Post – 2015-12-03

असर उस पर मगर नहीं होता

“बात अकेले मेरे मानने न मानने की नहीं है। कहीं कुछ है जो पोशीदा है। दिखाई नहीं देता, पर है। बीच बीच में उभरता है तो लगता है सक्रिय भी है। इसलिए मोदी की लोकप्रियता में भले खास फर्क न आया हो, मुझ जैसे लाखों लोग हैं जो संघ के इरादों पर विश्वास नहीं कर पाते। तुम्हीं बताओ, यदि तुम शान्तिप्रेमी हो तो यह शस्त्रपूजा की क्या आवश्यकता?”

“पहली बात यह कि मैं संघ को शान्तिप्रेमी नहीं मानता। मैं कहता हूँ इसका गठन और तैयारी प्रतिरक्षात्मक रही है और चेतना सांप्रदायिक। स्वतन्त्र भारत में इसकी जरूरत नहीं रह गयी थी। गान्धी ने अपनी मृत्यु से वह काम कर दिया था जो जीवित रह कर भी नहीं कर सकते। वह था हिन्दू सांप्रदायिक संगठनों का सफाया। कांग्रेस ने अपनी जरूरत से इसका हौवा खड़ा करते हुए इसे पुनर्जन्म दिया और फिर इसकी शक्ति का विस्तार किया। अंग्रेजी राज में लीग को उकसा कर दंगे कराए जाते रहे और अब कांग्रेस खुद ही दंगे उभार कर सांप्रदायिकता का डर पैदा करने लगी। यदि संघ की संलिप्तता होती तो उन जाँच आयोगों की रिपोर्ट प्रकाश में अवश्य आई होती जिनमें उसकी संलिप्तता थी। दंगे उकसाना, आयोग बिठाकर लीपा पोती करना, और फिर रिपोर्टो को दबा जाना यह कांग्रेस की नीति रही।“

“जहाँ तक शस्त्रपूजा की बात है, यह उसी प्रतिरक्षा तन्त्र का प्रतीकात्मक विधान है। यह कर्मकांड है न कि हिंसक तैयारी। परन्तु यह आज तो आरंभ हुई नहीं। यह तो हजारों साल, चार पाँच हजार साल पुरानी परंपरा लगती है। उन औजारों, हथियारों, साधनों और विधियों के प्रति सम्मान जताने के लिए उनका देवीकरण कर दिया जाता रहा है। यहाँ तक कि उपयोगी वनस्पतियों तक का देवीकरण कर दिया जाता रहा है। तुलसी हो या पीपल का पेड़। मैंने गलत कहा कि शस्त्रपूजा चार पाँच साल से प्रचलित है, यह तो तो आठ दस हजार साल से चला आ रहा है।

क्या बात करते हो तुम। इसीलिए तो हमलोग भड़कते हैं कि तुम हर एक चीज को सृष्टि के आदि से जोड़ने को बेचैन हो जाते हो।“

“तो पूजा केवल अस्त्र की नहीं होती है। विश्वकर्मा या बढ़ई के रूप में धरती आकाश का भवन या भुवन बनाने वाले की भी की जाती है और आज तो यह यन्त्रमात्र की पूजा का प्रतीक बन गया है। परिवा के इसी दिन बनिया अपने बाट और तराजू को धो-धा कर साफ करता है, नई बही तैयार करता शुभ लाभ की आशा में, कलम दावात वाले अपने कलम दावात की पूजा करते रहे हैं। दावात की पुरानी स्याही धोकर साफ करके नई दावात और नई कलम। खैर अब तो यह इतिहास की बात हो गई। स्मृतियों को जीवित रखने के पुरातन विधान हैं, इनका उपहास नहीं किया जाना चाहिए और अभियोग के लिए इनका इस्तमाल करना तो शरारतपूर्ण है।“

“भई तुमने बताया तो मैंने भी उस चित्र को देखा। उसमें मुद्रा पूजा की नहीं, युद्ध की है।“

“रहेगी। उससे मत घबराओ। जैसे बच्चे मूँछ लगाकर जवान होने का आनन्द लेते हैं कुछ वैसा ही परिहास है यह। जब तक कहीं संलिप्तता सिद्ध न हो, तब तक आरोप नहीं लगा सकते। मेरे मुहल्ले में एक चैहान थे। उनके पास बन्दूक थी। वह शस्त्रपूजा के दिन हवाई गोलियाँ दागा करते थे। यह सब प्रतीकात्मक है। जहाँ तक पूजा का सवाल है संघ वाले गुरुपूजा भी करते हैं परन्तु पढ़ाई लिखाई का यह हाल कि मुझे एक भी ऐसा नहीं मिला जिसे इतिहास, संस्कृति, संस्कृत भाषा तक का अच्छा ज्ञान हो।“

“क्या यह तुमसे छिपा रह गया है कि संघ को अमेरिका आतंकी संस्थाओं की सूची में रखे था और शायद अभी तक रखे हो।“

“अमेरिका ही तुम्हारी आँखें खोल रहा हो तो आँखें खुलने से पहले ही फूट जाएँगी। बताया था न, वह हमारा अन्नदाता बने रहने के लिए अन्न की सहायता की आड़ में विषैली घासों के बीज मिला कर भेजता रहा कि हमारी कृषि भूमि ही नष्ट हो जाय। वह जिसका दोस्त हुआ उसकी खैर नहीं। लेकिन अमेरिका आज कल हमारे मार्क्सवादी भाइयों को बहुत रास आने लगा है। क्या सर्वहारा की क्रान्ति अब वह लाने जा रहा है? मार्क्सवाद से और कम्युनिस्ट पार्टियों से उसका अनुराग बढ़ गया है? बुलावे आते हैं वहाँ से और अर्जिया भेजी जाती हैं यहाँ से। कभी सोचा है इस पर?”

“कभी ध्यान नहीं दिया।“

“अब देना। जब से सोवियत संघ का विभाजन हुआ, इनका दाना पानी मिलना बन्द हुआ, क्रान्ति के नारो का स्थान हिन्दुत्व के लिए गालियों के आविष्कार ने ले लिया। ये जितना गर्हित चित्र हिन्दुत्व का पेश करते हैं उतना ही गर्हित चित्र पेश करते हुए झारखंड और छत्तीसगढ़ में धर्मान्तरण पर जुटे ईसाई अपना प्रचार करते हैं। इस धर्मान्तरण का विरोध केवल संघ के लोग करते हैं। मैंने कहा न इनकी भूमिका आक्रामक नहीं प्रतिरक्षात्मक है। धर्मान्तरितों में से कुछ को समझा बुझा कर ये घर वापसी करा देते हैं। जैसे ईसाई प्रलोभन देते हैं और रोजगार आदि दिलाने का भी एक जाल सा बिछा रखा है उस तरह का साधन तो इनके पास नहीं है, परन्तु ये अकेले इस काम में सक्रिय हैं। समर्पित भाव से। यह कंटक ही उनको अमेरिका की नजर में आतंकवादी बना देता है। सेकुलरिस्ट बिरादरी भारत में भी ईसाई संगठनों को बहुत अपनी लगती है। धर्मान्तरण का अभियान करते हुए भी सेकुलरिस्ट तो वे भी हैं। मुझे तो डर है कि जुकरबर्ग ने जो अपनी आय का 99 प्रतिशत कल्याणकार्यों में लगाने का संकल्प लिया है उसका भी एक बड़ा हिस्सा भारत में धर्मान्तरण पर न खर्च होने लगे।“

“अमेरिका में तो खुद ही चर्च जाने वालों की संख्या घटती जा रही है। उसकी क्या दिलचस्पी हो सकती है भारत में ईसाइयत के प्रचार में?”

“नेहरू ने और उनसे भी अधिक दृढ़ता से इन्दिरा गांधी और राजीव ने भारत में अमेरिकी अड्डा तो न बनने दिया परन्तु एक चूक हुई कि धर्मप्रचार की आड़ में धर्मान्तरण कराने के अभियान को कभी रोक नहीं सके। वह आज भी जारी है। अमेरिका के आम नागरिकों को स्वयं चर्च जाने में दिलचस्पी कम हुई हो सकती है, पर जिस तरह के दारुण दृश्य संचार माध्यमों से तैयार करके वहाँ के पुरालेखागार को भरा जाता और मनोरंजन के लिए देखा-दिखाया जाता है उसमें इन कारुणिक स्थितियों से लोगों के उद्धार का काम उन्हें धर्मान्तरित करके किया जा रहा है। उसके लिए तो सहायता देने के लिए वे सदा तत्पर रहेंगे। यह दूसरी बात है कि पश्चिम के लोग अपने पालतू कुत्तों तक को बूढ़ा, बीमार या लुंज पुंज हो जाने पर मैंगर में डाल आते थे जिसमें पहले से भूखे और मरणासन्न कुत्ते उन्हें चबाने खाने के लिए युद्ध रत हो जाते थे, परन्तु भारतीय संपर्क में आने के बाद ईसाइयत के चरित्र में जो बदलाव आया और समृद्धि ने जिसे संभव बनाया वह पशुओं तक के प्रति दयाभाव। आज वहां पशुओं तक के प्रति अन्याय के निवारण के लिए संस्थाएँ काम करती हैं फिर मनुष्यों को हिन्दुत्व की पीड़ा से मुक्त करने के लिए मिशनरियों को फंड क्यों न मिलेंगे? भारतीय समाज का जितना ही गर्हित, क्रूर, आक्रामक चित्र वे पेश कर सकेंगे, सहायता राशि में उतनी ही वृद्धि होगी। अमेरिकी राजनीति इसे विविध देशों में अस्थिरता पैदा करने के खेल के लिए काम में लाती है। इस तरह उसका कूटनीतिक हित इससे जुड़ा हुआ है। भारत में हुए और कांग्रेस की खुली शह से बारबार होने वाले नरसंहारों की तुलना में गुजरात उपद्रव को रख कर देखो और अपने आप से पूछो कि कांग्रेस को आतंकवादी संगठनों की सूची में क्यों नहीं रखा गया, संघ को ही क्यों?”

“तुम भी हद करते हो। कांग्रेस एक राजनीतिक पार्टी है, संघ एक दक्षिणपन्थी गैर- राजनीतिक संगठन है। यह बताओ तुम मोहन भागवत के कल के बयान को क्या कहोगे?? मन्दिर बनाने के लिए वह जान तक देने को तैयार हैं। मोदी को संघ से अलग कैसे कर सकते हो?”

“मोहन भागवत को मोदी के बयान के ठीक बाद और बंगाल के चुनाव के पहले इस तरह के उल्टे बयान के बाद भी तुम्हें यह पता नहीं चला कि मोदी संघ की उस मध्यकालीन मानसिकता के विरुद्ध भी अभियान चला रहा है। तुमने मोहन भागवत का बयान ही सुना होठों की मुस्कराहट नहीं देखी जिसमें उनकी मूछ के बाल भी फड़फड़ा रहे थे। भाजपा का काम सांप्रदायिकता के बिना चल सकता है, परन्तु संघ का, अपने को सेकुलर कहने वाली पार्टियों का जिनके पास सांप्रदायिकता का भूत खड़ा करके उससे लड़ने के अलावा कोई कार्ययोजना ही नहीं है, सांप्रदायिकता के बिना काम नहीं चल चकता। मोहन भागवत ने भाजपा के विरुद्ध उसी दिन मोर्चा सँभालना शुरू कर दिया जिस दिन एक महान और आधुनिक राष्ट्र की कल्पना से प्रेरित उसने भाजपा को उस नाभिनाल से अलग करने के लिए अपने, यानी भाजपा के सदस्य बनाने का अभियान आरंभ किया। इसीलिए कहता हूँ कि इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए । जो लोग इस देश को सांप्रदायिकता की आग से बचा कर आगे ले जाना चाहते हैं उन्हें, बिना इस झिझक के कि उनकी राजनीति क्या रही है, मोदी का साथ देना चाहिए और उनकी आर्थिक नीतियों और उनके क्रियान्वयन आदि को ही केन्द्र में रख कर उनकी आलोचना करनी चाहिए।“

“तुम तो ऐसा कहोगे ही।“ उसने कहा और खड़ा हो गया।