Post – 2020-01-13

Copy of A letter to V.C. JNU.

Dear Jagadish ji,
I am 88+, have published around two dozen books, mostly on history and culture, but, so engrossed in my work that I was totally ill-informed and had very poor opinion of you. The article in Indian Express on you saved me from a fatal flaw. Through this letter, I want to convey that:
1. I condemned the agitation against the decisions taken by you, and ultimately even against your continuance as V.C.

2. You must have noted the way it is being spread from university to university, on slightest pretext, which is a proof that it is not against you, nor because of the grievances of the students, but ignited by political parties who, because of their failures on political front, have jointly decided to raise chaos, to fail the elected government at the center.

3. I find you mild as butter and firm as granite, and knowing well that the post of V.C. (as a teacher you are happier) has no charm for you, you stoutly maintain your position, as a duty, in a critical situation, I wish you to remain firm.

4. I find the opposition parties power-mad and ready to demolish the democratic foundation, for obvious reasons:

(a) A family has the divine right to head the ‘Congress’ and rule the nation and has disregarded democratic principles, whether in power or out of power, and lately (prompted by CROSS) has started using the methods of Italian mafioso to gain power. The country, democracy, and constitution are no longer safe in their hands.
(b) From its very inception, Indian communism was prompted and promoted by oligarchs, compromising with anti-democratic forces even during the National Movement; became the sober face of the League, and its riotous designs; a party to part the nation, and are ready to part it again, even though they admit that their initial support to Muslim league was a mistake, They commit mistakes, admit mistakes but never deviate from the path which adds another mistake to their account.
(c) The rest of the parties are blemished because of various personal ambitions, none even remotely ambitious to take the central stage;but all threatened by their possible extinction,join the opposition.
(d) They utilized minimal pretexts to raise it to cosmic levels – even the death of a person, suicide of a student, enhancement of fee, a law passed by parliament,an attempt to restore discipline -and these are the times that test men’s mind.Wish you to hold firm.

Post – 2020-01-12

इतिहास के खुले खेत में साँड़

इतिहास से वंचित परंतु अतीत गाथाओं से पले भारत के इतिहास लेखन में जेम्स मिल का प्रवेश खुले खेत में छुट्टा सांड की तरह हुआ। वह इंग्लैंड के बारे में अपनी जानकारी बढ़ाते बढ़ाते हुए, अपनी जगह से एक इंच भी खिसके बिना, हिंदुस्तान की खोज खबर लेने की ठान बैठ गए थे।[1]

एक अंग्रेज के रूप में, वह हिंदुस्तान के नहीं अंग्रेजी उपनिवेश विषय में जानकारी बढ़ाने के लिए, उसके इतिहास को समझना चाहते थे। उन्होंने देखा कि यहां तो हर चीज है; पर इतिहास नहीं है। भारत से परिचित अंग्रेजों के लेखन से भी उस रंगभूमि में ब्रिटिश कारगुजारी का सही खाका तैयार करने के लिए, जितनी पर्याप्त जानकारी चाहिए, वह कहीं मिलती ही नहीं।[2]

हिंदुओं “के पास ऐतिहासिक अभिलेख बिल्कुल हैं ही नहीं। इनके प्राचीन साहित्य में ऐसा एक भी नहीं जिसकी प्रकृति ऐतिहासिक हो। जिन कृतियों में पुराने युगों के अद्भुत कारनामे बयान किए गए हैं, वे कविता में हैं, और उनमें अधिकांश की प्रकृति धार्मिक है।”[3]

अगली कमी यह कि ये ब्राह्मणों द्वारा रचे गए हैं, और “ब्राह्मण सबसे अधिक दुस्साहसी हैं, और अभी तक जिन जन्तुकथाओं से हम परिचित हो पाए हैं, उनसे लगता है, शायद सबसे मजे हुए जालसाज हैं।[4] उनके लेखन में कुछ विश्वसनीय हो ही नहीं सकता था।

जो देश असभ्य होते हैं, उनके पास इतिहास नहीं होता, बड़बोलेपन से भरे अविश्वसनीय दावे होते हैं। सभ्य अंग्रेजों के राज में उसका कोई उपनिवेश असभ्य रह जाए यह उन्हें बर्दाश्त न था, इसलिए हिंदुस्तान को देखे बिना हिंदुस्तान की किसी जवान से परिचित हुए बिना, हिंदुस्तान से सहानुभूति रखे बिना, विलियम जोंस की प्राचीन भारत के विषय में कुछ प्रशंसात्मक इबारतों से आहत, कभी ईसाई मिशनरी होने का सपना देखने वाले, और बाद में अनीश्वरवादी बने, इस नौजवान ने इस कमी को पूरा करने का संकल्प कर लिया और उसने इस काम पर अपने सक्रिय जीवन के 10 वर्ष लगा दिये। यदि उसे आरंभ में ही पता चल गया होता यह इतना मुश्किल काम है तो उसने इसमें हाथ ही नहीं डाला होता।[5]

वह इतिहासकार नहीं था, न ही इतिहास लिख रहा था, वह अपने उपनिवेश को अपनी जरूरतों से समझते हुए, उस नजरिए को दूसरों पर लादने का भी प्रयत्न कर रहा था। वह भारत का विवरणात्मक इतिहास नहीं लिख रहा था, जिसमें तथ्यों को यथावत रखा जाता है, और और उसके माध्यम से सचाई का निर्णय करने का अधिकार पाठक को दिया जाता है, अपितु आलोचनात्मक इतिहास लिख रहा था, जिसे हम पका-पकाया इतिहास परोसना चाहता था जिसको हजम किया जा सकता था, पर अपने विवेक से न तो समझा जा सकता था न किसी अन्य नतीजे पर पहुँचा जा सकता था। ऐसा इतिहास अंतिम फैसला हुआ करता है।[6]

“साक्ष्य ने मामले में आलोचना का, जाहिर है, मतलब होता है, प्रत्येक वस्तु का मोल आँकना, सत्य को असत्य से अलग करना, पूरा लेखा पेश करने के लिए अधूरे कथनों को पूरा करना, परस्पर अनमेल या विरोधी कथनों के बीच संतुलन कायम करना, जिससे सही तस्वीर बन सके।[8]

“आलोचना का काम है सही कारणों और नकली कारणों के बीच, सही प्रभाव और गलत प्रभाव, सही प्रवृत्तियों और गलत प्रवृतियां प्रवृत्तियों, सही परिणाम और गलत परिणाम, और जिस उद्देश्य के लिए उनको काम में लाया गया है, उन लाभकर तरीकों और हानिकर तरीकों के बीच फर्क करना।[9]

मिल को लगा कि “ऐसे प्राचीन राष्ट्र जिनके इतिहास पर भरोसा किया जा सकता है इतिहास को सभ्यता के चरण तक तलाशते हैं। वे परिवार जो ग्रीस में इटली में पूर्वी यूरोप में इधर-उधर भटकते रहे खुद मानते हैं कि कि वे अज्ञानी थे, बर्बर थे, गो कि उनका इधर उधर बिखरना और ऐसे प्रदेशों में पहुँचना जहां प्राकृतिक असुविधाएँ अपने चरम पर थीं, बहुत दुर्भाग्यपूर्ण था।”[10] भारतीय स्रोतों पर इसलिए भरोसा नहीं किया जा सकता कि यह सृष्टि के आरंभ से ही देववादी है।

“अब सवाल यह उठाया जा सकता है कि यह लेखक कभी भारत गया ही नहीं और यदि उसे पूरब की किसी भाषा की जानकारी यदि है, तो न के बराबर ।[11] क्या ऐसा व्यक्ति जो ना किसी देश की भाषा जानता हो न उसे अपनी आंखों से देख पाया हो उसका इतिहास लिखने में सक्षम हो सकता है ?”

जवाब यह है कि लेखक को लगा “सूचनाओं का इतना बड़ा भंडार यूरोपीय भाषाओं में तैयार हो गया है जिसके आधार पर भाषा जाने बिना भी भारत के विषय में हर महत्वपूर्ण बात सुनिश्चित की जा सकती है।”[12] .

जहां तक किसी देश को देखने का सवाल है, ‘यदि कंपनी के कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष, गवर्नर जनरल, या ऐसे लोग, जिन्हें भारतीय सरकार की सभी शक्तियाँ दी गई हैं, उनके विषय में यदि यह सवाल नहीं उठाया जाता कि वे भारत में गए हैं या नहीं या वहां की भाषा जानते हैं या नहीं, तो फिर लेखक के बारे में ही यह सवाल कैसे उठाया जा सकता है।'[13]

यह है उस दलील का नमूना जो भारतीय इतिहास को अपने मनचाहे ढंग से तोड़ने मरोड़ने के लिए जेम्स मिल ने पुस्तक के आमुख में दी। इसके गुण दोष पर विचार हम कल करेंगे।
[1] In the course of reading and investigation, necessary for acquiring that measure of knowledge which I was anxious to possess, respecting my country, its people, its government, its interests, its policy, and its laws. It was met, and in some degree surprised, by extraordinary difficulties, when I arrived at that part of my inquiries which related to India.
[2] The knowledge, requisite for attaining an adequate conception of that great scene of British action, was collected nowhere.
[3] This people, indeed, are perfectly destitute of historical records. Their ancient literature affords not a single production to which the historical character belongs. The works in which the miraculous transactions of former times are described, are poems. Most of them are books of a religious character.
[4] The Brahmens are the most audacious, and perhaps the most unskilful fabricators, with whom the annals of fable have yet made us acquainted.
[5] I should have shrunk from the task, had I foreseen the labour in which it has involved me.
[6] A history of India, therefore, to be good for anything, must, it was evident, be, what, for want of a better appellation, has been called, “A Critical History.”1 To criticise means, to judge. A critical history is, then, a judging history. But, if a judging history, what does it judge?
[7] It is evident that there are two, and only two, classes of objects, which constitute the subject of historical judgments. The first is, the matter of statement, the things given by the historian, as things really done, really said, or really thought. The second is, the matter of evidence, the matter by which the reality of the saying, the doing, or thinking, is ascertained
[8] In regard to evidence, the business of criticism visibly is, to bring to light the value of each article, to discriminate what is true from what is false, to combine partial statements, in order to form a complete account, to compare varying, and balance contradictory statements, in order to form a correct one.
[9] the business of criticism is, to discriminate between real causes and false causes; real effects and false effects; real tendencies and falsely supposed ones; between good ends and evil ends; means that are conducive, and means not conducive to the ends to which they are applied.
[10] We find, accordingly, that all those ancient nations, whose history can be most depended upon, trace themselves up to a period of rudeness. The families who first wandered into Greece, Italy, and the eastern regions of Europe, were confessedly ignorant and barbarous. The influence of dispersion was no doubt most baneful, where the natural disadvantages were the greatest.
[11] This writer, it will be said, has never been in India; and, if he has any, has a very slight, and elementary acquaintance, with any of the languages of the East.
[12] it appeared to me, that a sufficient stock of information was now collected in the languages of Europe, to enable the inquirer to ascertain every important point, in the history of India.
[13]I observed, that no exceptions were taken to a President of the Board of Control, or to a Governor-General, the men entrusted with all the powers of government in India, because they had never been in India, and knew none of its languages

Post – 2020-01-11

हम अपनी कहते हैं, चुप रहते तो बच भी जाते
मिटने की शर्त है, पर कहने को मजबूर भी हैं ।

Post – 2020-01-11

सच को हर रंग में देखा है, मगर देखिए फिर,
सच के कुछ रंग सचाई से बहुत दूर भी हैं।

Post – 2020-01-10

आत्महत्या से बचते हुए

लेखक के लिए आत्महत्या करने के दो रास्ते हैं पहला तथ्यों के साथ छेड़छाड़, चुनाव, अनुकूल आने वाले तथ्यों को जगह देना, और उससे भिन्न पढ़ने वाले साक्ष्यों और तथ्यों को छोड़ देना।

दूसरा, जिस अपराध से बचा ही नहीं जा सकता, पर प्रयत्न किया जा सकता है, वह है किसी संकीर्ण दायरे में – दायरा जाति, धर्म, देश या वर्ग हित, विचारधारा किसी का भी हो सकता है – बंध कर, उन्हीं तथ्यों को एक सँकरी नजर से देखना।

जो लोग इनमें से किसी सीमा में बँध कर सोचते हैं, बहुत आसानी से अपने से असहमत होने वालों को सोचने और बोलने का अधिकार नहीं देते। यदि फासिज्म इसी को कहते हैं तो, भारत में, इसका सबसे अधिक प्रयोग, अपने को सबसे अधिक पवित्र सिद्ध करने वाले, भारतीय कम्युनिस्टों ने किया है। आत्महत्या का यह भी एक रूप है जिसमें जिस दर्शन से आपको मानव जाति के उद्धार की आशा हो, उसके व्यावहारिक रूप को देखकर आपको उससे डर लगने लगे। जिसको मूल्यवान समझते थे उसका सर्वस्व चला जाना आपके जीवन की आकांक्षा को ही समाप्त कर देता है।

मैं सदा से यह मानता आया था और आज ही मानता हूं कि सक्रिय राजनीति – सत्ता पर अधिकार करने की राजनीति- अपराध से बच नहीं सकती, इसलिए बुद्धिजीवियों को इससे दूर रहना चाहिए । इसे मैं पहले लिख चुका हूं, इसलिए किसी गवाही की जरूरत नहीं।

मैंने जीवन में कुछ पाना नहीं चाहा यह कहना तो गलत है, परंतु अपने विवेक और अंतरात्मा के विरुद्ध किसी भी कीमत पर कुछ नहीं चाहा , इसका भोक्ता भी मैं हूं और गवाह भी मैं हूं। जो किसी से नहीं डरता वह अपनी अंतरात्मा से डरता है, डर मुझे भी लगता है, परंतु अपनी अंतरात्मा से। अंतरात्मा मूल्य-बोझिल शब्द है, स्वविवेक उससे अच्छा तो है, परंतु इसकी व्याख्या में इतनी छूट है, कि एक अपराधी भी अपनी परिस्थितियों में अपने विवेक का तर्क दे सकता है, और जो कुछ कर चुका है उसे सही ठहरा सकता है।

एक विचारक के रूप में सभी संकीर्णताओं से बचने की कोशिश के बाद भी मैं इस बात का कायल हूं कि हमें सत्ता लोलुप लोगों की विचार दृष्टि से बचते हुए एक मार्गदर्शक विचारक की भूमिका का निर्वाह करना चाहिए, जिससे उनमें से जो अपने को अधिक नैतिक और बहुमान्य सिद्ध करना चाहें वे हमारे सुझाए हुए रास्ते के निकट रह सकें।

हाल के दिनों में मुझे अपने आप से लगातार संघर्ष करना पड़ा है । पाला बदलने वाले, या किन्हीं पालों से जुड़े माध्यमों के कारण हम जानते हैं, कौन किसके साथ है, पर यह नहीं जान पाते कि सच्चाई क्या है।

मैं सत्ता पाने या सत्ता को बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील किसी दल को निरपराध नहीं कह सकता। वह जो तरीके अपनाते हैं उसके परिणाम पर हम अवश्य ध्यान दे सकते हैं। नागरिकता पहचान नियम एक चुनौती भरा प्रश्न है। भारत में रहने वाला कोई भी मुसलमान अपने नागरिक अधिकार से वंचित हो जाए यह दुर्भाग्यपूर्ण है। परंतु इसे घुसपैठियों का दरवाजा बना दिया जाए, यह कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है।

इसके बहाने जिन गैर मुसलमानों को विभाजन के समय आश्वस्त किया गया था कि वे वहीं रहे और अपेक्षा की गई थी वे अपने विश्वास, आस्था और सम्मान के साथ जीने पाएँगे,और यदि ऐसा न हुआ तो उन्हें भारत में आने की छूट दी और जीने की व्यवस्था की जाएगी, उनको तकनीकी आधार पर उस सुविधा से वंचित करने का अर्थ क्या होता है?उन्हें भेड़ियों को सुपुर्द कर देना।

नागरिकता संशोधन बिल के ऐक्ट बन जाने से पहले संसद के विचार विमर्श में मुझे लगा था, इसमें गलती की जा रही है। जब बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के धर्म के आधार पर प्रताडित जनों को आश्रय देने का प्रश्न है तो हिंदू, सिख, ईसाई, जैन , जैसी लंबी कवायद की जरूरत न थी। इसे जानते हुए भी यह जानबूझकर लाया गया है, कि कहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश के धर्म के आधार पर प्रताड़ित उन मुसलमानों को भी आने का अधिकार न मिल जाए, जिन्होंने मतदान से पाकिस्तान का चुनाव किया था।

भारत कितनी आबादी को संभाल सकता है, चिंता उनके मन में रही होगी, और इसे देखते हुए मुझे यह बिल जो कानून में बदल गया सही लगता है। संविधान के निर्माताओं को इस बात की कल्पना भी नहीं थी कि इन देशों में रहने वालों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाएगा। कल्पना से परे होने वाली परिणतियों का ध्यान किए बिना बने संविधान को यथार्थ की कसौटी पर बदला जा सकता है। जिस संविधान में शतक पूरा करने वाले संशोधन किए जा चुके हैं उनमें अपरिहार्य स्थितियों में बदलाव जरूरी लगे तो किया जा सकता है ।

मुझे नागरिक पहचान पत्र वाले विधान पर, इस बात की चिंता है, कि किसी भारतीय मुसलमान को नागरिकता खोनी न पड़े। इसलिए इस पर अचूक तरीका अपनाया जाना चाहिए। परंतु आज की तिथि में जिस तरह का आंदोलन चल रहा है उसमें इस बात को बढ़ावा दिया जा रहा है, कि हमारे आश्वासनों के अनुसार जो भारत में शरण लेना चाहते हैं उन्हें शरण मत दो, और जो नाजायज तरीके से घुसपैठ कर चुके हैं या करने वाले हैं, उनकी पहचान मत होने दो। यह सिलसिला जारी रहे। यह सिलसिला जारी रहे।

आत्महत्या का यह भी एक तरीका है मैं अंतिम तरीके से बचना चाहता हूं। जानना चाहता हूं, आत्महत्या के इन तीनों रूपों में सबसे गर्हित कौन सा है? कोई मेरी मदद करेगा?

Post – 2020-01-10

मैं अभी एक घंटा पहले हैरानी प्रकट कर रहा था कि जेएनयू से वीसी को अब तक हटाया क्यों न गया। छात्रों पर हमला मुझे उसकी रजामंदी से कराया गया लगता था। अब इस कहानी को पढ़ कर लगा इतने सारे सूचना मध्यमों के बादजूद हम कुछ जानते ही नहीं, अफवाहों का बाजार सूचना माध्यमों में भी गर्म है।

Post – 2020-01-08

रोते हुए आए थे, अब रो भी नहीं पाते
इस बीच जो गुजरी है वह जिंदगी अपनी थी।।

Post – 2020-01-08

अपनों को बुरा कहना, कुछ खूब है, यह माना।
अपने को मिटा देना अगला ही कदम होगा ।।

Post – 2020-01-08

मुझे भारतीय मुसलमान अभी मिली है। पढ़ते ह्एु मजा आ रहा है। यह ‘अवश्य पठनीय पुस्तक लगती है। यदि पढ़ें तो प्रतिक्रिया चैट के माध्यम ते अवश्य दें। सस्ता साहित्य मंडल को धन्यवाद।

Post – 2020-01-06

जे.एन.यू. में तांडवनृत्य जघन्य है। पुलिस की प्रतिष्ठा अपराधियों को खोज निकलने से ही बच सकती है।