“तुम कहाँ की बात को कहाँ पहुँचा देते हो. मैं तो एक सीधा सवाल करना चाहता था कि वेद में…” वह रुक गया.
“तुम जानते हो कि कुछ प्रश्न सीधे नही किये जा सकते. संवेदनशील मामलों में जो लोग धड़ल्ले से बात कर लेते हैं वे यन्त्रमानव होते हैं और उनको कोई दूसरा चला रहा होता है.”
“चला तो उन्हें भी कोई और होता है जो कुछ ज़्यादा ही संवेदनशील होते हैं और बात-बात में भड़क उठते हैं.”
“तुम ठीक कहते हो आवेग की प्रबलता और आवेग का अभाव दोनों स्थितियों में मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता. आवेग की प्रबलता हो तो वह पशु हो जाता है, विवेकशून्य – जुगुप्सु या डरावना या दयनीय प्राणी. यदि बुद्धि की इतनी प्रबलता हो जाय कि उसमें भावनाओं के लिए स्थान ही न रह जाय तो वह यन्त्रमानव बन जाता है.”
वह मुस्कराने लगा, “यन्त्रमानवों के बिना तो हमारा काम चल ही नहीं सकता.”
“चल तो पशुओं के बिना भी नहीं सकता. मैं मनुष्य की मनुष्यता की रक्षा की बात कर रहा हूँ. उसकी निजता की रक्षा की बात कर रहा हूँ.”
“तुम बातों को उलझा देते हो यार. साफ साफ क्यों नहीं बोलते?”
“देखो सभी जीवधारी सामाजिक या समूहबद्ध. यह उनके अस्तित्व रक्षा से जुड़ा प्रश्न है. इसी तकाजे से मनुष्य ने संस्थाएँ बनाई. सबके हित के लिए. परन्तु कुछ संस्थाएँ ऎसी होती हैं जिनके उद्देश्य उसके हित और आकांक्षाओं से भिन्न होते हैं. वे अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए लोगों को कई बहनों से अपने से जोड़ कर रखती हैं – अपने औज़ार के रूप में उनका इस्तेमाल करने के लिए. इनमें से कुछ संस्थाएं और व्यवस्थाये उन्हें पशु बनने को प्रोत्साहित करती हैं तो कुछ दूसरी यंत्रमानव बनाने का प्रयत्न करती हैं. मनुष्य बनाने में इनमें से किसी की दिलचस्पी नहीं. यह जिम्मेदारी मनुष्य को खुद उठानी पड़ती है- आत्मना उद्धरेत् आत्मानम् नात्मानम् अवसीदयेत्. और इसके लिए उसे पहले ऎसी संस्थाओं, व्यवस्थाओं और दलों से अलग होना पडेगा जो उसका एकांगी विकास करके अपना उपकरण बनाती हैं, परन्तु मनुष्य नही रहने देतीं.”
“तुम भटक रहे हो,” उसने कुछ खीझ कर कहा.
मैं अपनी ही रौ में बोलता रहा, “हमारे बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी समस्या है कि वे इन्ही संस्थाओं और दलों से चिपके रहे है या इनसे जुड़े किसी व्यक्ति द्वारा अनुग्रहीत रहे हैं. उन्ही के अनुसार अपने को स्वयं ढालते रहे हैं. उनके विषाद ज्ञान और अध्ययन के बाद भी उनके पशु या रोबोट बनाने की विडम्बना का कारण यही है. और यही कारण है कि एक बहुत कम पढ़े-लिखे और यहां तक कि अनपढ व्यक्ति के मुकाबले ये अधिक मूर्खता की बातें करते हैं क्योंकि वह मनुष्य है और इन्होने अपनी मनुस्यता खो दी है.
इसके चलते, जनता और बुद्धिजीवी के बीच की दूरी बढती जाती है और इसी अनुपात में साहित्यकार और बुद्धिजीवी की शक्ति घटती जाती है और वह सत्ता के केन्द्रों और संगठनों पर अधिक निर्भर होता जाता है. अब गर्व करने को उसके पास उससे मिले सत्कार और पुरस्कार और नेताओं और नौकर्शाहों से निकटता ही रह जाती है जब कि उसकी हैसियत अपने विचार और जनता में अपनी पहुँच के बल पर ऎसी होनी चाहिए कि राजनेता और नौकरशाह उससे या उसकी पुस्तकों से परिचित होने पर गर्व करेंi उन्हें गर्व करने के लिए विदेशी लेखकों और विचारको के पास दौड़ना पड़ता है. और हमारा लेखक विदेशी लेखकों जैसा बनने की कोशिश में न घर का रहता है न घाट का.
“देखो, मुझे डर है कि तुम आज फिर बहक जाओगे. मैं पूछता हूँ कि वेद में …”
“देखो, मैं चालीस साल से वेद पर काम कर रहा हूँ और यह जानता हूँ कि मैं अभी तक उसकी ऊपरी पापड़ी तक ही पहुँच सका हूँ और साथ ही यह भी जानता हूँ कि मुझसे पहले मेरी जानकारी में कोई दूसरा वहाँ तक भी नहीं पहुँचा था. ऋग्वेद विश्व सभ्यता के प्रथम शिखर की साहित्यिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक ऊर्जा की अभिव्यक्ति के नितांत क्षुद्र अंश का संग्रह है, फिर भी इसकी इतनी तरह की व्याख्याएँ हो सकती हैं कि इसमें से हीरे से लेकर कंकड़ तक कुछ भी निकाला जा सकता है. यही नहीं उसी को एक हीरा बता सकता है दूसरा कंकड़.”
“यार ऋग्वेद का नाम आते ही तुम इतने भावुक हो जाते हो कि जो कुछ नही जानता उसे भी लगता है इसका महिमामंडन किया जा रहा है.”
“जो कुछ नहीं जानता वही ऎसी बात कर सकता है और जो कुछ जानना नहीं चाहता वही उसको प्रमाण मान सकता है. अंधे अँधा ठेलियाँ दोऊ कूप पडंत. हमारे बुद्धिजीवी समाज में …अरे रुको. बुद्धिजीवी का मतलब जानते हो या नहीं?”
वह हंसने लगा, जानता हूँ . तुम्ही ने एक दिन बताया था, “बुद्धि बेचकर खा जाने वाले.”
“हाँ इन अक़्ल के धनी लोगों के पास अक़्ल होती तो है पर उसे इतनी तेज़ी से बेचते हैं कि उनके पास बचती ही नहीं. किसी से उधार लेने में शर्म भी आती है. ऐसे ही लोगों से तुम्हारा पाला पड़ा है. भई, यदि किसी विषय को नहीं जानते हो तो उसपर चुप तो रहो. सुनने की आदत तो डालो. ये वेद को क्या समझेंगे, मैंने जो लिखा है उसे तक नहीं समझ पाते फिर भी मुँह खोलने से बाज़ नहीं आते. विद्वान को जानना चाहिए कि कब और कहाँ चुप रहना चाहिए. यह बोलने से अधिक ज़रूरी है.”
“गई भैंस पानी में .” वह खीझ कर बोला. “तुम सीधे विषय पर क्यों नहीं आते?”
“विषय पर ही बात कर रहा हूँ. पहले वेद के विषय में जो उच्चाटन मंत्र लगातार दुहराया जाता रहा है उसे तो उतार दूँ कि तुम सुनने और समझने की स्थिति में आओ. पहले यह तो बता दू कि तथ्य कथन भी इतना अविश्वसनीय हो सकता है कि वह अतिरंजना लगे. कोई कहे कि प्रशांत महासागर में कुछ ऐसी गहराइयाँ हैं कि कैलाश पर्वत को भी उसमें डालो तो डूब जाये, इसे जो प्रशांत महासागर को नही जनता उसे यह अतिरंजना लगेगा और जिसने अपने गांव के पोखर को छोड़ कुछ देखा ही नही उसकी तो बात ही नहीं.”
वह भड़क उठा. हद करते हो. कौन सा तथ्य है तुम्हारे पास जो मेसोपोटामियन और मिस्री सभ्यताओं के रहते ऋग्वेद काल को प्राचीन सभ्यताओं का शिखर सिद्ध कर दे?”
“इसकी भाषा जो सीधे और कुछ टेढ़े भारत से युरोप तक फ़ैल गई जब कि उनकी भाषाएँ उनके दायरे में सिमटी रह गईं. इसकी रीतियाँ नीतियाँ, पोशाक विचार, स्वच्छता के सरोकार, यहां तक कि इसके मुहावरे जो भारत से ग्रीस तक फ़ैल गए.
हद करते हो यार. लगता है विषय पर बात आज भी नही हो पायेगी. ये तुम हर चीज़ को उलट क्यों देते हो. तुम तो उनमें से लगते हो जो कहते हैं कि पिरामिडों के ज्यामितीय सूत्र भी भारत से मिस्र पहुँचे.”
“मैं नही जानता वे क्या और किस आधार पर ऐसा कहते हैं पर प्रभाव विस्तार तो इस देश से ही हो रहा है. भाषा और संस्कृति की बात तुम्हारी समझ में नहीं आएगी, पर यह तो समझ में आ जानी चाहिए कि अनसिले वस्त्र से तन ढकने का प्रसार यूरोप से भारत की और नहीं हुआ हो सकता, भारत से यूनान की तरफ अवश्य हुआ है और इसमें मिस्र भी लिपट आता है. मैं उलटता नहीं हूँ. इतनी मेहनत से जिसे हज़ारों इतिहासकारों, भाषाशास्त्रियों और अनुसंधान संस्थानों द्वारा उलटा गया,उसे एक अकेले ही सीधा कर देता हूँ तो वे सभी ज़मीन पर आजाते हैं और घबराहट में चीखते हैं उधर मत देखना उधर मत देखना, देखोगे तो नंगा हो जाऊँगा. अपनी आँखों देखता हूँ. तुम भी देखो और अपनी आँखों देखने की आदत डालो.