Post – 2015-11-30

गए वक्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो

“प्यारे भाई, तूने कल तो नेहरू को रसातल में पहुँचा दिया, मगर यह तो बताओ, हिन्दुस्तान में एक आला दिमाग तू ही पैदा हुआ है जिसे इतना कुछ दीख गया, पर वह न दीखा, जिसके कारण लोग नेहरू की पूजा करते थे। वे सभी लोग, जिनमे विद्वान, कवि, कलाविद, यहाँ तक कि विरोधी दलों के लोग भी थे, नेहरू का आशीर्वाद पाने को लालायित रहते थे। जानते हो, तुम्हारे वाजपेयी को नेहरू का एक आशीर्वचन मिल गया तो वह संघ और जनसंघ और भाजपा में रहते हुए भी उससे ऊपर उठा अनुभव करते थे। तुमने इतने महान युग पुरुष को कूड़ेदान में डाल दिया और खाक से एक पुतले को उठाकर सातवें आसमान पर चढ़ा दिया।”

“खाक के पुतले तो हम सभी हैं, भाई। अगर तुम मानते हो नेहरू खाक के पुतले नहीं थे तो इससे कठोर टिप्पणी क्या हो सकती है। सातवें आसमान की बात तो करो ही नहीं, उसका भूगोल तो इतना गड़बड़ है कि वह भूतल और रसातल अर्थात् अंडरवल्र्ड तक में फर्क नहीं कर पाता। तुम जिनके साथ हो वे समझते थे और उसका उपयोग भी करते थे। आज भी करते हैं। उनकी राजनीति ही अंडर हैंड और अंडरवर्ल्ड के भरोसे चलती है।

“तुम पहले यह बताओ कि नेहरू क्या उतने गए बीते थे जितना तुमने दिखा दिया?”

“नहीं भाई, कुछ खास तरह की योग्यताएँ कुछ खास तरह की अयोग्यताएँ पैदा करती हैं। नेहरू कवि मनस्क थे। साहित्यिक मिजाज था। कुछ शायरों से प्रधानमन्त्री होने के बाद भी उनका संबन्ध दोस्ताना था। जोश के साथ तो सुनते हैं तू-मैं वाली आत्मीयता थी। इस निकटता के बाद भी असुरक्षा की भावना जोश की चेतना में घुली हुई थी और नेहरू के लाख मनाने के बाद भी वह पाकिस्तान चले गए। सुनते हैं वहाँ उस सर्वहारा के पक्ष में शायरी करने वाले को सरकार ने सौ रिक्से दिलवा दिए। ‘शायरे इन्क़लाब! अब उसी शोषण पर पलो’, और वह अपनी बेहुरमती पर रोते भी रहे पलते भी रहे और हो सकता है भारत में गुज़ारे दिनों को याद भी करते रहे हों। लोग कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होंगे।“

“खैर भारतीय मुसलमान के मन से असुरक्षा की भावना को दूर किया ही नहीं जा सकता। वह उसने अपनी ही चूक से पैदा की और कोई दोष न भी दे तो उसकी चेतना से मुक्त होना संभव नहीं। हम जिन दुखद समृतियों से मुक्त होना चाहते हैं उन्हें भी भुला तो नहीं पाते और यदि भुला बैठे तो वे अवचेतन में ग्रन्थि बन कर और भी उपद्रवकारी रूप ले लेती हैं। तुम्हें याद होगा, क्रिकेट मैचों पर उन दिनों पाकिस्तान के जीतने पर मुस्लिम दर्शक अधिक तालियाँ बजाते थे। ‘हँस के लिया है पाकिस्तान लड़ कर लेंगे हिन्दुस्तान’ के नारे भी तभी अधिक लगते थे। खून की नदियां बहा देंगे की धमकियां भी तभी अधिक आती थीं और इनके अनुपात में ही असुरक्षा भी बढ़ती जाती थी. कहो, नेहरू के दौर में मुसलमान भारत में अधिक असुरक्षित अनुभव करता था। ताजी ताजी यादें थीं।
फिर जब पता चला कि पाकिस्तान जाने वालों की हालत तो और बुरी है, कि पाकिस्तान को अपना देश मान कर वहाँ जाने वाले आज तक मुहाजिर या शरणार्थी की बने रह गए हैं, कि जिस उर्दू को अपनी जबान मान कर पाकिस्तान बनाया, उसकी सरकारी जबान कहने को उर्दू हुआ करे, काम काम अंग्रेजी में ही होता है, कि उर्दू मुहाजिरों की ज़बान है, पंजाबी अपनी, सिंधी अपनी, बलूची अपनी, और सिराइकी अपनी जबान को अधिक प्यार करता है, फैज़ भी आखिरी दिनों में उर्दू छोड़ पंजाबी में लिख कर पुराना पाप धोने लगे थे, उर्दू के ज़ेर जब्र और ऐन गै़न का निर्वाह न कर पाने के कारण मुहाजिर दूसरों को जिस हिकारत से देखते हैं उससे बिदक कर वे उर्दू से चिढ़ते हैं, कि सिन्धी मुसलमान जीये सिन्ध देश के नारे लगाता है, जिन्दाबाद नहीं, जीये, और वतन या मुल्क नहीं देश, और फिर जब पता चला कि अल्पमत में होते हुए भी वे वोट बैंक बन कर सभी को नचा सकते हैं और मनचाही रियायतें पा सकते हैं या पाने के ख्वाब देख सकते हैं, तब धीरे धीरे असुरक्षा की भावना कुछ कम हुई और आत्मविश्वास बढ़ा। लेकिन हाल के उद्गारों से लगा गया नहीं है और जिनकी राजनीति उनकी असुरक्षा पर ही पनपती रही है वे सभी दल असुरक्षा आई असुरक्षा आई का नारा लगाने लगे है.”

“मैं तुमसे नेहरू पर बात करने को कह रहा हूँ और तुम कहाँ बहक गए?”

“मैं नेहरू पर ही बात कर रहा हूँ। नेहरू ने इस असुरक्षा भाव को और बढ़ाया था और यह भ्रम पैदा करने में सफल हुए थे कि मुसलमान उन्हीं के कारण सुरक्षित हैं इसलिए मुस्लिम वोट बैंक, दलित वोट बैंक तैया र करने में तो सफलता पाई ही थी, उनके नाम के साथ पंडित को बोल्ड अक्षरों और बोल्ड आवाज में लगाते हुए एक ब्राह्मण लाबी या ब्राह्मण वोट बैंक तैयार हुआ था। हिन्दुओं में शिक्षा की दृष्टि से ब्राह्मण सदा से आगे रहे हैं और पद और अवसर का अनुपात से अधिक लाभ उन्हें ही मिला है। इन सबसे लिए नेहरू हारिल की लकड़ी बन गए थे।

“अपनी प्रतिभा, अभिरुचि, कलाप्रेम, साहित्यकारों और प्रबुद्ध भारतीयों से अच्छे संबंध, पत्रकारों के बीच अपनी लोक प्रियता आदि के कारण वह प्रचार के सभी स्रोतों के लिए शिखर-पुरुष थे, और फिर एक नया भारत बनाने का उनका अपना सपना भी था जो ससाधनिक कम और प्रसाधनिक, कहो कास्मेटिक, अधिक था। कुछ उम्दा इमारतें, नई संस्थाएँ, पर वे भारत की जमीनी आवश्यकताओं को देखते कम नहीं थी। फिर उनका उनके जीवन काल में कोई विकल्प तो बन नही पाया, जिसकी प्रशासनिक क्षमता से उनकी तुलना की जा सके। पटेल अधिक समय तक जीवित न रहे, और दूसरे व्यक्ति जो हम जैसे बहुतों की नजर में नेहरू से अधिक योग्य प्रधान मंत्री सिद्ध हो सकते थे, रफी अहमद किदवई, उनको भी अवसर तो उन परिस्थितियों में मिल ही नहीं सकता था, फिर उनका निधन भी हो गया। जहाँ प्रचार के सभी साधन उपलब्ध हों और बैंक के इतने खाते मतदाताओं के बीच हों, वहाँ उनकी पूजा तो होनी ही थी।

“परन्तु कलाप्रेमी अच्छे प्रशासक नहीं सिद्ध हुए हैं। निकट की मिसाल बहादुरशाह जफर और वाजिद अली शाह और दारा शुकोह हैं और कुछ दूर के भोजराज और भर्तृहरि। भर्तृहरि को तो वैराग्य ही लेना पड़ गया था। कल्पना विलास यथार्थ को भी काल्पनिक बना देता है और वे जमीनी समस्याओं के हवाई समाधान तलाशने लगते हैं।“

“तुमको यह क्यों नहीं दिखाई देता कि स्टील उत्पादन के बड़े कारखानेे, विद्युत आपूर्ति के बैेराज और डैम और आधुनिकीकरण की पहल नेहरू ने की।”

“इस पर बहस हो सकती है कि बड़े उद्योंगो की जगह छोटे उद्योगों और छोटे संयन्त्रों के विकास से मानव संसाधनों का भरपूर उपयोग करने के बाद अतिरिक्त ऊर्जा और साधनों की जरूरत के अनुसार आगे बढ़ना अच्छा रहा होता, या राष्ट्रीय पूँजीवाद को विकास का भरपूर अवसर दे कर, समाजवादी सपने को कुछ समय तक स्थगित रखना । इसकी योग्यता नहीं, परन्तु उनके किये का लाभ सन्तोषजनक न रहा। दूसरे, हमसे पिछड़े और अल्पविकसित अधिरचना वाले देशों की तुलना में बात कर रहा हूँ। परन्तु एक जमीनी सचाई पर आओ।”

वह प्रश्नाकुल आँखों से मेरी ओर देखने लगा.

“नेहरू के समय में आरंभ से ले कर अन्न की समस्या रही जो आरंभ के वर्षों में बहुत विकट थी। वास्तविक से अधिक कृत्रिम और उससे निपटने के लिए कोटा-परमिट-सप्लाई विभागों की बदइन्तजामी से जिसे आपूर्ति विभाग सौंपे जाने के बाद किदवई ने जादू की छड़ी से खत्म कर दिया था। परन्तु नेहरू कृषि उत्पाद की दिशा में कोई जमीनी कदम उठाने में विफल रहे। अमेरिका शान्ति-सहयोग योजना के पी. एल. 480 के तहत घटिया गेहूँ की आपूर्ति कर रहा था। इस गेहूँ में गाजर घास (बवदहतमेे हतंेे) के बीज भी मिले होते थे जिसके दाने बिखर जाने पर यह दूसरी वनस्पतियों, यहाँ तक कि घास पर भी इतनी भारी पड़ती है कि खेती को बर्वाद कर दे। अमेरिकी तन्त्र अपना बाजार तैयार करने के लिए हमारी कृषि को ही नष्ट करने पर तुला था। अमेरिकी विशेषज्ञ सलाह देते थे कि भारत खाद्यान्न के मामले में कभी आत्मनिर्भर नहीं हो सकता इसलिए उसे अमेरिका से अच्छे संबन्ध बना कर रखना चाहिए। शास्त्री ने सत्ता सँभाली तो पाकिस्तानी आक्रमण का भी सामना करना पड़ा। सैन्य तैयारी भी लंगड़ी लूली ही थी, परन्तु पाकिस्तान के लिए भारी थी। अमेरिकी टैंक भी ढेर हो गए। इसके साथ ही उन्होंने जै जवान जै किसान का नारा दिया अर्थात् सैन्य और कृषि क्षेत्र पर समुचित ध्यान दिया और देखते देखते भारत कई गुना जनसंख्या के होते हुए भी अन्न के मामले में सरप्लस हो गया।

परन्तु जिस चीज की नेहरू से लेकर बाद तक कमी रही वह थी राष्ट्र निष्ठा. आत्मनिष्ठा की प्रबलती और राष्ट्र निष्ठा का अभाव। सब कुछ अपनी मुट्ठी में करने की झक में बहुत कुछ बर्वाद कर देने और देश को विपन्न बनाए रखने की नैतिक गिरावट। इस सरप्लस उत्पादन के लिए किसानों को समुचित मूल्य दिए बिना इतना अधिक खरीद लेना कि उसका भंडारण तक न किया जा सके, उसे सड़ा कर औने पौने भाव पर शराब कंपनियों को बेच दिया जाय और फिर कृत्रिम अभाव पैदा करके उससे दूने मूल्य पर खाद्यान्न का आयात करते हुए कमीशन खाया जाय।”

“तुम झूठा आरोप लगा रहे हो।“

”हो सकता है हिन्दू में प्रकाशित एक समाचार कथा की इन पंक्तियों से तुम्हें बात समझ में आ जायः
Hindu, Jul 20, 2007
Wheat import
“The Government was importing wheat at $ 317 – $330 a tonne in July 2007, while Indian farmers were only paid Rs.8,500 a tonne, which is less than $200 a tonne. And it is not the case that Indian farmers are not growing enough wheat to feed the people of India. This is a decision that will aggravate the food insecurity of the poor in India and undermine the country’s food sovereignty, is being presented as a step that will protect our food security.”
“The high cost of wheat import makes no political sense, because it threatens our food sovereignty. It makes no economic sense because there is no domestic scarcity and the imported wheat is more costlier than domestic wheat. And it makes no sense in terms of health and nutrition because the imported wheat is of inferior quality. Instead of importing high-cost, low-quality wheat the Government should be procuring wheat domestically to secure farmers’ livelihood, national food security and the food rights of the poor to safe and affordable food,” she said.
राष्ट्र निष्ठा की जो कमी विरल अपवाद को छोड़ कर पूरे कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी प्रशासनों के दौरान बनी रही, जो ही ‘सब- कुछ-मेरे-लिए, ‘मर गया देश, जिन्दा रहे हम’ वाली मानसिकता की जननी बनी, और जिसके कारण ही राष्ट्र का नाम आते ही तुम्हें कँपकँपी आ जाती है, उसे दूर करने वाला नेतृत्व तुम्हें पहली बार मिल रहा है और इसमें ही अडंगे लगा कर तुम पहली वाली दशा में लौटने को आतुर हो।