Post – 2015-12-01

किस्से हैं किस्सों का क्या

देखो यश और सत्ता तो सभी चाहते हैं। जो नहीं चाहते हैं वे सन्यासी हो सकते हैं, राजनेता नहीं।

सन्यासी तो मौका मिलने पर सत्ता और यश के लिए पागलों जैसा व्यवहार करने लगते हैं। दृश्य माध्यमों ने इसे तो उजागर कर ही दिया है। यदि इन दोनों के प्रति उदासीन कहीं मिल सकते हैं तो कलाकारों, चिंतकों और गृहस्थों में ही और नहीं तो भावावेश में आकर मूर्खता में ही सही, किसी महान कार्य के लिए अपने प्राण तक देने के लिए तैयार लोगों में। मैंने कहा था न एक बार कि ऐसे निस्पृह युवक उन हिंसक संगठनों की ओर भी आकर्षित हो सकते हैं जहाँ उनके खयाल से एक महान लक्ष्य हासिल करना हो, इसलिए इनसे घृणा करने की नहीं, इनको समझने और शिक्षित करने की जरूरत है।

“तुम्हें दिमाग से काम लेने का मौका ही न मिला, जिन्दगी भर क्लर्की करते रहे, इसलिए जब भी मुझ जैसा श्रोता फँस जाय यह दिखाने पर जुट जाते हो कि तुम्हारी खोपड़ी भी खाली नहीं है, गो बजती खाली की तरह ही है।

“सीधी सी बात मानने के लिए भी कि यश और सत्ता महान लोगों की भी दुर्बलता है, नेहरू में भी थी तो कुछ गलत नहीं था, तुमने इतने कुलाबे बाँधे।“

“बाँधना इसलिए पड़ा कि नेहरू में यह दुर्बलता व्याधि के स्तर तक थी। योग्यता ताबड़ तोड़ जुटाई जा रही थी। इतिहास पढ़ो, दुनिया को समझो। किसान आन्दोलन की भी खबर रखो, पर जो जी कर जाना जा सकता है वह पढ़ कर नही जाना जा सकता। गांधी ने भारत को जिया था, उनकी नजर बहुत पैनी थी।“

“व्यक्तिगत आकांक्षा या अवलेप से मुक्त व्यक्ति की नजर बहुत पैनी होती है।“

“ठीक कहा तुमने, परन्तु यह सब इस तरह किया जा रहा था जैसे गाइडेड लाइन पर किया जा रहा हो। पृष्ठभूमि से प्राम्प्ट करने वाला कोई और हो। फिर त्यागभाव का प्रदर्शनीय आयोजन जिसमें सरकार की भी दबी सहमति का आभास हो इतनी सावधानी से किया गया कि गाँधी भी मात खा गए सादगी और पुरकारी में फर्क करने में। स्वतन्त्रता आन्दोलन में दूसरे अनगिनत नेता आए थे, अकेले मोतीलाल थे जिन्होंने अपने पूरे परिवार को झोंक दिया था। अपने निवास को ही गतिविधियों का केन्द्र बना दिया था। अपने जीवन में भी नाटकीय परिवर्तन लाए थे और जाते जाते अपने पुत्र को कांग्रेस का अध्यक्ष बना गए थे और इससे ऐसा आभामंडल तैयार हुआ कि इसकी राजनीति समझ में आए तब तक तब नेहरू-गाँधी, गाँधी नेहरू की जुगलबन्दी कम से कम उत्तर भारत में तो शुरू हो ही गई थी। इस तरह किसी अन्य नेता का नाम गाँधी के साथ नहीं जुड़ा। एक मित्र ने कहा कि गाँधी ने अपना वीटो पावर इस्तेमाल करके नेहरू को प्रधानमन्त्री बना दिया। अरे भाई, जनता तो उन्हें पहले ही अनन्य विकल्प बना चुकी थी, जनता में यह इस रूप में प्रचारित हो चुका था कि गाँधी के बाद नेहरू ही आते हैं। नेहरू इसी प्रतिस्पर्धी भाव से अपने विचार भी गाँधी के सामने रखते थे कि आपकी नहीं चलेगी, मैं इस रास्ते चलूँगा और गाँधी उन्हें समझाने-बुझाने पर लगे रहते थे कि हमारी सामाजिक आर्थिक स्थिति भिन्न है। तुम क्या समझते हो सुभाष को उस स्थिति में लाने का काम गाँधी ने किया था कि वह कांग्रेस से हट कर अलग चले जायँ? इसके पीछे जितनी गांधी से सुभाष की असहमति रही होगी उससे अधिक नेहरू की सुभाष से असहमति थी।“

“सुभाष की बात छोड़ो। वह निरे तानाशाही मिजाज के थे। आजाद हिंद फौज के चलते उन्हें जो असाधारण लोकप्रियता मिली वह अभिभूत करने वाली है, परन्तु यदि आजाद हिन्द फौज ने एक काल्पनिक स्तर ही सही, अंग्रेजों को भगा दिया होता तो भी एक नई तानाशाही ही आती, जिसे सुभाष खुद बोसिज्म कहते थे। उनकी सत्ता की कामनाएँ स्पष्ट थीं, लोगों को संगठित करने की उनकी क्षमता अद्भुत थी, वह मुरदों में भी जान फूँक सकते थे, परन्तु राजनीतिक व्यवस्था के बारे में उनके विचार बहुत उलझे हुए थे। वह फासिज्म और नाजिज्म में फर्क नहीं करते थे या बहुत मामूली फर्क करते थे ऐसा सुना जाता है। लेकिन भारतीय जनमानस की उनकी पकड़ गहरी था जब कि नेहरू की समझ, जैसा कहा, किताबी और कुछ दूर तक बचकानी, जिद्दी बच्चे जैसी, हुआ करती थी।

वह चैक गया, क्या कहते हो तुम। समझा नहीं।

उनकी कांग्रेस से जुड़ने वि शेषतः तीसरे दशक के बाद की सारी गतिविधियाँ, पढ़ाई लिखाई प्रधान मंत्री बनने की तैयारी में ठीक उसी तरह की गई थी जिस तरह आई सी एस के लिए उम्मीदवार तैयारियाँ करते करते थे, पद बहुत ऊँचा था इसलिए तैयारी अधिक लंबी और घुमावदार थी। इसे मैं दोष नहीं गुण ही कहूँगा, न तो उनकी प्रतिभा को लेकर सवाल करूँगा।

मैं जिस रुग्णता की बात कर रहा था वह यह कि दुनिया के दूसरे नेताओं ने अपने दूसरे साथियों को रास्ते से हटाते हुए अपने लिए रास्ता भले बनाया हो, इसे अपनी वंशागत संपत्ति नहीं बनाया। इसके लिए अपने वंशज को राजकुमार या राजकुमारी की तरह तैयार नहीं करते रहे। विरल मामलों में उनके पुत्र भी उच्चतम पदों पर पहुँचे होंगे, पर उनके द्वारा इसके लिए तैयार किए जाने के कारण नहीं। यह लोकतन्त्र की भावना के विपरीत है, दो बार से अधिक उच्चतम पद पर रहना भी इसके विपरीत ही है परन्तु यह प्रतिबन्ध हमारे संविधान में क्यों नहीं रखा गया, पता नहीं।“

“ऐसा क्यों हो पाया बता सकते हो?”

“यहीं आकर अपने पूरे परिवार, धन-धाम सभी को लगा कर स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़ने की कलाकारी समझ में आती है। इसी से यह भ्रम पैदा किया जा सकता था कि स्वतंत्रता के लिए सबसे अधिक कुर्बानी नेहरू परिवार ने दी है इसलिए स्वतन्त्र भारत पर राज उसके वंश का चलेगा। राजाओं महाराजाओं के मुकदमे लड़ने वा ले कूटनीतिक दृष्टि से अधिक मजे खिलाड़ी ने अंग्रेजो को हटा कर भारत को स्वतन्त्र करना नहीं चाहा था, उनके राज्य के स्थान पर अपने वंश का राज्य स्थापित करना चाहा था। इसमें सफल भी हुआ और इसी के कारण भारत औपनिवेशिक ग्रास से पूरी तरह मुक्त भी नहीं हो पाया। यह भाव नेहरू वंश की चेतना में है परन्तु कभी उस तरह खुल कर सामने नहीं आया था जितना राहुल के वक्तव्यों से।

भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार के समानान्तर या उसी के रूपान्तर वंशवाद के जन्मदाता नेहरू रहे हैं और भारत का सर्वनाश करके सत्ता अपने हाथ में ही रखने की जिद के जनक भी वही कहे जाएँगे। नेहरू ने कहा था वह अपनी तानाशाही प्रवृत्ति का पूर्वाभास पा चुके थे इसलिए वह तानाशाह नहीं हो सकते। तानाशाही की उनको जरूरत भी नहीं थी, केवल कंटक शोधन की जरूरत थी। उस पर पूरा ध्यान दिया गया।
किस्से तो कई तरह के सुने सुनाए जाते रहे हैं।
गलती तो एक ही थी, सत्ता पाने की जल्दबाजी में नई गुलामी स्वीकार करने को तैयार हो जाना और कांग्रेस के बैंक खाते में जमा समस्त राशि उन्हें सौंप देना जिनसे वह ताजपोशी का मोल भाव कर रहे थे। वे जो जानते थे अब भारत को सँभालना उनके वश का नहीं, वे यह भी जानते थे कि हमारे हट जाने के बाद हमारे मूल्यों और इरादों की पूर्ति इसी के द्वारा होगी। लोग कहते हैं, पटेल और नेहरू की प्रतिस्पर्धा में गांधी ने नेहरू को अपना उत्तराधिकारी बनाया। यह गलत है, गाँधी को किनारे कर के ब्रितानी साम्राज्य का उतराधिकारी उन्होंने चुना जो सत्ता सौंप कर जा रहे थे और चुना भी इसलिए कि नेहरू मनसा अंग्रेज और तनसा भारतीय थे। वह मनसा ईसाइयत को वरीयता देते थे, और तनसा हिन्दुत्व को। इसमें कोई बदनीयती नहीं थी। यही उनकी सोच थी। और उनकी कतिपय बड़ी गललियाँ इसी से पैदा हुईं। पहली स्वतंत्र होने के बाद भी केवल आधी स्वतन्त्रता स्वीकार करना।

“इन शर्तों को कुछ तो नेहरू की मानसिकता को समझ कर और कुछ अपनी कूटनीतिक चाल से विधुर और गोरी चमड़ी के आगे ख़म खाने वाले नेहरू को माउंटबैटेन ने अपनी पत्नी को खुली छूट दे कर, राजतिलक के लिए आतुर नेहरू के माध्यम से भारत को नए बन्धनों में बाँध लिया। वैसे भी वह अपने चांचल्य के कारण नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखम्, बहु स्यात् बहुधा स्यात वाली प्रकृति की महिला थी। जिस बाल दिवस को हम नेहरू के सन्दर्भ में याद करते हैं, जिस गुलाब के फूल को उनकी शेरवानी पर जरूर देखते हैं और सोचते हैं इस फूल के लिए सबसे सही जगह यही है, और नेहरू के साथ जिस ‘चाचा’ को जुड़ा पाते हैं वह एल्विना की पुत्री के ‘अंकल’ का हिंदी तर्जुमा है। वायसराय बना कर एक माउंटबेटन को रोकना, और सबसे नाजुक फैसलों को माउंट बेटन की सलाह लेना भी इसी का परिणाम था।
“परन्तु सोचो तो भारत स्वाधीन हो गया और इस पर वायसराय का राज्य चल रहा है, रानी का क्षत्र चवर चालू है। यह माउंटबैटन की विजय थी। उसकी कूटनीति की। जिन्ना ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। चर्चिल ने ठीक ही कहा था वह मांस पर चोंच मारते गिद्ध को भी विरत करने की कूटनीतिक क्षमता रखता था। पन्द्रह अगस्त को ईस्टर्न कमांड के सामने जापानी सेना ने सरेंडकर किया था और वही तिथि उसने भारत की स्वाधीनता की रखवाई थी।

कितना करुण था वह दृश्य, असंख्य चीत्कारों के बीच भाग्य सुन्दरी से मिलन का वह उल्लास. जिन्ना एक दिन पहले ही ने कम से कम पाक के स्वाधीनता दिवस पर कीड़ों खाया पाकिस्तान कह कर खिन्नता तो प्रकट की थी. यहां संगीत ही संगीत था.
पर अगर तुम नेहरू की सबसे बड़ी गलती जानना चाहते हो तो वह था यह आश्वाशन देना कि जो हिन्दू जहां हैं वही रह जांय, बाद में आबादी के शांतिपूर्ण अदला बदली की उपेक्षा, जब की जिन्ना ने बहुत पहले कहा था कि यह तो हमें करना ही होगा और पाकिस्तान बहुत बाद तक भारत से मुस्लिम आबादी को भावी असुरक्षा का अंदेशा जताते हुए पाकिस्तान में आने की सलाह देता और इसके लिए परचे बांटता रहा था.
तुमने नुक्कड़ नाटक देखे होंगे पर ताजपोशी की इतनी विराट सुख-दुखांतकी जिसमे फार्स और मेलोड्रामा भी था आँखों से गुज़र जाने तो दिया होगा पर इसे देखने का साहस न जुटा पाये होगे.