Post – 2019-10-26

जी में तो मेरे आया, उस शोख को समझाऊँ
यह भूल हुई होती, जिंदा न रहा होता।।

Post – 2019-10-25

देखिए हाल क्या है गुलशन का!

मेरी चिंता के केंद्र में है भारत की #मानसिक_गुलामी। आक्रोश उस बौद्धिक नपुंसकता पर आता है, जिसमें अपने को बौद्धिक समझने वाले अपनी हैसियत के अनुसार इसके आढ़ती, वितरक और खुदरा व्यापारी के रूप में काम करते दिखाई देते हैं, क्योंकि इसमें मुनाफा सबसे अधिक है। श्रम नहीं करना पड़ता, श्रम करने की जिम्मेदारी उन देशों की है, जो हमें गुलाम रखना चाहते थे, या रखना चाहते हैं। वे स्वयं भी कुछ कर सकते है, इसका विश्वास ही नहीं। इनकी पीड़ा उनके सत्ता से बाहर कर दिए जाने की है जिसके होने से इनको भी अपने कुछ होने का एहसास हुआ करता था।

फेसबुक पर लिखने का फैसला इस प्रलोभन में किया था कि इस पर लिखा हुआ वायरस के प्रभाव से मुक्त रहेगा। समकालीन घटनाओं और गतिविधियों पर लिखने की सोच भी नहीं सकता था, क्योंकि उनके लिए एक अलग तरह की तैयारी की जरूरत होती है। यहां तक कि उसकी भाषा, मुहावरे, और शैली सभी में भिन्नता होती है। उस अनुशासन से गुजरे बिना कोई व्यक्ति मात्र की इच्छा से वैसा लेखन नहीं कर सकता ।

इसके अतिरिक्त, अपने लेखन के लिए उनका दबाव भी अलग होता है। यथार्थ को वे ही अधिक निकटता से जानते हैं और उनकी संचार क्षमता अन्य लेखकों की तुलना में अधिक होती है। दुनिया के 4 ऐसे पत्रकारों को मैं जानता हूं जिन्होंने किसी दार्शनिक की तुलना में अपने पाठकों को अधिक गहराई से प्रभावित किया है और उनमें से तीन ने तो दुनिया को बदला भी है। इनमें मूर्धन्य है लायड गैरिसन, दूसरे हैं कार्ल मार्क्स, तीसरे हैं मोहनदास करमचंद गांधी और चौथे हैं हॉब्सबाम। मेरे पास तैयारी के लिए न तो समय था, न योग्यता, न ही पत्रकारिता की दुनिया में अपनी जगह बनाना चाहता था, न लिखना चाहा।

ऐसा लेखन जिसे राजनीतिक भी कहा जा सकता है, पहली बार फेसबुक पर उस समय करना जरूरी लगा कि मुझे नागरी प्रचारिणी सभा और साहित्य सम्मेलन पर कब्जा करके उन्हें नष्ट करने वालों के इतिहास पता था। उनकी रक्षा के लिए मैं कुछ नहीं कर सकता था, परंतु एकमात्र बच रही राष्ट्र का गौरव समझी जाने वाली संस्था पर,उन्हीं लोगों के द्वारा प्रहार किया जा रहा है, जिनको उसने सम्मानित किया था, वह भी पर्याप्त कारण के बिना, इसलिए मुझे उनकी आलोचना करने का कार्यभार निभाना पड़ा था। उसके विस्तार में न जाएंगे।

मेरी जानकारी में मेरे मित्रों के साथ मेरा संबंध व्यक्तिगत स्तर पर पारस्परिक सम्मान का है और वैचारिक स्तर पर घोर विरोध का। चिंता के केंद्र में एक ही विषय रहता है। हमारे देश और समाज का हित किस तरीके से हो सकता है। इसे समझना जरूरी है।

मान लीजिए आपकी मां को उदर-विकार है।आप कहते हैं कि इसके लिए देसी दवा ठीक रहेगी। दूसरे पश्चिमी वैज्ञानिक सफलता के इतने कायल हैं कि वह ठान लेते हैं कि एलोपैथिक ही काम करेगी। एलोपैथिक उपचार के बेकार हो जाने के बाद भी, वे पश्चिमी, (ईसाई) झाड़फूँक के लिए तो तैयार हो जाते हैं परंतु आयुर्वेदिक चिकित्सा का निरंतर विरोध करते हैं। आप इस इस चरण पर देसी दवा पिला देते हैं, और मां स्वस्थ हो जाती है, इसे देखकर भी वे मानने के लिए तैयार नहीं कि इस चिकित्सा से स्थाई लाभ हुआ है। वे उसी मां को चारपाई से उठ कर चलते, हंसते ,बोलते देख कर भी विश्वास नहीं कर पाते कि यह उसके लिए आगे भी हितकर है। इसके साथ या जोड़ दिया जाए कि यह आदर्श स्थिति है मातृ- भक्ति की।

परंतु यदि किसी घटनावश आपको पता चले कि आपके वे भाई जो एलोपैथी के मुरीद थे उनका ध्यान मां को नीरोग रखने से अधिक उस दवा से मिलने वाले कमीशन पर था जिसे वे पूरे परिवार से वसूल कर रहे थे, तो झटका लगेगा। ग्लानि होगी। जानते हुए भी विश्वास नहीं होगा कि कोई ऐसा भी कर सकता है।

इसका प्रमाण मुझे दो अवसरों पर मिला। पहली बार हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य लिखने के बाद, जब मैंने यह उम्मीद की थी कि सही इतिहास जानने के बाद हमारे प्रतिष्ठित विद्वान अपना दृष्टिकोण बदल लेंगे। उनके पास किसी चीज का जवाब नहीं था, किसी स्थापना का खंडन नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने जो हथकंडे अपनाए उनसे पता चला कि इससे पहले किन तरीकों से उनसे एक खास तरह का इतिहास लिखवाया जा रहा था।

दूसरी बार 4 साल पहले जब कलबुर्गी की हत्या होने पर। यदि किसी को उह हत्या में किसी प्रकार की शिथिलता के लिए जिम्मेदार मानना ही था, तो उस समय उस राज्य की कांग्रेस सरकार को मान सकते थे। उसे दोष देने की जगह पुरस्कार वापसी अभियान चलाते हुए यह उम्मीद पाली गई कि इससे असाधारण जनमत वाली केंद्रीय सरकार भी गिराई गिराई जा सकती है । शेखचिल्ली के सपनों के बारे में सुना था, देखने का अवसर पहली बार मिला और इसलिए विरोध करने के लिए मैंने पहली बार राजनीतिक विश्लेषण करते हुए इस मूर्खता को उजागर करने का संकल्प लिया।

जिस व्यक्ति से यह सिलसिला आरंभ हुआ था उसके विषय में मैंने जो धारणा बना रखी थी वह यह कि वह आत्मविज्ञापन के लिए कुछ भी कर सकता है।

परंतु मेरा ऐसा सोचना गलत था। अभी 1 हफ्ते पहले एक प्रामाणिक स्रोत से पता चला कि किसी दूसरे व्यक्ति ने हत्या की सूचना देते हुए उसे यह सुझाया था कि कलबुर्गी साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त विद्वान थे इसलिए अकादमी पुरस्कार-प्राप्त साहित्यकार होने के नाते अपना विरोध दर्ज करते हुए उसे अपना पुरस्कार वापस कर देना चाहिए। इसके उत्तर में उसने कहा था, यह तो बहुत बेतुकी बात है। जिस व्यक्ति ने यह सुझाव रखा था, उसकी कोई साहित्यिक हैसियत नहीं, फिर भी, ऐसा करना गलत है,, यह जानते और मानते हुए भी, उसने इसकी घोषणा की और उसके बाद जिनके सामने यह प्रस्ताव पहुंचा सभी की पहली प्रतिक्रिया यही थी, फिर भी सिलसिला जारी रहा।

यहाँ मैंने इस सवाल को इसलिए उठाया कि हमारा बौद्धिक नेतृत्व जिनके हाथ में है, वे यह जानते हुए कि कोई काम गलत है मामूली से मामूली बहकावे में आकर उसे कर ही नहीं सकते हैं, एक एक कर सभी उससे जुड़ते हुए यह भ्रांति पैदा कर सकते हैं, कि वे इस हत्या को केन्द्र सरकार द्वारा स्वतंत्र विचार का दमन मानते हुए इल विश्वास विरोध कर रहे हैं कि इस तरीके से वे व्यवस्था को बदल सकते हैं।

दुनिया के किसी देश को क्या झुंड की मानसिकता (HERD INSTINCT) से ग्रस्त ऐसा बदहवास बुद्धिजीवी वर्ग मिला होगा जो हमें मिला है, और वह, आए दिन, जिस तरह का तूफान खड़ा करता रहता है उससे उस देश और समाज का कितना नुकसान हो सकता है, जिसको दूसरों से अधिक प्यार करने के दावे वह करता रहता है! गलतियाँ किसी से हो सकती हैं, पर यह जानते हुए कि यह गलत है, अपने तुर्रे और तमगे दिखाते हुए इकट्ठा होने वालों की इतनी विशाल भीड़ इतिहास का अजूबा है जैसा न पहले हुआ न अन्यत्र कहीं हो सकता है, पर भारत के विषय में यह दावा नहीं किया जा सकता।

Post – 2019-10-24

मिटाया मैंने अपने को तो खुद को सामने पाया

यह मैं पहले भी कह आया हूँ कि अपनी समझ से किसी महान और दूसरों की नजर में गुमराह, खतरनाक और दुष्ट मेरी प्रेरणा के स्रोत इस कारण रहे हैं कि वे जानते थे कि उनकी हत्या हो सकती है, उन्हें अपमानित किया जा सकता है, उनके त्याग और बलिदान को कहीं दर्ज तक न किया जाएगा, इसकी बात भी दिमाग में नहीं आती थी। वे गुमनामी में रहकर भी, उपेक्षा, अपमान और उत्पीड़न, यहाँ तक कि प्राण का संकट मोल ले कर भी किसी महान लक्ष्य को पाना या अपने देश समाज को बदलना चाहते थे। जब वे इसका सही आकलन नहीं कर पाते थे कि उसे पाने का जो तरीका वे अपना रहे हैं, वह सही है या नहीं, उससे उसकी सिद्धि संभव है या नहीं तो वे उनकी नजर में भी गिर जाते थे जिनका भला करना चाहते थे, क्योंकि युगों के अनुभव का सार हमारी जातीय चेतना. collective consciousness हमारे भीतर, अक्षर-ज्ञान से वंचित कर दिए गए लोगों के भीतर भी विद्यमान होती है जिससे वे जानते हैं कि गुमराह लोगों के स्वयं सहायता की जरूरत होती है। उनके किए क्रांति नहीं हुआ करती, उपद्रव अवश्य हुआ करते हैं।

पहले कारण से मैं उन्हें अपनी प्रेरणा का मानता आया हूँ, दूसरे कारण से मूर्ख।

मेरे परिचितों और मित्रों में अनेक हैं जिनकी रुझान नक्सलवादी है। मैं उनका सम्मान करता हूं, यह जानते हुए भी कि उनके मन में मेरे लिए सम्मान नहीं हो सकता। कारण, सम्मान के बाद भी मैं उनका समर्थन नहीं करता, मूर्ख समझता तो हूँ पर व्यक्ति के रूप मे उनके विषय में जितना जानता हूं उससे उनके प्रति जो आदर है, उसके कारण कह नहीं पाता । वे भी मुझे इन्हीं कारणों से अपनी नजर में मूर्ख समझते तो हैं, पर कहते नही।

उनकी परिभाषा में मुझ जैसे लोग या तो कायर होते हैं, या अवसरवादी, अथवा यथास्थितिवादी।

यथास्थितिवादी लोग प्रगति अर्थात् क्रांति में बाधक तो हैं ही; प्रतिक्रियावादी भी हो सकते हैं और संकीर्णतावादी भी।

मुझे इससे चिंता नहीं होती, पर इस बात से चिंता होती है कि हमारे समाज का बौद्धिक नेतृत्व करने वाला वाचाल और जोड़-तोड़ में दक्ष (इसके बिना तो संगठन कायम भी नहीं होते।) वर्ग अपनी रक्षा तक नहीं कर पाता, नैसर्गिक संकेत प्रणालियों को फाल्स सिग्नल कह कर, उनको विघ्नकारी मान कर उनको बंद करने की ठान लेता है, और अपनी सर्वज्ञता की रक्षा में उनको मिटाने पर उतर आता है।

मेरे प्रति उसकी क्या प्रतिक्रिया है इसका मुझ पर प्रभाव नहीं पड़ता। मैं अपनी आँख पर, अपने संकेतग्राही अंगोे पर और उनकी क्षमता को बढ़ाने वाले साधनों का सम्मान करता हूँ, और बार बार यह याद दिलाता रहता हूँ कि अपनी आँखों पर, अपनी बुद्धि पर भरोसा रखो, दूसरा कितना भी बुद्धिमान हो, उस पर भरोसा करने पर वह तुम्हारा उपयोग, तुम्हारा उपयोग अपने हित के लिए करेगा।

इसके अतिरिक्त, जो कुछ, किसी दूसरे द्वारा, दिया जा सकता है उसकी कभी लालसा नहीं की। केवल एक बार कई साल की अर्ध बेकारी और घोर अभाव के क्षणो मेंं जब आत्महत्या के विचार पीछा करने लगे थे, मैं अमेरिकी सूचना विभाग के बुक सेक्शन के अधिकारी से अपना परिचय देते हुए अनुवाद का काम मांगने गया था। अपनी योग्यता का परिचय देते हुए काम मांगना, या किसी पत्र या पत्रिका में अपनी कोई रचना भेजना मेरे लिए आज भी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं है। अमेरिकी एंबेसी में काम मांगना मुझे इसलिए कष्टकर लगा था कि मैं किसी दल या संगठन से जुड़ाव न रखते हुए भी अपने को जितना वामपंथी मानता था, उसमें वहाँ काम के लिए जाना शत्रु शिविर में जाने जैसा लगा था। पहली किताब एलिनोर रूजवेल्ट की जीवनी थी। अनुवाद पसंद किए जाने के बाद जब मेंने उनसे कहा मैं कम्युनिस्ट रुझान रखता हूँ इसलिए वह मुझे साहित्य और दर्शन आदि की पुस्तकें ही दें तो कृपा होगी। इसके बाद उन्होंने उन कार्डधारकों के नाम गिनाए जो उनके लिए अनुवाद करते थे तो भी मेरा आग्रह बना रहा। उन्होंने इसका सम्मान किया। उसके बाद से साहित्य, आलोचना, समाजशास्त्र, इतिहास आदि की पुस्तकें ही देते रहे। सच बोलना विषम परिस्थितियों में भी लाभकर होता है इसे बार-बार देखा है।

अपने दम पर औपनिवेशिक मानसिकता के विरुद्ध हथियार उठाने वाले मेरी जानकारी में अभी तक तीन ही लोग पैदा हुए। एक किशोरीदास वाजपेयी; दूसरे रामविलास शर्मा था। तीसरा नाम मैं नहीं लूंगा। पर एक अंतर है: रामविलास जी कम्युनिस्ट थे, पार्टी लाइन से आरंभ से ही उनकी भाषा और इतिहास दृष्टि को ले कर असहमतियाँ थी। शेष मामलों में वह पार्टी से सहमत लगते थे इसलिए यह उन्होंने कभी न कहा कि पार्टी की सोच उपनिवेशवादी है और विद्रोह के दर्शनी तेवर के बावजूद यह उपनिवेश की सेवा ही कर सकता है। इतिहास के एक खास मोड़ पर उनका विरोध आरंभ हुआ। आरोपों का उत्तर देना उनको उचित नहीं लगता था। जिसे जो कहना है कहे, हमें जो सही लगता है वह कहेंगे। उससे अलग किसी भी दबाव में कुछ भी नहीं कहेंगे। उनकी दृष्टि से अधिक उनका यह संकल्प मुझे प्रेरित करता है। उन्होंने एक ओर तो विवाद पर बर्वाद होने वाले समय का भी सर्जनात्मक उपयोग किया और दूसरे असंख्य प्रहारों के बाद भी उस तरह घुटने टेकने को तैयार न हुए जिसका सामना राहुल जी भी नहीं कर सके।

किसी को मूर्ख कहना, और या ना बताना कि आपने ऐसा कहा किस आधार पर है, उस पर नहीं, आपके ऊपर एक गर्हित टिप्पणी है। इसे कल बताएंगे।

Post – 2019-10-24

सोचिए वह भी आदमी ही था
जिसने गढ़ कर खुदा बनाया था
खुद को, खुद ही, तराश कर, देखो
अपने से कुछ जुदा बनाया था।।

Post – 2019-10-24

दिल के बिल्कुल करीब है वह चीज
जिसमें हर साँस जाती आती है।
दिल की बुजदिल भी बात करते हैं
उसकी कोई कभी नहीं करता।।

Post – 2019-10-23

आर्य वचन या आर्य मौन

मैं अपने ज्ञान से संतुष्ट नहीं हूँ। अक्सर मुझे इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध सूचनाओं का भी उपयोग करना होता है जिनमें से कुछ की विश्वसनीयता सीमित होती है। ऐसा व्यक्ति अपना पांडित्य प्रकट करने के लिए नहीं लिखा करता। जो है ही नहीं उसे प्रकट क्या करना।

जिस चीज ने मुझे कुछ लिखने और लिखते रहने का अधिकार दिया है वह एक मोटी समझ है जो समझ से अधिक एक पीड़ा है। अपने पाठकों से मैं इसे ही साझा करना चाहता हूं, पर कर नहीं पाता। कर पाता तो इसका निवारण स्वतः हो जाता।

इस विफलता से लगता है लिखना विलासिता का एक रूप जिसकी आदत पड़ जाती है तो छूटती नहीं। यह सब तब लगता है जब मैं अपने लेखों को नियमित रूप से पढ़ने वालों पर इनका कोई असर होते नहीं देखता ।

मैं शिक्षक और मनोचिकित्सक के रूप में लिखता हूं। यदि कोई शिक्षक कुछ समझाएं और जांचने पर उसे पता चले कि उसके श्रोताओं की समझ में वह बात नहीं आई है, वे जैसे थे वैसे ही रह गए हैं तो लिखने की अपनी योग्यता पर और शैली पर विश्वास कम हो जाता है।

कुछ मोटी बातें जिनका मैं स्वयं भुक्तभोगी भी हूं, उनसे बचने का अनुरोध मैं लगातार करता आया हूं। उनका नुकसान भी बताता आया हूं। मैं किसी से नफरत नहीं कर सकता। नफरत कमजोर दिमाग के लोगों का हथियार है जिनके पास किसी का विरोध करने की क्षमता नहीं होती। इसकी तुलना मैं उन जानवरों से करता हूं जो अपने बचाव के लिए इतनी तीखी दुर्गंध छोड़ते हैं की उन पर प्रहार करने वाला उसे सहन न कर पाता है और दूर हट जाता है। यह मात्र एक उपमा हुई। असलियत यह है नफरत, लोभ, क्रोध, काम जैसे उग्र आवेगों में मनुष्य का दिमाग काम नहीं करता। काम के साथ तो आतुर, क्रोध के साथ उन्मत्त विशेषण प्रत्यय के रूप में लगा कर कामातुर, क्रोधोन्मत्त, जैसे शब्द भी बनाए गए हैं जिनका मतलब है कि इनकी प्रबलता होने पर हम पागलों जैसा व्यवहार करते हैं। यही बात दूसरे प्रबल आवेगों के बारे में भी सच है।

पागल कोई नहीं होना चाहेगा। न यह चाहेगा कि लोग उसे पागल समझें। इसके बाद भी अधिकांश लोग अपने कथन और व्यवहार में इसका ध्यान नहीं रख पाते, बल्कि इनकी तरफ इतनी तेजी से लपकते हैं जैसे अपने को रोक न पा रहे हैं।

जैसे कोई अध्यापक किसी विषय को समझाने के बाद छात्रों से बीच-बीच में सवाल करके यह जानने की कोशिश करता है कि उनकी समझ में उसने जो कुछ समझाया वह आया या नहीं आया उसी तरह अपने लेखन को पसंद करने वाले लोगों के पन्ने पर जाकर मैं उनसे कुछ समझना भी चाहता हूं और यह भी देखना चाहता हूं कि उनके भाषिक आचार में, बौद्धिक संतुलन में पहले की अपेक्षा कोई अंतर आया है या नहीं। यदि उन पर किसी तरह का असर नहीं होता तो फेसबुक पर लिखने की व्यर्थता अनुभव होती ही है। अधिकांश लोग लगता है शगल के लिए लिखते हैं, समय काटने के लिए। देने वाले ने उन्हें जितनी जरूरत थी उससे अधिक समय दे दिया जिसे काटना पड़ रहा है कालिदास की तरह यह भी पता नहीं उसी डाल को काट रहे हैं जिस पर बैठे हैं।

बुद्ध ने कहा था, आर्य वाक्य या आर्य मौन। यदि हम सम्मान विवेक और गरिमा के साथ कुछ कह नहीं सकते तो गरिमा के साथ चुप तो रह ही सकते हैं।

Post – 2019-10-22

हम किसी को बुरा नहीं कहते
लोग देखो तो क्या नहीं करते।
जिस पर इतना गुरूर है तुमको
काम वह हम किया नहीं करते।

Post – 2019-10-22

हँसते थे तो इठला के बदल जाती थी दुनिया।
क्या दिन थे, आज चीखें तो जुंबिश नहीं होती।।

Post – 2019-10-22

दर्द यह है तो सही, इसमें मैं हूं तो सही
यह न होता तो मैं कहता जो लोग कहते हैं।
आप को डर अगर लगता तो बता दूँ साहब
इस नशेमन में ही महफूज बहुत रहते हैं।।

Post – 2019-10-21

#बदहवासी सी बदहवासी है

और यह महा व्याधि का रूप ले चुकी है। इसका शिकार मैं भी हूं । महा व्याधि नहीं है यह, होती तो सभी को एक ही कारण से एक ही रूप में होती। यह एक चक्रवात है जिसमें तूफाने बदगुमानी मिला हुआ है।

कई बार, कुछ समान लक्षणों वाले, अनेक व्याधियों के शिकार लोग एक जैसी या लगभग एक जैसी अनुभूति से गुजरते हैं। रोगविज्ञानियों को यह तय करने में लंबा समय लगता है की असल में बीमारी क्या है। कुछ वैसी ही स्थिति आज की बदहवासी पर भी लागू होती है।

हम अपने सभी निर्णय टेस्टट्यूब की परिशुद्धता में नहीं करते। सामाजिक विज्ञानों की प्रयोगशाला इतिहास है। इतिहास से हम केवल यह समझ सकते हैं कि ठीक वैसी ही परिस्थितियां पैदा हो तो हम वह काम न करें जिसका हमें नुकसान उठाना पड़ा था।

परंतु इतिहास स्वयं इस बात का गवाह है कि एक जैसी परिस्थितियां दुबारा पैदा नहीं होतीं, न हो सकती हैं। इसलिए हम अपने समकालीन, सम्मुखीन समस्याओं के समाधान में अतीत की कुछ गलतियों से बचने का प्रयत्न कर सकते हैं परंतु उनके आधार पर सही निर्णय नहीं ले सकते।

इतिहास में किसी भी चरण पर सभी की समस्याएं एक जैसी नहीं रही हैं। एक ही समय में, अपने ही युग के संकट को, अलग अलग हितों से जुड़े लोग, अलग-अलग रूपों में अनुभव करते रहे हैं।

इन अनुभवों के समग्र को हम उस युग का सत्य कह सकते हैं, परंतु दुर्भाग्य से इन सभी का कोई ऐसा समग्र रूप बनता नहीं, इसलिए किसी युग का कोई एक सत्य नहीं होता, जिसे हम युग सत्य कहते हैं वह उस छोटे से वर्ग के हित से जुड़ा लक्ष्य होता है जिसे हासिल करने के लिए वह उसे युगसत्य के रूप में प्रतिष्ठित करके, समस्त सामाजिक ऊर्जा को उस दिशा में मोड़ कर, उसे हासिल करना और अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहता है।

एक ही समय में, एक ही समाज के एक वर्ग का सत्य दूसरे का झूठ होता है और दूसरे का सत्य इसके लिए झूठ होता है। झूठ का अर्थ होता है, जो एक को दिखाई देता है, दूसरे को दिखाई नही देता।