Post – 2015-11-22

यह दिल मांगे मोर

‘एक बात बताओ, जब तुम खुद मानते हो कि तुम्हारी किसी विशय अच्छी जानकारी नहीं है तो क्या तुम्हें पागल कुत्ते ने काट खाया है कि उस पर बोले बिना रह नहीं सकते? कम्युनिस्ट पार्टी और आन्दोलन के बारे में जब आधिकारिक ज्ञान नहीं है तो चुप रहना चाहिए था। तुम्हीं ने मुझे पढ़ाया था न, तावदेव शोभते मूर्खः यावद् किंचिन्नभाशयेत्। चुप रहते तो भरम तो बना रहा होता।’’ दोस्त है तो वैचारिक मतभेद के बाद भी सही सलाह तो देगा ही।
मैंने बिना हत्प्रभ हुए कहा, ‘‘पागल कुत्ते आसानी से पहचान में आ जाते हैं, लेकिन पागल आदमियों को समझने में समय लगता है। उनके काटों का पता लगाने में और भी लम्बा समय लगता है। इस लम्बे और मुश्किल काम को आसान बनाने के लिए यह बताते हुए बोलना ही पड़ता है।’’
‘‘फिर वही जलेबी बनाने की कला!’’
मैं तुम्हें एक सचाई बताना चाहता हूँ, जो सचाई से हट कर कहानी बनी और फिर भुला दी गई। एक किसान था। बड़ी किस्मत से उसे कोकाकोला का बोतल पीने को मिला। बोतल मुँह से लगा कर पीने की आदत न थी, इसलिए गिलास में तो ढालना ही था। ढालने का भी तरीका मालूम न था इसलिए उसके न चाहते भी कुछ छलक कर नीचे गिर ही जाना था। तुम होते तो कहते गिर गया तो गिर गया, उस पर पछताना क्या। पर वह बेचारा किसान इतनी अनमोल चीज बर्वाद हो गई। न चाहकर भी उधर देखने को विवश था। क्या देखता है कि चारों तरफ से चींटियाँ उसकी गन्ध से या जैसे भी उसके पास धिर आई हैं।“
“मीठी चीज हो, उसे चींटियाँ और मक्खियाँ न घेर लें तो उसे अपनी मिठास पर शर्म आएगी। यह तो होना ही था।“
“पर फिर देखा तो पाया वे चींटियाँ जो उसे चूसने पर लगी थीं मरी पड़ी है। हैसियत ऐसी नहीं, न ही यह व्यावहारिक था कि कोकाकोला, पेप्सीकोला या किसी अन्य कोला से कृमिनाशक का काम ले, फिर भी उसने सोचा कि इसमें पानी मिला कर देखें यह कृमियों का सफाया करता है या नहीं। वह घोल बढ़ाता गया और उस निर्णायक बिन्दु पर पहुँचा जहाँ से आगे उसका प्रभाव कम हो जाता था। उसने पाया यह तो कीटनाशकों से कई गुना सस्ता और कई गुना प्रभावकारी है, इसलिए कीटनाशक के रूप में उसका ही प्रयोग करता रहा। जब यह रहस्य सामने आया कि पेय द्रवों में कीटनाशक मनुष्य के लिए हानिकारक स्तर तक मिलाए जाते हैं तो किसी तरह वह सूचना और प्रसार के केन्द्र में आ गया और उसके बाद वह लुप्त ही हो गया। हम उसका नाम तक नहीं जानते। यह भी न स्वीकार करेंगे कि वह उस पाये का तो नहीं पर उस मिजाज का वैज्ञानिक था जिसके लिए हम जेम्स वैट और अल्वा एडिसन को याद करते हैं। वे उस अर्थव्यवस्था की उपज थे जिसको उन आविष्कारों और युक्तियों के लाभ की संभावनाएँ दीखती थीं और हमारा किसान उस अर्थव्यवस्था के विरोध में अपने प्रयोग और उसके परिणामों के साथ खड़ा था, और हम उसका नाम तक नहीं जानते। कितना शर्मनाक है।’’
‘शर्मनाक’ का प्रयोग मैंने जान बूझ कर उसको चोट पहुँचाने के लिए किया था, फिर उसने अपने को सँभालते हुए कुछ कहना चाहा। मैंने मौका ही न दिया। पूछा, इतने ज्ञानी हो, सीपीएमएल का मतलब जानते हो।
जानता हूँ पर मानता नहीं, इसका पूरा पाठ है कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट।
मानता तो मैं भी नहीं परन्तु अपने प्राण निछावर करके भी समाज को बदलने का संकल्प लेने वाले मेधावी और अनमोल रतन तो उसे ही चुनते हैं? उनके उद्घोष से प्रभावित युवकों को इस शब्द का न तो अर्थ पता होता है न ही उस परिणाम का बोध जिसके तहत वे अपने अधिकार क्षेत्र को आगे बढ़ने ही नहीं देते। न शिक्षा, न स्वास्थ्य व्यवस्था, न आर्थिक विकास। इतना क्रूर नियन्त्रण और अपनी प्रजा का उत्पीड़न तो क्रूर शासकों ने भी नहीं किया होगा। फिर भी सपने के प्रति जीवन उत्सर्ग करने वालों की कतार जारी है।“
“यह बताओ, तुमने उनसे कभी पूछा कि सीपीएमएल को बदल कर उन्होंने सीपीएमएम क्यों नहीं किया। आखिर चाइनार प्रेजिडेंट आमादेर प्रेजीडेंट का नारा और पोस्टर तो वे ही लगा रहे थे?” ‘‘भई, लेनिन के सामने माओज्देदुंग तो उन्नीस ही पड़ेंगे न।“
‘‘मेरी जो समझ है उसमें माओ के सामने लेनिन छोटे पड़ते हैं। माओ वैज्ञानिक सोच रखते थे। जानते हो वैज्ञानिक युग कर आरंभ हुआ था या वैज्ञानिक विकास के लिए एक संस्था किस नारे के साथ स्थापित हुई थी। इसका नारा था प्रयोग। जो तुम सिद्धान्त से जानते हो, उसे परख कर देखो कि वह सही भी है या नहीं। सिद्धान्त और प्रयोग या व्यवहार के बीच से सत्य के अन्वेषण की प्रक्रिया यहाँ से आरंभ हुई। भौतिक विज्ञानों ने तो इसे अपना लिया, सामाजिक विज्ञानों ने इसे समझा ही नहीं। इसे समझने वाला एक मात्र दार्शनिक माओ थे जिसने कहा पैक्सिस अर्थात् सिद्धान्त और प्रयोग और परिणाम पर ध्यान दो। इसी के चलते उन्होंने सांस्कृतिक क्रान्ति की। इसे कई तरह से बदनाम करने की कोशिश की गई। परन्तु मैं यह जानना चाहता हूँ कि चाइनार प्रेजिडेंट आमादेर प्रेजीडेंट के नारे के साथ रंगभूमि में पधारने वालों ने कभी माओ को उचित सम्मान दिया? क्या उन्होंने अपने दल का नाम मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट इसलिए नहीं रखा कि ब्रिटेन में एक इसी नाम की पार्टी का जन्म हो चुका था, भले वे चाइनाज प्रेजीडेंट आमादेर प्रेजीडेंट को अपने लिए व्यर्थ मानते रहे हों।“
वह मेरी ओर अचरज से देखने लगा, ‘‘तुम यह सब कहाँ से इकट्ठा करते हो।’’
‘‘सूचना के विस्तार के साथ किताबी बातें किताबी लोगों के नियन्त्रण से बाहर चली गई हैं। जो दुर्लभ है वह दृष्टि। जरूरत है कागज की लेखी के साथ आंखिन देखी की। इससे धन्धेबाजों की दूकानें फीकी पड़ जाती है। वे तिलमिलाने लगते है। सच पर परदा सूचनाओं के ताने बाने से बुना होता है इसलिए कम सूचना रखने वाला भी अपनी नजर से काम लेने के कारण उन पर भारी पड़ता है और वे नारेबाजी करने लगते हैं। प्रेस उनके हाथ में है, प्रचारतन्त्र में वे घुसे हुए हैं इसलिए उनकी अनर्गल बातें भी सही लगती हैं। परन्तु यह बताओ, मार्क्स के बाद सबसे वैज्ञानिक सोच रखने वाले, सिद्धान्त को प्रयोग पर परखने वाले वैज्ञानिक चिन्तक का नाम उनकी श्रद्धा के बाद भी उनके धड़े के नाम में क्यों नहीं आया? लेनिन, माफ करना, मेरी किताबी जानकारी मामूली है, फिर भी दुस्साहस के कारण कहना चाहता हूँ कि माओ के सामने लेनिन नगण्य है और इस तथ्य को समझने में असमर्थ दल ने यह लौट कर देखने का कभी प्रयत्न न किया कि वह जो कर रहा है उसका परिणाम क्या हो रहा है।
‘‘तुमको एक अन्य क्रूर सचाई दिखा दें। तुम जानते हो, ये जो हमारी अर्थव्यवस्था, अर्थात् बाजार को काबू में रखते हैं, उनका अपना ज्ञान कितना है?’’
‘‘धेले का।’’
‘‘यही तुमसे सुनना चाहता था। फिर भी उनके नीचे असाधारण योग्यता वाले विद्वान काम करते हैं और वे उनकी परख से गुजरने को बाध्य होते हैं। वे उनकी योग्यता को जानते हैं, परन्तु उसकी कसौटी उसके परिणाम को मानते हैं। आप इतने ज्ञानी हो, पहले से अधिक, पर आप ने जो कुछ किया उससे पैदा क्या हुआ और उससे हमे लाभ क्या हुआ।,
“यही सवाल अपने विद्वानों से पूछने की हिम्मत जुटानी पड़ेगी कि अपने असाधारण पुस्तकीय ज्ञान के बावजूद तुमने जो व्यवस्था बनाई उसने हमें क्या दिया है, समाज को क्या दिया है और तुम्हें क्या देकर उसने हमें जो मिल सकता था, उससे हमें वंचित कर दिया है।“
“यार तुम रौ में आते हो तो समझ में नहीं आता कि कह क्या रहे हो।“
“ठीक है, समझाने के लिए मुझे फिर उसी पेय पर आना पड़ेगा जिसकी चर्चा एक बार आई और फिर सदा के लिए दब गई। क्यो? शोर मचाने वाले खरीद लिए गए। उसके बाद वह पेय एक नए ड्रग के साथ बाजार में आया और यह दिल माँगे मोर के विज्ञापन के साथ। अर्थात् उसमें कोई ऐसा तत्व मिला दिया गया है कि प्यास बुझाने के लिए आप उसे पीते हैं और उस रसायन के कारण प्यास और बढ़ जाती है। उसकी लत सी पड़ने लगती है फिर भी आपके जानकार लोग चुप हैं और इसके बाद यदि कोई किसान या भुक्तभोगी आवाज उठाए भी तो वह दब जाएगी। यह दिल माँगे मोर की तर्ज पर। हमें बिकाऊ विषेशज्ञों की जगह अपनी आँख से काम लेने वालों के साथ खड़ा होना है जिनके पास सही जुमले नहीं हैं कि वे अपने सच को बयान कर सकें और उनके विरुद्ध खड़ा करना है जो अपने बिकाऊ जुमले बाजी के सैलाब से उस अनुभूत सत्य को छिपा लेते हैं। मुझे गूँगों की आवाज बनने के लिए बताना पड़ता है कि मैं किसी विषय को जितना जानता हूँ उससे अधिक का दावा नहीं करता, परन्तु वे जितना जानते हैं उससे अधिक का ढिढोरा पीटते हैं और अपने जाने हुए का भी वह हिस्सा छिपा लेते हैं जो उनके स्वार्थ से अनमेल पड़ता है इसलिए समझ के स्तर पर काफी नीचे और हमारे लिए बेकार सिद्ध होते हैं. आज की नब्बे प्रतिशत समस्याओं की जड़ वे ही हैं, इसलिए अपनी सीमित जानकारी के बावजूद हस्तक्षेप करना पड़ता है. मेरी स्थिति उस किसान की सी है, जिसे ओझल कर दिया जाना है जिससे यह दिल मांगे मोर का बाजार बना रहे.”
“सत्य मेरे साथ है ढिढोरा उनके साथ. तुम भी उनके हे साथ हो भाई. मुझे अकेला पड़ना ही है.”
11/22/2015 8:15:07 AM