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“फासिज़्म क्या है, इसे क्या मैं उससे सीखूंगा जो फासिस्टों के साथ खड़ा है/” उसने सामना होते ही ललकारा.
मैंने हँसते हुए कहा, “तुम्हारा माथा गरम है. पहले कुछ देर छाया में बैठें फिर समझना चाहोगे तो उस के चरित्र को भी समझ लिया जाएगा.” ज़ाहिर है हमारा मिलना पार्क में चहलकदमी करते हुए ही होता है इसलिए आमना-सामना हो ही जाता है. मेरे प्रस्ताव पर वह बैठने को राज़ी हो गया, पर यह मानने को नही कि उसका माथा गरम है और उसे ठंढा करने की ज़रूरत है. बैठने के बाद स्वर अवश्य बदल लिया. मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोला, “तुम जिस राह पर जा रहे हो, अकेले पड़ जाओगे. ये इतने सारे लेखक, पत्रकार, अध्यापक क्या मूर्ख हैं जो…”
मैंने कहा, “इतने सारे लोग एक जैसा सोचते हैं तो वे मुर्ख कैसे हो सकते हैं? मूर्खों की जमात अवश्य हो सकते हैं. क्योंकि जब सभी एक जैसा सोचते हैं तो सोचता तो कोई एक ही होगा न, दूसरे तो इसलिए मान लेते हैं कि जब सभी ऐसा सोचते हैं तो उनसे अलग राय रखना मूर्खता होगी. वे मूर्ख माने जाने के डर से सहमत हो जाते हैं . इसे भेंड धसान कहते हैं. सोचने वाला भीड़ के साथ नहीं होता है. अकेला होता है. वह संगसार करने वालों में से एक नहीं होता, वह अलग खड़ा चीखता है कि यह हो क्या रहा है? ”
“और आज जब सभी चीख रहे हैं कि यह हो क्या रहा तब?”
“वे चीख नहीं रहे हैं. हल्ला बोल रहे हैं. एक तरफ के हल्ले के बाद दूसरी तरफ का हल्ला. उत्पीड़ित उसी को कर रेक हैं जिसे पहले हमलावरों ने किया था. बुद्धिजीवी की चीख वस्तुस्थिति के विश्लेषण के रूप में आती है. वह तो कहीं दिखायी ही नही देती. एक दारुण त्रासदी में से अपनी अपनी …
“तुम नहीं समझोगे इसे, इसलिए एक दृष्टान्त से समझाता हूँ. दो सौ साल पहले तक सबरों में मरियाप्रथा का चलन था. वे दूसरे समुदाय के किसी नन्हे बच्चे को चुरा लाते थे और उसको पालते थे. कहानी का अंत यह कि जिस दिन उसकी बलि दी जाती थी उसे गाजेबाजे के साथ ले जाते थे. एक गड्ढा खोद कर उसमे पहले एक सूअर की बलि दी जाती थी. सूअर के रक्त वाले गड्ढे में नशे में धुत्त इस बालक का सर इस तरह दबा देते थे कि दम घुट कर उसकी मौत हो जाए. उसकेद उसकी एक एक बोटी काट कर अपनी अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए ले कर भागते हैं.
तो मुझे लगता है राजसत्ता की राजनीति करने वालों से लेकर साहित्य और विचारसत्ता की राजनीति करने वाले तक अपनी अपनी बोटियाँ काटने पर जुटे हैं. उनका लेखन एक बहुरंगी शोर का हिस्सा है जिसमें बाजे-गाजे का शोर भी शामिल है.
“अब तक ऐसा एक भी विश्लेषण नही कि किन प्रवृत्तियों के बढ़ने से एक ऎसी संस्था जो आपकी नज़र में फासिस्ट है, लोकप्रियता पाते हुए सबसे प्रभावशाली हो गयी? आप जो क्रांति न सही, पूरे तंत्र को बदलना चाहते थे, और पूरे ज़माने की आवाज़ पर आप का नियंत्रण था, आपने कभी सोचा, किन कारणों से आप की अपनी आवाज़ तक अलग सुनाई नहीं देती, ले-दे-कर धर्मनिरपेक्षता के तंग और दागी मैदान की धूल ही हाथ रह गई, जहाँ दागदार लोगों के पाँव पहले से जमे हुए हैं? आपकी आवाज दंतहीन बूढ़े के मुंह से बोलने की चेष्टा में निकली फुस्स बन कर क्यों रह गयी? कहीं है ऐसा कोई विश्लेषण? यदि है तो उसे ध्यान से पढ़ा तक है आपने? क्या आपको पता है कि आप उसी लेखक से बात कर रहे हैं जिसने आज से पचीस छब्बीस साल पहले, बाबरी मस्जिद के गिरने से पहले ऐसा विश्लेषण किया था और आगाह किया था कि इसका परिणाम यह होगा. उसके बाद उसके पीठ पीछे षड़यंत्र शुरू हो गया, पर नतीजे तो वे ही सामने आये.
Everet Knight का एक वाक्य मेरे प्रेरक वाक्यों में रहा है. उसे तुम भी सुन लो. The ills of society are the ills of those whose business it is to do its thinking. Our intellectuals not only have ceased to think, they consider it their duty not to think – their function being to to compile facts out of which will emerge the Truth by immaculate conception. …By thinking abstractedly, or by refusing to think at all, the intellectuals have ceased to count. (The Objective Society, 1959, p. 11
पर फसिस्म पर तो बात रह ही गयी. कल सही.
10/11/2015 1:15:59 PM