Post – 2015-04-20

जनसत्ता ने संस्कृति को राजनीति के समकक्ष रखा है यह देखकर बड़ी रहत मिलती है. कम से कम साहित्यकार के दिन पुरे होने और साँस लेते हुए उसने कुछ किया भी था इसका पता चल जाता है. विजयमोहन सिंह बहुत मनस्वी आलोचक थे यह बात उनके निकट और अभिन्न आलोचकों को भी शोक और स्मरण के क्षणों में ही याद आया. पहले नहीं. अपने आप को लेकर हम सब इतने व्यस्त हैं कि देश दुनिया की खबर ही नहीं. खबर के नाम पर भी देश दुनिया गायब है. ढोल की आवाज़ ही बच रही है.