हर एक को ये गुमाँ है इधर को देखते हैं
“तुमने पूरे कम्युनिस्ट आन्दोलन का अवमूल्यन करके मुस्लिम लीग की बराबरी पर पहुँचा दिया? क्या यह उचित है?”
“नहीं। यह गलत है। यदि ऐसा लगता है तो मेरे कहने में कोई कमी रह गई।“
“अब ठीक है।“
“जब तुम किसी एक पक्ष पर बात कर रहे हो तो हर मौके पर उनके समग्र को रखते चलो तो कुछ समझ मे आएगा ही नहीं। इसलिए वैज्ञानिक प्रयोगों में समग्र में से एक एक तत्व को अलग करके, आइसोलेट करके, उन्हें समझना पड़ता है और फिर मूल्य निर्णय के समय सभी पक्षों पर विचार करते हुए निर्णय करना पड़ता है।
‘‘फिर भी हम पूरे विवेचन में अपने ही विचारों के दबाव में एक दिशा में बह जाते हैं और कुछ पहलू छूट जाते हैं, यह हमेशा, हर बार होता है। ऐसा मुझसे भी होता रहता है। धीरज से, बहुत सँभल कर, एक-एक शब्द तोल कर, सन्तुलित कथन करने वाले विरल होते हैं। इसे वे लम्बी साधना से प्राप्त करते हैं, और उनके कथन का जादू जैसा असर होता है। वह योग्यता अर्जित तो करना चाहता हूँ, कर नहीं पाया हूँ।
रही हमारे देश की कम्युनिस्ट पार्टी की बात, या क्रान्ति की बात। इसका विचार पूँजीवादी शोषण और दोहन के उस पैशाचिक चेहरे से घबरा कर उन बौद्धिक प्रतिक्रियाओं से हुआ था जिनमें विक्षाभ अधिक था दिशा स्पष्ट नहीं थी। दीपस्तंभ थीं विफल रूसी क्रान्तियाँ जिनके नारे सामन्ती तन्त्र पर वज्राघात थे परन्तु जिनका सबसे अधिक उपयोग पूँजीवादी औद्योगिक क्रान्ति ने किया। इसलिए विक्षोभ के कुछ रूपों में स्वतन्त्रता और समानता तक के अपहरण की बात थी जो फासिज्म बन कर उभरा। एनार्की का अनुवाद हम अराजकता कर देते हैं, जो गलत है। यह राजसत्ता से मुक्ति और अपना प्रबन्ध स्थानीय इकाइयों द्वारा करने और राज्य को कुछ अन्तर्देशीय गतिविधियों तक सीमित रखने की बात थी जो साम्यवाद में भी आया। सबसे खतरनाक रूप था विनाशवाद या निहिलिज्म, जो आत्मकेन्द्रिता का वह रूप है जिसमें ‘आप मरे जब परलै होय’ का मुहावरा निकला है, या जिससे जोश की वह जोशीली परन्तु सर्वनाशवादी पंक्तियाँ निकली थीं, ‘जिस खेत से दहकाँ को मयस्सर न हो रोटी, उस खेत के हर खोशए गन्दुम को जला दो।’
“विक्षुब्ध स्थितियों की प्रतिक्रियाएँ ऐसी ही होती हैं।“
भारतीय स्वतन्त्रता अभियान के तेज होने के साथ इसी तरह का विक्षोभ उस जमात में भी था जिन्हें डर था कि उनका वर्चस्व लोकतान्त्रिक व्यवस्था में छिन जाएगा, या शायद उनके साथ बदले की भावना से काम किया जाएगा और उनकी तौहीन होगी। इनका एक कोण जमीदारों और तालुकेदारों से जुड़ा था, जिनमें दोनों जमातों के लोग थे और जिनकी प्रेरणा से मुसलिम लीग और हिन्दू महासभा का जन्म हुआ था और जिनकी चिन्ताएँ इन दोनों संगठनों के व्यवहार में प्रकट थीं। इन सभी में ‘करें तो क्या करें और जाएँ तो जाएँ कहाँ’ वाली बेचैनी और दिशाहीनता थी। लीगी और हिन्दूमहासभाई चेतना के लोग कांग्रेस के भीतर भी थे, बाहर भी थे। इन सभी में अभिजनवादिता का तत्व प्रधान था। लोकतन्त्र में विश्वास कम था। सुयोग्य का शासन जाहिलों के शासन से अच्छा है का भाव था। इकबाल की वह पंक्ति ‘जमहूरियत एक तर्जे हुकूमत है कि जिसमें बन्दों को गिना करते हैं तोला नहीं करते।’ इसी दिशाहीनता की एक अभिव्यक्ति पाकिस्तान की माँग थी जिसकी नींव 1906 में ही पड़ गई थी और जिसके नामकरण का श्रेय रहमत अली को दिया जाता है। ये चिन्तित होने वाले लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से आगे जा कर अपने समुदाय के हित से कातर लोग थे और इसलिए मेरी नजर में आदरणीय भी।“
“कम से कम अपने निजी स्वार्थ के लिए पूरे देश को बेच खाने वालों से तो अच्छे ही थे।“
“कम्युनिस्ट पार्टी स्थापना भी इसी दिशाहीनता के बीच से हुई थी जिसे प्रेरणा रूसी क्रान्ति की सफलता से मिली थी न कि मार्क्सवाद के अध्ययन और विवेचन तथा अपने देश और समाज में उसकी उपादेयता की समझ से। जन्म तिथियाँ भी दो बताई जाती हैं। एक के अनुसार 25 दिसम्बर 1925 को कानपुर में आयोजित प्रथम सम्मेलन में हुई थी जब कि दूसरी समझ के अनुसार उससे पाँच साल पहले ताशकन्द में दूसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के कुछ ही बाद 17 अक्तूबर 1920 में। इस के स्थापक सदस्यों में एम.एन.राय, उनकी पत्नी एल्विन ट्रेंट राय, अबनी मुखर्जी और उनकी पत्नी रोजा फितिंगोफ, मुहम्मद अली (अहमद हसन), मोहम्मद सफीक़ सिद्दीक, रफीक अहमद, सुल्तान अहमद खान थे । कहते हैं ऐसे कई भारतीय कम्युनिस्ट ग्रुप विदेश में अन्यत्र भी गठित किए गए थे। इसमें दो बातें स्पष्ट हैं। एक तो इसके संस्थापक जमीन से उठे हुए लोग थे और भारतीय सचाई से उनका परिचय नहीं था। दूसरे ये रूसी क्रान्ति की सफलता से प्रेरित थे जिनके पास मार्क्सवाद क्रान्ति की कामना के बाद पहुँचा। मोटे तौर पर यही बात कानपुर अधिवेशन के विषय में भी कही जा सकती थी परन्तु इसका एक स्थानीय या देशज आधार भी था। रूस की क्रान्ति रूसी परिस्थितियों की उपज थी जिसमें जारशाही का विरोध था। भारतीय भूमि में ब्रितानी सत्ता का विरोध कांग्रेस कर रही थी। कम्युनिस्ट पार्टी का गठन उस सत्ता से टकराने की चिन्ता से न हुआ अपितु लोकतांत्रिक व्यवस्था की जगह रूस जैसा कुछ करने से हुआ था।
‘‘मोटी बात यह कि तुम मानते हो कम्युनिस्ट पार्टी कुछ उत्साही लोगों की बौद्धिक सन्तान थी, न कि भारतीय यथार्थ की उपज?’’
‘‘इससे भी आगे, मैं यह मानता हूँ कि यह ऐसे उत्साही लोगों की सन्तान थी जिनको भारतीय यथार्थ का ज्ञान भी नहीं था और उूपर से नीचे उतरना चाहते थे। मिसाल के लिए राय जो 1925 के अधिवेशन में भी प्रेरक बने थे अनुशीलन, युगान्तर आदि समूहों से संपर्क कायम करते हुए बंगाल में अपनी शाखा स्थापित करना चाहते थे जो मुजफ्फर अहमद के नेतृत्व में स्थापित हुई। इसी तरह पार्टी भारतीय राष्ट्रीय और मुक्ति चेतना पर आकाशबेलि की तरह फैल रही थी और अपनी जड़ें जमाने की जगह उस महाबृक्ष का रस चूसते हुए उसे कमजोर कर रही थी। इसलिए लम्बे समय तक इसमें दो तत्व हावी रहे एक विदेशी परामर्श, विदेशों पर निर्भरता और दूसरे किसी न किसी तरह व्यापक जनाधार की तलाश, जो विदेशी भाषा, सामन्ती जीवनशशैली और बौद्धिक स्नाबरी के रहते संभव ही न थी। इसी बीच किसी ‘दूरदर्शी’ ने यह सुझा दिया कि यदि द्विराष्ट्र सिद्धान्त को मान लिया जाय तो पूरा मुस्लिम जनमत हमारे साथ आ जाएगा और एक झटके मे एक व्यापक जनाधार मिल जाएगा। इसे लपक लिया गया और इसके परिणाम स्वरूप मुस्लिम लीग की सोच का प्रवेश कम्युनिस्ट पार्टी में हुआ, परन्तु इसका लाभ कम्युनिस्टों को नहीं, लीग को मिला।“
“यदि कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन न मिला होता तो जनमतसंग्रह के ठीक पहले का मुसलिम मतों का विभाजन के पक्ष में वह ध्रुवीकरण न होता और वह योजना ही फेल हो जाती।“
“चलो बहुत बाद में दबे सहमे सुर में माना गया कि हमसे चूक हो गई, परन्तु इसका अहसास होने के बाद भी क्या पार्टी का चरित्र बदला?
“ऊपर से नीचे उतरने के क्रम में आकाशबेलि वाली शैली में ही अपने क्रान्तिकारी आश्वासनों और विराट सपनों से प्रबुद्धवर्ग को -पत्रकारों, लेखकों, अभिनेताओं आदि को – जिनकी प्रचारशक्ति के बारे में किसी टिप्पणी की आवश्य कता नहीं, आकर्षित करने के आयोजन हुए जिनमें इप्टा आदि के नाम से हम इतने अभिभूत हो जाते हैं कि पता चले अमुक इप्टा से जुड़ा रहा या उसकी उपज है तो रक्तसंचार बढ़ जाता है। इसमें उस उग्रता को भी नरम बनाना पड़ा और नेहरू में भी क्रान्तिकारी पक्षधरता दिखाई देने लगी। इसमें सबसे अग्रणी भूमिका पी. सी. जोशी की थी। आल इंडिया प्रोग्रेसिव राइटर्स असोशिएशन की स्थापना भी 1935 में लंन्दन में हुई थी और इसमें भी जमीन की समझ से अधिक भावुकता का ही पुट था। सामाजिक स्तर पर प्रगति के नाम पर केवल हिन्दू समाज की विकृतियों को दूर करने के लिए इसके मूल्यों और सांस्कृतिक प्रतीकों का उपहास और भर्त्सना का सहारा लिया जाता रहा। हम प्रगति और परंपरा, रूढ़ि और परंपरा के भेद आदि पर चलने वाली बहसों को देखें तो यह देख कर हैरानी होती है कि ये सारी बहसें हिन्दू समाज तक सीमित थी। इसे हिन्दू देश बनाने का जितना काम दक्षिण पन्थियों ने न किया होगा उतना अपने को प्रगतिशील कहने वालों ने किया। दो तरह की नागरिकता, एक पर कानून लागू और दूसरे पर नहीं, यह करना भी दक्षिण पन्थियों के वश का नहीं था। इसकी परिणति सबसे बुरी हिन्दी प्रदेश में हुई जिसमें उर्दू और हिन्दी के बीच चुनाव उतना निर्णायक नहीं था जितना अरबी लिपि और नागरी लिपि के बीच का चुनाव। मुझे लगता है, मेरा अघ्ययन भी कम है और समझ भी सुथरी नहीं है, इस हिन्दी प्रतिरोध ने कम्युनिस्ट आन्दोलन को हिन्दी क्षेत्र में प्रवेश करने से रोका, इसकी भाषा को अंग्रेजी रहने दिया और इसी चिढ़ का परिणाम यह कि जिसे रामविलास जी हिन्दी प्रदेश कहते हैं, उसकी वैधता को स्वीकार न करने वाले इसे काउ बेल्ट कहने के बाद स्वीकार कर लेते हैं।“
मेरा अध्ययन अतीत इतिहास को ले कर चलता रहा है इसलिए इन सबकी एक मोटी ही जानकारी मुझे है अपना मत सामने रखते हुए भी डर लगता है कि कहीं मुझसे अपनी नासमझी के कारण कोई चूक न हो गई हो ।