद ही फीरोज गाँधी की पहल से बीमा कंपनियों का रा ष्ट्रीकरण हुआ था और फीरोज गाँधी ने कहा था यह संस्था पार्लमेंट की पुत्री है, और हमें हमेशा इस पर नजर रखनी होगी कि यह भ्रष्टाचार का शिकार न हो जाए। नेहरू ने यहाँ भी अपराधी के प्रति नरमी दिखाने का अपराध तो किया ही था।
और जहाँ तक चालबाजी का सवाल है अभी हाल ही में एक फेसबुक मित्र ने उस रहस्य का सप्रमाण खुलासा किया है जो उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद और पटेल दोनों के साथ किया था।
मोदी जब अपने को गांधीवादी कहता है, जब पटेल का उत्तराधिकारी मानता है तो राजनीतिक जीवन में व्यक्तिगत स्तर पर उन उच्च आदर्शों का पालन करने के अपने संकल्प के कारण। खैर, यहाँ कई बार प्रदर्शनप्रियता मोदी पर हावी हो जाती है जो पिछड़े दबे परिवेश से ऊपर उठने वालों में एक ग्रन्थि का काम करती है और ग्रन्थियाँ हमारे विवेक पर भी हावी हो जाती हैं अन्यथा वेशभूशा में प्रदर्शनप्रियता को कुछ संयत रखने पर ध्यान देते।
खैर तो मैं कह रहा था भ्रष्टाचार पूरे कांग्रेस शासन में कांग्रेस के काडर निर्माण का आधार बनता चला गया था और इसे जान बूझ का बढ़ाया जाता रहा और ऊपरी स्तर पर भी इसमें संकोच से काम नहीं लिया गया। इस देश को सड़ाने में सबसे बड़ी भूमिका इस व्याधि की रही है और मोदी ने इसके सिर पर भी कुठाराधात किया है और जड़ों को भी खत्म करने के लिए मठा डालना आरंभ किया है बिचौलियों की भूमिका खत्म करके। जनहित में दी जाने वाली अनुग्रह राशि को सीधे व्यक्ति के खाते में डालने की सूझ से। करोड़ों लाभार्थियों को खाताधारक बना कर, अद्भुत सूझ! साक्षात्कार के नाम पर धाँधलियों और रिश्वतखोरी को बन्द करने के लिए उस स्तर से साक्षात्कार की भूमिका ही ख़त्म कर दी । ये तरीके इससे पहले किसी अर्थशास्त्री को सूझे क्यों नहीं।
“और जहाँ तक कौशल के विकास का प्रश्न है, मेक इन इंडिया इसी कौशल विकास का एक हिस्सा है। कहने को तो इतना है कि सिर घूम जाएगा।”
“जैसे तुम्हारा घूम गया है। बहुत हो गया।“