वक़्त की धार से इक उछली घड़ी थी शायद.
तुझे देखा था तो तू इतनी बड़ी थी शायद.
पल्ले पर हाथ शालभंजिका की मुद्रा में
अपने दरवाजे पर कुछ तन के खडी थी शायद.
गुजरते राह ‘नज़र लगती है लगने दो’ कहा
इतना सुनना था कि तू मुझसे लड़ी थी शायद.
ठीक तो याद नही फिर भी ऐसा लगता है
वह गर्मियों की एक दोपहरी थी शायद.
आज चहरे पर झुर्रियों की लिखावट थी घनी
आँख के कोने में एक बूँद पड़ी थी शायद.
कितनी तस्वीरें एक दूसरे में पिन्हा थीं
कहानियों की भी एक लम्बी लड़ी थी शायद.
मुझे देखा तो थरथराए थे कुछ होंठ मगर
झट से मुँह फेर मुझे भूल गई थी शायद.
आज यह शाम थी और शाम का सन्नाटा था
बादलों में न चमक थी न नमी थी शायद.
9/26/2015 4:24:15 PM