मैं सोचता हूँ कि फेसबुक को अपनी पद्य रचनाओं का अभिलेखागार बना दूँ. कोई न पढ़े तो भी वायरस से तो बची रहेंगी सो :2015-09-09
मैं सोया नहीं था
न जाग रहा था
बस जी रहा था
जैसे जीते आये हैं शताब्दियों से हम
महामानव बनने की उम्मीद में
एक परिभाषा के पीछे भाग रहा था
समायोजित करता अपने को
सभी की उम्मीदों के अनुसार
अपनी उम्मीद से बाहर निकल कर
ऐंठता कुनमुनाता
करवटें बदलता लगभग पूरे होश में
बदहवासी की सतह से ठीक ऊपर.
‘हम किसी से कम नहीं ‘
अभुआता हुआ.
9.9.2015
दिया क्या ज़िंदगी ने छीन ले जिसको क़ज़ा मुझसे
फ़क़त एक नाम वह भी देखिये भगवान का ठहरा.
9.9.2015
हम सुख़नफ़ह्म थे पर अब तो नहीं हैं साहब
आप ही सोचिये क्यों इस मुक़ाम तक पहुंचे
तनी गर्दन थी धड़कनें मिलीजुली सी थीं
आप की चाह थी गर्दन सलाम तक पहुंचे
यूं ही नज़दीकियां दूरी में बदलती तो नहीं
आप नाज़िम थे इसी इंतज़ाम तक पहुंचे
हम भी भगवान से पूछेंगे की क्या सोचता है
वह नामुराद भी अपने क़याम तक पहुंचे.
9.9.2015