Post – 2015-10-12

तुम्हारे साथ एक गड़बड़ी है. तुम एक अवसर पर जिस बात को ग़लत कहते हो, दूसरे पर उसी का इस्तेमाल कर के सही को गलत साबित कर देते हो.”
मैं सचमुच हैरान हो गया, “मैं समझा नहीं, तुम क्या कहना चाहते हो. ज़रा खुल कर बताओ.”
“तुमने एक दिन कहा था किसी भिन्न देश या काल के निष्कर्षों के सहारे न तो हम अपनी समस्याओं को समझ सकते हैं, न ही उन्हें सुलझा सकते हैं. हमारी समस्या यहां और अब हैं और प्रत्येक समस्या का चरित्र अलग होता हैं. कल तुमने एक आदिम जाति में दो सौ साल पुरानी एक प्रथा के दृष्टान्त देकर और सौ हाल पुराने यूरोप के एक चिंतक के कथन की आड़ में हमारे समाज के सर्वोत्तम मेधा के लोग, बिलकुल आज के और अभी की सूचनाओं से लैस लोग, जो कर रहे हैं उसे किनारे लगा दिया. अपराधियों को बचाने के लिए तुमने उन्हें ही अपराधी बना दिया. तुमने गलत लाइन चुनी. तुम्हे तो क्रिमिनल लायर होना चाहिए था. धूम मच जाती तुम्हारी और पैसे यूं बरसते कि…”
मैं हंसने लगा, “इसका मतलब तुम्हे रात भर नींद नहीं आई और करवटें बदलते हुए मेरे कहे का जवाब ढूंढते रहे, पर जो कहा उसे समझने की कोशिश नहीं की.”
“समझता क्या खाक. उसमें समझने की बात थी कहाँ. वह तो कोरी वकालत थी और वह भी बचाव पक्ष से.”
मैं यह सुनकर ज़ोर से हंसा तो वह तिलमिला गया, “बड़े बेहया आदमी हो यार. मैं तुम्हे फटकार रहा हूँ और तुम हँसे जा रहे हो. इसमे हँसने की कौन सी बात है?”
तुमने हमारे समाज की सर्वोत्तम मेधा का पता कब लगा लिया? कोई सर्वे हुआ था? ”
“सर्वे की ज़रूरत तुम जैसों को अपना केस तैयार करने के लिए पड़ती है. ये जो साहित्य अकादमी से सम्मान प्राप्त साहित्यकार हैं इन्हे तुम क्या कहोगे?”
“पुरस्कार जुटाने की दिशा में प्रयत्नरत और अपने प्रयत्न में सफल लोग. इसमें सर्वोत्तम मेधा का सवाल कहाँ से आगया?”
“यह तुम नहीं तुम्हारी हीनता-ग्रंथि बोल रही है.”
“हो सकता है. अभिव्यक्ति का मौक़ा तो उसे भी मिलना चाहिए. पर उन्होंने ऐसा किया क्या जिससे तुम इतने प्रफुल्लिता हो.”
“वे अकादमी का दिया अपना सम्मान लौटा रहे हैं.”
“सम्मान उन्हें अकादमी से मिला था? उसके पहले सम्मान नही था? तब तो बेचारों को आजीवन तिरस्कार के साथ जीना पडेगा.”
“तिरस्कार के साथ क्यों जीना पडेगा. सारी दुनिया उन्हें सर आँखों चढ़ा लेगी, तुम देखना.”
“तुम्हारा कहना है वे सम्मान लौटा नही रहे हैं. वह जितना सम्मान अकादमी ने दिया था कम पड़ रहा था इसलिए उसे दूना करने के लिए बिना कुछ खोये अकादमी के मुंह पर मार कर वहाँ से लौटती उछाल को लपकना चाहते हैं. बड़े धूर्त लोग हैं तब तो. इन्हे ही तुमने सर्वोत्तम मेधा मान लिया. बड़े गावदी हो यार.”
वह खीझ रहा था. मेरे उत्तर से संतुष्ट नहीं था पर उसे कुछ सूझ नहीं रहा था. सोचा उसकी मदद करनी चाहिए. मैं गम्भीर हो गया. “मैं तुम्हारी पीड़ा समझता हूँ. तुम्हारे एक एक प्रश्न का उत्तर दूंगा. तुम्हें बीच में टोकना नहीं होगा. तैयार? ”
“ठीक है.”
पहली दृष्टान्त की. उसका काम समाधान देना नहीं. प्रकाश देना है जिससे तुम जैसे कमज़ोर नज़र के लोग भी साफ़ देख सकें.”
वह तिलमिलाया पर कुछ बोला नही. “रही यूरोप के एक दार्शनिक के विचार की बात. तो तुम जिन्हे बता रहे थे उन्हें अपनी नज़र और अक़्ल पर भरोसा ही नहीं. वे तभी समझते हैं जब पश्चिम का कोई विद्वान या अनति-विद्वान बताये कि तुम जिसे देख रहे हो वह वह नही है जो तुम समझ रहे हो. वह वह है जो मैं देख रहा हूँ.”
“बहुत जुमलेबाजी करते हो. सीधे नही बोल सकते?”
“देखो उन्नीसवीं शताब्दी में ही भारतेंदु और सैय्यद अहमद खान ने कहा था जब तक अंग्रेज़ी रहेगी तबतक देश की उन्नति नहीं हो सकती..”
“सैयद अहमद ने तो मुसलमानों को अपनी ज़बान के दायरे से बाहर आकर अंग्रेज़ी सीखने पर ज़ोर दिया था.”
“वह तो यह सोचकर कि सरकारी नौकरियों में पिछड़ न जाएँ. लन्दन यात्रा के दिनों में अंग्रेज़ों की तरक़्क़ी से प्रभावित होकर वह जिस नतीजे पर पहुंचे थे वह उनके विचार के अंग्रेजी उलथे में यह है. The cause of England’s civilisation is that all the arts and sciences are in the
language of the country …I should like to have this written in gigantic letters on the Himalayas, for the remembrance of future generations.
पर इससे तुम कहना क्या चाहते हो. साहित्य अकादमी तो भारतीय भाषाओँ की रचनाओं पर ही सम्मान देती है.”
“कहना यह चाहता हूँ कि हमारे सबसे मेधावी पुरस्कार विजेताओं की समझ में यह मोटी सी बात ओक्टोविओ पाज़ के मुंह से सुनने पर आज से चालीस साल पहले आई और इसे उन्होंने हमें बताने में इतना समय लगा दिया.”
अब रही सम्मान की बात. अकादमी देना भी चाहे तो किसी को सम्मान नहीं दे सकती. इसकी खेती वहाँ नहीं होती न आढ़त लगाई जाती है. सम्मान लेखक को अपने पाठकों से मिलता है. जिसे मिलता है वह जिस चीज़ से जुड़ता है, उसके सम्मान का एक छोटा सा अंश उसे भी मिलता है. यदि अकादमी अपना काम सही सही करे तो इन सम्मानित लेखकों के सम्मान का वह अंश उसे भी मिलेगा. वह स्वयं सम्मानित लेखकों के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करके सम्मानित होगी. अकादमी अपनी और से पुरष्कार देती है और उसके साथ तमगा बिल्ला भी लगा देती है. पुरस्कार देने की व्यवस्था है पर वापसी का नही, इसलिए तमगा बिल्ला वापस भी हो जाय पर जो धन दिया जा चुका है, अकादमी की और से जो प्रचार किया जा चुका है वह वापस नहीं हो सकता है. इसलिए यह राजनीतिक नाटक का साहित्यिक मंचन है.
“परन्तु यह बहुत गैरजिम्मेदाराना तरीका है. कुछ दूर तक फासिस्ट.”
“हद करते हो, इसमें फासिज़्म कहाँ से घुसा दिया?
“जिस अकादमी से मिले हुए पुरस्कार को लोग लौटा रहे हों उससे पुरस्कार लेना गर्हित बना दिया जाएगा या नहीं. पुरस्कार अकादमी देती है और आपका गुस्सा मोदी से है. जब तक मोदी सरकार है तब तक पुरस्कार लेना कलंकित होने का पर्याय बनेगा या नही? यह एक महान संस्था को नष्ट करना हुआ या नहीं. फासिस्ट तरीका हुआ या नहीं? ”
“बात तो तुम्हारी कुछ ठीक लगा रही है.”
“और ऐसे ही नासमझ, कुटिल, लोगों को तुम सर्वोत्तम मेधा कह रहे थे जिन्हे यह भी पता नहीं कि वे जो कर रहे हैं उसका नतीजा क्या होगा.?”
वह झेंप सा रहा था. मैंने कहा, और देखो, अकादमी ने इन्हे पुरस्कृत भी नही किया था, इसका जिस सत्ता में पैठ बना कर इन्होने जुगाड़ कर लिया था उसको उखाड़ने वाले को ये पहले दिन से ही कोसते आये हैं इसके लिए मैं इनका सम्मान भी करता हूँ. नमक का मोल तो चुका ही रहे हैं.
10/12/2015 1:56:26 PM