Post – 2015-09-29

कुछ नहीं मैंने किया जो कुछ हुआ होता रहा.
मैं तो बस माज़ी में चादर तान कर सोता रहा.
कितने दंगे क़त्ल और नेपथ्य से क्रन्दन-विलाप
मुक़र्रर इर्शाद का भी शोरो गुल होता रहा.
अपना मुश्तकबिल छिपाऊं किस महा घंटे तले
अपनी अंजुली में संभाले चीखता रोता रहा.
अट्टहासों गर्जनाओं के घने कोहराम में
मैं ज़हर पीता रहा और वह ज़हर बोता रहा.
धुंधलका कुछ और अंधियारे की परते भी कई
कहता कालिख से लहू के दाग़ वह धोता रहा.
‘कब तलक सोते रहोगे सर पर सूरज आ गया’
‘सर से नीचे तो उतारो कह के फिर सोता रहा’.
जब झिंझोड़ा आपने तो खून से लथपथ था मैं.
मच्छरों को क्या पता क्योंकर सितम होता रहा.
9/29/2015 10:52:14 AM