Post – 2020-07-15

#शब्दवेध(83)

मैं सभ्यता को मानव मात्र की साझी विरासत मानता हूँ और इसी रूप में इसको प्रस्तुत करने की हिमायत करता हूँ वह इसलिए कि ऐसे इतिहास से ही वह वैज्ञानिक समझ पैदा हो सकती है जिससे मानव समाज की व्याधियों और विकृतियों का सही निदान और उपचार संभव है। जो अमृत बन सकता था उसका हम विष बना कर सेवन करते रहे। अपार वैज्ञानिक प्रगति के समानान्तर सामाजिक समझ दयनीय होती चली गई। तार्किक कौशल के बाद भी समझ के स्तर पर पिछड़ते गए, सूचना के साधनों और माध्यमों में अकल्पनीय प्रगति के समानान्तर झूठ, पाखंड और भ्रम के पहाड़ खड़े होते गए और इन सभी विफलताओं का एकमात्र कारण है लोभ, स्वार्थ, अहंकार का बढ़ते जाना। इसके कारण ज्ञान का विवेक बनने की जगह चतुराई में रूपान्तरित होते जाना। बाह्य प्रकृति पर विजय के अनुपात में ही अंतःप्रकृति के समक्ष पराजित होते जाना। बौद्धिक ऊर्जा का विवेक-विरोधी उपक्रमों पर बर्वाद होते रहना। सत्य की खोज के नाम पर सत्य को झुठलाने पर व्यर्थ होते रहना। केवल एक झूठ को लें जिसे सही ठहराने के लिए तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के नाम पर यह जानते हुए कि इसकी एक एक कड़ी गलत है, अनुसंधान, अध्ययन, अध्यापन के नाम पर कितने अनुशासनों के ज्ञान का सत्यानाश कर दिया गया।

परंतु यह सचाई मुझ जैसे कामचलाऊ जानकारी रखने वाले की पकड़ में आ जाए, कोई दूसरा इसे उस रूप में भाँप न पाए, यह मेरे लिए भी आश्चर्य की बात है और मेरे लिए अगम्य क्षेत्रों के धुरीण पंडितों का मुझसे पाला पड़ता है तो उन्हें भी आश्चर्य होता है। पिन की नोक से गुब्बारे की जो दशा होती है वही दशा उनकी होती है। कारण सीधा सा है, वे जिस कहानी को इतिहास मान कर आजीवन काम करते और नाम कमाते रहे उसमें छेद ही छेद हैं और उनकी याद दिलाते ही उनकी आँखें फटी की फटी रह जाती हैं कि इस ओर उनका ध्यान पहले क्यों न गया।

अपराध वहाँ होता है जब साक्ष्यों की उपेक्षा की जाती है, साक्ष्य जो कुछ कहते हैं आप उसके विपरीत नतीजों पर पहले ही पहुँचे होते है और विश्वास करते है कि आप बुद्धिबल से उनसे जो चाहें सिद्ध कर सकते हैं। आज तक यही किया जाता रहा है और आप यह सोच कर कि जब इतने लंबे समय से इसे माना जाता रहा है, या यदि इतने बड़े विद्वान ऐसा मानते आए हैं तो इसे मान ही लेना चाहिए, हर बात की नए सिरे से जाँच संभव भी तो नहीं और यह जिन भी आग्रहों के कारण अब तक जो चलता आया हैं, उसे जारी रखना चाहिए। परिणाम होता है झूठ का पहाड़ ऊँचा होता चला जाता है और हम इसे ही ज्ञान मान लेते हैं।

निम्न पंक्तियों पर ध्यान दें:
“It is well known with reasonable certainty that the Italian and the Greek Peninsulas were colonised from the north. The occupation of France and the and British isles by Celts from Central Europe occurred at a comparatively late date (C. 500 BC.). The Iberian Peninsula remained predominantly non-Indo-European, and in modern Basque there still exists a survival of pre-Indo-European speech. (T. Burrow, The Sanskrit Language, Faber and Faber, 1956, p. 10).

अब गौर करें कि जिनके अपने ही घर का ठिकाना नहीं था, उनमें से सभी अपने को सच्चा आर्य सिद्ध करना चाहते हैं और वहाँ से निकल कर उन लोगों को अपने उस घर को पहुँचा सिद्ध करना चाहते हैं जिसके विषय में उनका विश्वास रहा है कि वे सृष्टि के आदि से ही उस देश में हैं, और आप ‘शालीनता’ के मूर्तरूप सिद्ध होने के लिए उनके कहीं से भी आने की कहानी को सच मान भी लेते हैं।

जब इस बात मे प्रमाण मिलते हैं कि लघु एशिया और प्रांतर क्षेत्र में वैदिक भाषा बोलने वालों, वैदिक देवों को मानने वालों, वैदिक मूल्यों पर आचरण करने वालों का समाज में सम्मान और सत्ता पर अधिकार था तो पहले इसे इंडो-आर्यन बताया जाता है, फिर इसको इंडोहित्ताइत की संज्ञा देते हुए इसे भारतीय आर्यभाषा से पुराना बताया जाने लगता है, और सिद्ध किया जाने लगता है कि भारत में वैदिक भाषा बोलने और वेदों की रचना करने वाले वहीं से आए हो सकते हैं, तो दुबारा आप बौद्धिक निष्कृयता वश मान कर उसी के अनुसार सोचने लगते हैं। इंडो हित्ताइत की जननी भाषा – प्रोटाे अनातोलियन की भी कल्पना करके इसके साक्ष्य तैयार किए जाने लगते हैं कि यह सदा से यहीं थीऔर आप भकुआए देखते और मानते चले जाते हैं और उस सचाई पर नजर तक नहीं डालते कि अकाट्य साक्ष्यों के अनुसार अधिक से अधिक 2000 ई.पू. में पहले से चले आ रहे अश्व-व्यापार के चलते असीरियनों को बिचवई से हटा कर इस व्यापार में पहल भारतीय व्पापारी ले लेते हैं और उनके व्यापारिक नगर कानेस (Kanes) पर अपनी आढ़त कायम कर लेते है। मामला व्यापार का है तो इसमें किसी एक जाति – उसे आर्य कहें या क्षत्रिय – का नहीं हो सकता। इसमें स्वामिवर्ग के साथ सहकारी और अनुचर वर्ग भी शामिल था, इसलिए अश्वपालन पर पुस्तिका लिखने वाले का नाम हम किक्कुली पाते हैं जिसकी पहचान बहुत स्पष्ट है। अब समस्या केवल वैदिक भाषा की रह ही नहीं जाती। जैसा हम लगातार याद दिलाते आए हैं इसमें भले संपर्क भाषा वैदिक के निकट रही हो पर अपने दायरे में वे अपनी बोलियाँ बोलते और अपने देवी देवता मानते थे। अतः कोई भी कितने भी जोगाड़ से तैयार किया गया तर्क जो वैदिक भाषा और देवशास्त्र से आगे न बढ़ पाता हो, तैयार करे वह अधर में लटका रहेगा। जब सचाई सामने आएगी तो भारतीय मूलभूमि की पहचान दिन की रोशनी की तरह साफ हो जाएगी।

अब इस संदर्भ में आप उस घोड़े के मुँह से सचाई पर नजर डालिए जिसने यह सारा बखेड़ा शुरू किया था:

..,we come again to the coast the Mediterranean, and the principal nations of antiquity, who first demand our attention, are the Greeks and the Phrygians, who though differing somewhat in manners, and perhaps in dialect, had an apparent affinity in religion and language; the Dorian, Ionian and Elian families having migrated from Europe, to which it is universally agreed that they first passed from Egypt…. I shall only observe, on the authority of the Greeks, that the grand object of mysterious worship in that of the Mother of the Gods, or Nature personified as we see her among the Indians in a thousand forms and under a thousand names. She was called in the Phrysian dialect MA (माँ), and represented in a car drawn by lions, with a drum in her hand, and a towered coronet on her head: her mysteries (which seem to be alluded to in the Masaick law) are solemnized at the autumnal equinox in these provinces where she is named MA (माँ), is adored in all of them, as the Great Mother, is figured sitting on a lion, and appears in some of her temples with a diadem or mitre of turrets: a drum is called dimdima (डिमडिमा) both in Sanskrit and Phrygian and the title of Dindymne seems rather derived from that word, than from the name of a mountain. The Diana of Ephesus was manifestly the same goddess in the character of productive Nature, and the Astarte of the Syrians and Phoenicians (to whom we now return) was I doubt not, the same in another form. (विलियम जोंस, एशियाटिक रिसर्चेज, खंड 3, Anniversary Discourse, 24 Feb.1791, पृ. 13-14.

Post – 2020-07-14

विश्वसभ्यता और भारत

इतिहास के अध्ययन की एक ही वैज्ञानिक विधि हो सकती है और वह है समग्र मानवता का इतिहास और उसके विकास के रूपों, अवरोधों, ह्रास और विलोप के कारणों. कारकों और परिस्थितियों का विवेचन – अर्थात् विवेकपूर्वक प्रस्तुतीकरण इसके अभाव में इतिहास का लेखन नस्लवादी, भाववादी या क्षेत्रवादी पूर्वाग्ग्रहों से ग्रस्त अर्थात् विषाक्त होने को बाध्य है।

मैं जिस भारत को सभ्यता का जनक मानता हूँ वह अपनी भौगोलिक परिस्थितियों के कारण विश्व का वह भाग था, जिसने विगत हिमयुग में, हिमानी प्रकोप से प्राण रक्षा के लिए, अकल्पनीय दूरियों और परिस्थितियों से जीते-मरते आ कर शरण ली थी। ये कोरे नहीं थे। इन्होंने अपनी पिछली परिस्थितियों में, जीवन यापन के लिए अकल्पनीय युक्तियों और कौशलों और औजारों का विकास, किया था और आपसी संचार के लिए अकल्पनीय वाचिक संकेत-प्रणालियों का विकास किया था जिसे हम समझ के फेर से कभी भाषा कहते हैं, कभी बोली। थी ये भाषाएँ ही क्योंकि भाषाविज्ञानी सिरफिरों की कल्पना की किसी प्रोटोटाइप के विघटन से इनका जन्म नहीं हुआ था, यद्यपि इनके जत्थों के टूटने, सुदूर भिन्न भाषाई परिवेश में अपना अटन या निवास क्षेत्र कायम करने और अकल्पनीय अवधि के बाद, अकल्पनीय कारणों से उनसे मेलजोल बढ़ने या विलय के बाद दोनों के तत्वों को समेटने वाली एक नई भाषा पैदा होती गई थी पर थी यह भी भाषा न कि डाइलेक्ट।

हम जिस तथ्य पर बल देना चाहते हैं वह यह कि महाप्रकृति ने जैसे अपनी एक योजना के अंतर्गत विश्व मानवता को भारतीय भूभाग में इस निमित्त एकत्र कर लिया हो कि परस्पर मिल कर अपनी समस्याओं का हल निकालो।

कहें विश्व मानवता ने किन्हीं विशेष परिस्थितियों में भारत में एकत्र हो कर उस रहस्यमय चीज का आविष्कार किया जिसे विश्व सभ्यता कहते हैं। इसके विकास में समग्र मानवता का योगदान था। जैसे किसी विचार-विमर्श के लिए हम किसी सुविधाजनक स्थान पर गोष्ठियाँ करते है और जिस भी नतीजे या मतभेद पर पहुँचते हैं उसमें उस स्थान की भूमिका नहीं होती, विचार विमर्श में भाग लेने वाले लोगों की होती है उसी तरह भारतीय सभ्यता का अर्थ भी विश्वमानवों द्वारा आविष्कृत दक्षताओं का प्रसार और स्वीकार है। उसका श्रेय समग्र मानवता को है।

Post – 2020-07-14

शब्दवेध(82)
भारत और यूनान
(संशोधित पाठ। संपादन अभी संभव नहीं)

ग्रीस नाम रोमनों का दिया हुआ है। ग्रीक लोग अपने को हेल्ला कहते थे।
The Greeks called themselves Hellenes and their land was Hellas. The name ‘Greeks’ was given to the people of Greece later by the Romans. (The early history of ancient Greece)
भारत में ग्रीस के लिए यूनान शब्द का प्रयोग होता रहा है और ग्रीक जनों के लिए यवन शब्द प्रचलित था। यह शब्द आयोनिया के निवासियों के लिए प्रयोग में आया जो एशिया (वर्तमान तुर्की) में था। पश्चिम एशिया में प्रभावशाली वैदिक भाषियों के संपर्क में यहाँ की बोली ने ग्रीक बोली का रूप लिया था। ग्रीस के दूसरे जनों की अपनी-अपनी बोलियां थीं। इनके बीच संस्कृत का प्रवेश कैसे हुआ इसका संकेत विलियम जोंस ने यूरोपीय परंपरा के आधार पर दिया था जो कुछ इकहरा होते हुए भी सचाई के अधिक निकट है। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि लघु एशिया में प्रचलित तथा कथित इंडो हित्ताइत के प्रभाव से ग्रीस और रोम की भाषाओं में परिवर्तन हुआ और उन्होंने अपने पुराने भाषाई उपस्तर के अनुरूप पृथक रूप लिया।
यूनान और रोम में यह प्रवेश पहले सीधे जल मार्ग से हुआ था इसलिए जाहिर है, मुख्य भूमि से पहले द्वीपों – कृत (क्रीत) माइसीन, आदि का भारोपीकरण हुआ। इसकी काल रेखा को समझने में क्रीत (Crete) हमारी मदद कर सकता है जिसका मानव वंश (Minoans) सबसे पुराना बताया जाता है।[1]

यूनानियों की जो बात मुझे आकर्षित करती है, वह है, उनकी अक्खड़ता। एक ओर वे भारोपीय भाषा, संस्कृति को आत्मसात कर रहे थे, तो दूसरी ओर उनके सामने झुकने को तैयार न थे। इसे प्रथमतः चरवाही करने वाले और खेती से परिचय के बाद स्थायी जीवन अपनाने वाले गूजरों, जाटों, यादवों, आभीरों के दबंग स्वभाव से समझा जा सकता है। आन के लिए वे आपसी विरोध भूल कर एक साथ हो जाते थे। इसका नमूना यूनानी राज्य स्पार्टा और और हित्ताइत त्राय का टकराव में देखने में आता है।[2] हुआ यह कि स्पार्टा के राजा की पत्नी हेलेन का, त्राय के राजा पारी ने अपहरण कर लिया। यह अपहरण लगता है हित्तियों और यूनानियों के बीच इज्जत का सवाल बन गया और इसके बाद यूनानियों के सारे कबीले एकजुट हो कर उसे वापस पाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ते रहे।[3] इसका अंत भले यूनानियों की विजय में हुआ हो पर इसके बाद ऐसी तबाही आई कि युनानी तीन चार सौ साल के लिए ऐसी दशा में चले गए कि इसे ग्रीस का अंधकार युग कहा जाता है।[4]

जिसे अंधकार युग कहा जाता है वह एक ओर तो पराभव का काल था तो दूसरी ओर एक नई संगबुगाहट और चरवाही से आगे बढ़ कर व्यापारिक गतिविधियों में भागीदारी का भी जिसमें ग्रीक भाषा के संपर्कसूत्र दूर दूर तक जुड़े।[5]

हम इस बात को पहले रेखांकित करते रहे हैं कि सभ्यता का आधार सामरिक विजय नहीं आर्थिक गतिविधियाँ हैं और इसलिए यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि आठवी शताब्दी ई.पू. से आरंभ होने वाली ओजस्वता इसी की देन थी। इस चिंतन का सारा कच्चा माल भारतीय था जिसका बहुत कुछ उस अंधकार युग में खो या बिखर गया था और संभवतः यह भी बिसर गया हो कि यह आधार सामग्री आई कहाँ से या कैसे है।
इस संदर्भ में यह नहीं भूलना चाहिए कि:न
1. ग्रीक का संस्कृत से सबसे निकट का संबंध है। इसका तथाकथित केंटुम शाखा से, जिसे रोमन, जर्मन और केल्टिक की विशेषता माना जाता है और जिसे पुरानी सिद्ध करने के लिए तमाम खींच-तान की जाती रही है, बहुत कम नाता है। Greek shows little sign of close connection with any other Centum groups. On the Other hand its closest connection appears to be with the Satem languages, particularly with Indo-Iranian and Armenian. It is sufficient to glance through a comparative grammar of Sanskrit to see that the correspondences between Sanskrit and Greek are more numerous than those between Sanskrit and any other languages in the family, outside the Indo-Iranian.[6]

2. ग्रीस और भारत में इतनी गहरी समानताएं हैं जो किसी अन्य देश के साथ नहीं मिलती। ऐसा लगता है संस्कृत और ग्रीक परंपरा एक ही मूल स्रोत से जुड़ी हुई है।

ग्रीक काल से ही भारत (एशियाइयों) के प्रति गहरी चिढ़ देखने में आती है जो उस विकट युद्ध और उसके बाद की अधोगित का जातीय चेतना पर असर प्रतीत होता है जिससे वे उस लंबी यातना से गुजरे थे।

विद्वान लोगों द्वारा इसके स्रोताें पर परदा डाल कर एक ओर तो उनके प्रत्येक विचार को उनकी मौलिक देन सिद्ध किया जाता रहा और दूसरी ओर भारतीय उपब्धियों में खोट और यूनान जहाँ इतला लचर है कि दोनों में कोई तुलना संभव ही नहीं, वहाँ भी उसमें कुछ अनूठापन तलाश करते हुए उसे अधिक श्रेयस्कर बताया जाता रहा है।
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[1]The Minoans were the first great Greek civilisation. They didn’t live on mainland Greece but on the nearby island of Crete, between 2200BC and 1450BC. They were known as the Minoans after their legendary king, Minos.
[2] त्राय का युद्ध महाभारत के युद्ध से इतना मिलता जुलता है कि लंबे समय तक यह बहस चलती रही कि महाभारत की रचना ईलियड के अनुकरण पर की गई है। ईलियड के रचनाकार होमेरस (सोमरस?) था जिसे रोमनों ने होमर बना दिया। जिस तरह महाभारत के रचनाकार के रूप में एक काल्पनिक नाम माना जाता है उसी तरह होमर को भी ईलियड के रचनाकार का श्रेय नहीं दिया जाता । दोनों के मामले में यह माना जाता है कि इसकी कथाओं का गायन मौखिक होता आया था जिसे इन्होंने संकलित करके महाकाव्य का रूप दे दिया।
[3] …an expedition to reclaim Helen, wife of Menelaus, king of Sparta, and brother of Agamemnon….Helen was abducted by the Trojan prince Paris (also known as Alexandros)
A conflict between Mycenaeans and Hittites might have occurred.
फिर भी जब किले को तोड़ नहीं
[4] The period between the catastrophic end of the Mycenaean civilization and about 900 BCE is often called a Dark Age. It was a time about which Greeks of the Classical age had confused and actually false notions.(Encyclopedia Britanica.)
During the Dark Ages of Greece the old major settlements were abandoned (with the notable exception of Athens), and the population dropped dramatically in numbers. Within these three hundred years, the people of Greece lived in small groups that moved constantly in accordance with their new pastoral lifestyle and livestock needs, while they left no written record behind leading to the conclusion that they were illiterate.
[5] … colonies scattered around the Mediterranean Sea. There were Greeks in Italy, Sicily, Turkey, North Africa, and as far west as France.
They sailed the sea to trade and find new lands. The Greeks took their ideas with them and they started a way of life that’s similar to the one we have today
[6] T. Burrow, The Sanskrit Language, Faber and Faber, 1956, p. 15

Post – 2020-07-13

#शब्दवेध(82)
भारत और यूनान

हम यहाँ यूनान शब्द का प्रयोग ग्रीक के अर्थ में कर रहे हैं न कि आयोनिया के लिए जो एशिया (वर्तमान तुर्की) में था, जहाँ की स्थानीय बोली ने, वहाँ प्रभुत्व जमाए वैदिक भाषियों के संपर्क में पहले ग्रीक बोली का रूप लिया था। उसी के नाम का अर्थ-विस्तार भारत में ग्रीस (यूनान) और ग्रीक (यूनानी/ यवन) के लिए हुआ। फिर यवन का प्रयोग पश्चिम के दूसरे लोगों के लिए (विधर्मी) के आशय में भी प्रचलित हुआ।

यूनानियों की जो बात मुझे आकर्षित करती है, वह है, उनकी अक्खड़ता। एक ओर वे भारोपीय भाषा, संस्कृति को आत्मसात कर रहे थे, तो दूसरी ओर उनके सामने झुकने को तैयार न थे। इसे प्रथमतः चरवाही करने वाले और खेती से परिचय के बाद स्थायी जीवन अपनाने वाले गूजरों, जाटों, यादवों, आभीरों के दबंग स्वभाव से समझा जा सकता है। यही दबंगई मध्येशिया की चरवाही जमातों में देखने में आता है। आन के लिए वे आपसी विरोध भूल कर एक साथ हो जाते थे। इसका नमूना स्पार्टा और त्राय का टकराव है। हुआ यह कि स्पार्टा के राजा, (जो ईलियड के नायक आगमेनन का भाई था) की पत्नी का, जिसे हेलेन नाम से जाना जाता है, त्राय के मनचले राजा पारी (इसके लिए प्रियम् नाम भी प्रचलित है) अपहरण कर लिया। वह अनन्य सुंदरी थी।

हेलेन का हमारे लिए अर्थ है, ग्रीक युवती। ग्रीक नाम रोमनों ने दिया था, वे स्वयं अपने को हेल्ला कहते थे, और इसलिए हेलेन उसका नाम नहीं विशेषण है। यह अपहरण लगता है हित्तियों और यूनानियों के बीच इज्जत का सवाल बन गया और इसके बाद यूनानियों के सारे कबीले एकजुट हो कर बदले के लिए लंबी लड़ाई मोल लेते हैं:
an expedition to reclaim Helen, wife of Menelaus, king of Sparta, and brother of Agamemnon….Helen was abducted by the Trojan prince Paris (also known as Alexandros)
A conflict between Mycenaeans and Hittites might have occurred.फिर भी जब किले को तोड़ नहीं पाते हैं तो लकड़ी के नकली घोड़े में छिप कर कैसे किले के भीतर पहुँचते हैं, इस कथा से हम परिचित हैं। जिन दो बातों से कम लोग परिचित होंगे उनमें से एक यह कि ईलियड को रचनाकार का नाम होमेरस (सोमरस) था, जिसे रोमनों ने होमर बना दिया। दूसरी इस युद्ध के बाद चार सौ साल के लिए ग्रीस अंधकार युग में चला जाता है। युद्ध में जीतने वाले भी बर्वाद होते हैं यह यथार्थ कई युद्धों की एकमात्र शिक्षा है।
The period between the catastrophic end of the Mycenaean civilization and about 900 BCE is often called a Dark Age. It was a time about which Greeks of the Classical age had confused and actually false notions.(Encyclopedia Britanica.)
During the Dark Ages of Greece the old major settlements were abandoned (with the notable exception of Athens), and the population dropped dramatically in numbers. Within these three hundred years, the people of Greece lived in small groups that moved constantly in accordance with their new pastoral lifestyle and livestock needs, while they left no written record behind leading to the conclusion that they were illiterate. Later in the Dark Ages (between 950 and 750 BCE), Greeks relearned how to write once again, but this time instead of using the Linear B script used by the Mycenaeans, they adopted the alphabet used by the Phoenicians “innovating in a fundamental way by introducing vowels as letters. The Greek version of the alphabet eventually formed the base of the alphabet used for English today.” (Martin, 43) (History of Greece: The Dark Ages, Ancient-Greece.Org.)
मेरी यूनानी इतिहास की जानकारी कम है पर यह समस्या मुझे परेशान करती रही है कि आखिर जिस एशिया (पश्चिम एशिया में रुतबे के साथ बसे भारतीय ही उनके एशिया थे क्योंकि आगे की जड़ों का उन्हें पता न था, पर तब से आज तक जब यूरोप को एशिया और भारत का अंतर पूरी तरह मालूम है, व्याज रूप में भारतीयों को एशियाई कह कर जुगुप्सा व्यक्त की जाती रही है और हम इसके निहितार्थ को समझने में शिथिलता से काम लेते रहे हैं।

जो भी हो हमारे पास इसका कोई समाधान नहीं है परंतु इसे एक प्रश्न के रूप में अपनी चेतना में अवश्य रखा जाना चाहिए कि ग्रीक काल से आरंभ भारत-विह्वलता और भारतद्वेष की निरंतरता – तुम्हीं से मोहब्बत तुम्हीं से लड़ाई/ यह इतिहास है या तुम्हारी खुदाई/ जहाँ तुम की तुम हो न मेरी रसाई/ अरे मार डाला दुहाई दुहाई।

हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जिसमें उपलब्ध सुविधाओं के कारण हमारी पैसिविटी बढ़ृूूी है जिसमें गूगल जैसी प्रचार और पहुँच क्षमता वाले संगठनों के द्वारा यूरोपीय श्रेष्ठता का एक नया अध्याय आरंभ हो चुका है जो नाजियों द्वारा अपने को शुद्ध-रक्त-आर्य सिद्ध करने के लिए तैयार किए गए इतिहास से अधिक खतरनाक है। मैं अपनी याददाश्त की कमी और पुस्तकालयों तक पहुँचने की क्षमता और कुछ आलस्यवश भी इंटरनेट सुविधाओं का यथासंभव लाभ उठाता रहता हूँ और जब इसकी जाँच करने के लिए कि ग्रीक उस क्षेत्र में उत्तर से कहां से आए थे तो उनसे अनेक स्रोतों से उपलब्ध सूचनाओं का स्पष्ट कथन था कि वे अनादि काल से वहीं है.
The Greeks called themselves Hellenes and their land was Hellas. The name ‘Greeks’ was given to the people of Greece later by the Romans. They lived in mainland Greece and the Greek islands, but also in colonies scattered around the Mediterranean Sea. There were Greeks in Italy, Sicily, Turkey, North Africa, and as far west as France
They sailed the sea to trade and find new lands. The Greeks took their ideas with them and they started a way of life that’s similar to the one we have today.
People have been living in Greece for over 40,000 years. The earliest settlers mostly lived a simple hunter-gatherer or farming lifestyle.
The Minoans were the first great Greek civilisation. They didn’t live on mainland Greece but on the nearby island of Crete, between 2200BC and 1450BC. They were known as the Minoans after their legendary king, Minos. (The early history of ancient Greece)
मैं तो इस बात की जाँच करना चाहता था कि यदि वे उत्तरी यूरोप से आए थे तो ग्रीस तक पहुँचने के रास्ते में मिस्र कैसे पड़ गया जो मेरी स्मृति में कहीं था। और लीजिए, इस बीच मेरी पूरी ज्ञान व्यवस्था ही बदल गई।
और फिर आलस्य त्याग कर अपने नोट तलाशने आरंभ किए तो जो तथ्य सामने आया वह यह कि हमारे आलस्य और साधनहीनता का लाभ उठा कर सहज सुलभ सूचनाओं से हमें शिक्षित किया जा रहा है या रोबोट बनाया जा रहा है।
यह पेचीदा समस्या है, इस पर कल।

Post – 2020-07-13

हम राजनीतिक रूप में चालबाजी की कमी के कारण, चाणक्य के सुझावों को अपनी जीवनचर्या में न उतार पाने के कारण, पराधीन हुए, शौर्य की कमी के कारण नहीं। सांस्कृतिक रूप में हम दुनिया के किसी अन्य देश से आगे थे। पश्चिम का आधुनिक अठारहवीं सदी के बाद से -भारत का कितना ऋणी है, इसका हम सही अनुमान नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने जो कुछ लिया उसे आत्मसात करके अपना बना लिया और अपना बताते रहे। य़हाँ तक कि हमारी भाषा तक को अपनी भाषा सिद्ध करने के प्रयत्न में लगे रहे। उनके संपर्क में आने के बाद वही काम हमने नहीं किया।

हमारी एक लंबी- दुनिया में सबसे लंबी, दस हजार साल की – सांस्कृतिक परंपरा रही है जिसमें अपनी संचार प्रणाली में अद्भुत प्रयोग किए – 1. जन्तुकथाओं के माध्यम से गहन विचारों को जन जन तक पहुँचाने का तरीका जिसकी परंपरा बहुत पीछे जाती है, पर प्रमाण ऋग्वेद से और हड़प्पा सभ्यता के अवशेषों से मिलने लगते हैं; 2. देव कथाएँ जिनके शिक्षा शास्त्रीय और सौंदर्य शास्त्रीय महत्व को समझा ही न गया (जिनकी समझ के भरोसे बैठे रहे उनकी रुचि खिल्ली उड़ाने में अधिक समझने में कम थी); 3. दो पंक्तियों में किसी विचार को व्यक्त करके अविकल रूप में स्मरणीय बनाने का प्रयत्न जिसका परिणाम था कई हजार साल के लेखन पूर्व के इतिहास का सुरक्षित रह जाना, जो अपनी ‘सटीकता’ में विस्मयकारी लगता है।

लेखन के बाद का साहित्य भी प्राचीनता से ले कर गुणवत्ता की दृष्टि से हेय न था और प्रथम परिचय में ही किसी को चकित करने के लिए काफी था। हमारा समाज इसी में पगा था। उस तक पहुँचने के नए प्रयोग इसकी प्रकृति की रक्षा करते ही संभव था। पश्चिम से सीखने को एक ही चीज थी जिसके सम्यक विकास न हो पाया था। यह था गद्य। हमारा गद्य काव्यात्मक या सूत्रपरक रह गया था।

पर हम अपना आपा भूल कर आत्मसात्करण के स्थान पर सांस्कृतिक परकायप्रवेश में जुट गए और अपने घर से इतने दूर बढ़ आए हैं कि गलती का अहसास हो भी तो लौटने का रास्ता न मिल सके।

Post – 2020-07-13

रोना भी मुसीबत में किसी काम न आया

मैं अक्सर अपनी बात ठीक-ठीक समझा नहीं पाता। गलतियाँ तो इतनी छूट जाती हैं कि उसके बाद भी लेख में से कुछ निकाल लेने वालों को सदाशयी मानता हूँ। मैंने जब अपने समानधर्मियों के औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर न निकल पाने पर लेखन में रोने की, बार एक ही शिकायत के बने रहने की, बात की तो कुछ मित्रों को लगा मैं निजी विफलता की बात कर रहा हूँ।

मेरी लड़ाई मेरी नहीं, हमारी रही है। यही कारण रहा कि मैं लगभग प्रत्येक शोधकार्य के विषय में विषय से सीधे जुड़े लोगों से आग्रह करता रहा कि इसे वे लिखते तो अधिक अच्छा होता। मेरी चिंता इसीलिए स्वतंत्र होने के साथ सास्कृतिक परजीविता के आरंभ हो जाने से जुड़ती है। खिन्नता बुद्धिजीवी के रूप में हमारी सामूहिक विफलता से उत्पन्न है। हमारी आवाज जिन माध्यमों – पत्र, पत्रिका, साहित्य, कला विधाएँ – नाटक, सिनेना, चित्रकला- से समाज तक पहुँचती रही है उन पर वह समाज विश्वास खो चुका है, क्योंकि उनमें वह अपने को नहीं पाता। अपने तक पहुँचने की चिंता तक नहीं। य़ह एक बड़ी त्रासदी है जिसे मैं ठीक से समझा नहीं पाया। मेरा रोना निजी विफलता पर रोना नहीं है, बुद्धिजीवी वर्ग के अपने ही समाज के लिए व्यर्थ हो जाने की और इस व्यर्थता के बोध तक के अभाव पर रोना है। जिस लड़ाई को मैंने जारी रखा उसे आगे बढ़ाने वाला, मेरी अपनी कमियों को सुधारने वाला कोई नजर न आने पर रोना है।

Post – 2020-07-11

सामान्य बोध यह है कि यदि दो सभ्यताओं में बहुमुखी समानताएँ दिखाई देती हैं, तो इसका अर्थ है समानता रखने वाले मामले मे दोनों में से कोई एक दूसरे का ऋणी है। सभ्यता के मामले में ऋणी होना दोष नहीं, गुण है। दोष यह तभी बनता है जब उसको अपने दुर्बल या निष्क्रिय उपापचय तंत्र के कारण उसे पचा कर अपनी शक्ति में नहीं बदल पाते। कायिक अजीर्णता की तरह सांस्कृतिक अजीर्णता भी हमारी निजी शक्ति का क्षय करती है और कभी कभी मृत्यु तक का कारण बन जाती है। भारत, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का भारत, जिसे अंग्रेजी शिक्षा के कारण ‘विश्व’ मानता था, उसके समकक्ष आने की स्पर्धा में, पहले अपने को राजनीतिक अधीनता मे रखने वालों की समकक्षता में आने प्रयत्न मे अपने सांस्कृतिक उपापचय तंत्र की उपेक्षा करते हुए वमन करने के लिए उनका अपाच्य और दु्ष्पाच्य भी अधातुर की तरह निगलते रहे और आज सांस्कृतिक अकाल मृत्यु के शिकार हैं। हम जिस पश्चिम के समक्ष आना चाहते हैं, वह मुक्तिबोध के स्वर में कहता है, कोशिश करो़! कोशिश करो!! जमीन मेे गड़ कर भी, हम तक पहुँचने की कोशिश करो!!! और हम लगातार कोशिश कर रहे हैं।

1970 से बाद का मेरा समूचा लेखन, वह किसी भी विधा में हो, औपनिवेशिक मानसिकता, असमानता और अन्याय के सभी रूपों के विरुद्ध रहा है। मैं कभी कभी कह और लिख बैठता था, “लिखना मेरे लिए (वेचिरिक) युद्ध है। I write to fight. और अब 90 के साल मे प्रवेश के साथ कहता किसी से नहीं, बचपन से छिप कर रोने का अभ्यास जो किया है, पर जिंदगी भर की है, पर रोना किसी को दिखाई नहीं देता। लिखने से अपने को रोक नहीं पाता पर मन में सोचता हूँ, मैं सूखी आँखों से रोने के लिए लिखता हूँ – I write to weep without tears!
हम अपने समाज से कट चुके है। हमारी आवाज हमारे समाज तक नहीं पहुँच पाती, समाज की आवाज हम सुन नहीं पाते। दुनिया का कोई समाज अपने विरुद्ध खड़ा नहीं होता। इसका दूसरा नाम आत्महत्या है। हम आत्महत्या के लिए कृतसंकल्प समाज के वाचाल प्रवक्ता हैं जिनकी लिखावट आत्महत्या के बाद खोली र पढ़ी जाएगी।

Post – 2020-07-11

सामान्य बोध यह है कि यदि दो सभ्यताओं में बहुमुखी समानताएँ दिखाई देती हैं, तो इसका अर्थ है समानता रखने वाले मामले मे दोनों में से कोई एक दूसरे का ऋणी है। सभ्यता के मामले में ऋणी होना दोष नहीं, गुण है। दोष यह तभी बनता है जब हम अपने दुर्बल या निष्क्रिय उपापचय तंत्र के कारण उसे पचा कर अपनी शक्ति में नहीं बदल पाते। कायिक अजीर्णता की तरह सांस्कृतिक अजीर्णता भी हमारी निजी शक्ति का क्षय करती है और कभी कभी मृत्यु तक का कारण बन जाती है।

भारत, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का भारत, जिसे अंग्रेजी शिक्षा के कारण ‘विश्व’ मानता था, उसके समकक्ष आने की स्पर्धा में, पहले अपने को राजनीतिक अधीनता मे रखने वालों की समकक्षता में आने के प्रयत्न में, अपने सांस्कृतिक उपापचय तंत्र का ध्यान न रखते हुए, उनका अपाच्य और दु्ष्पाच्य भी अधातुर की तरह निगलता रहा और आज सांस्कृतिक अकाल मृत्यु का शिकार है।

हम जिस पश्चिम के समक्ष आना चाहते हैं, वह मुक्तिबोध के स्वर में कहता है, कोशिश करो़! कोशिश करो!! जमीन मेे गड़ कर भी, हम तक पहुँचने की कोशिश करो!!! और हम लगातार कोशिश कर रहे हैं।

1970 से बाद का मेरा समूचा लेखन, वह किसी भी विधा में हो, औपनिवेशिक मानसिकता, असमानता और अन्याय के सभी रूपों के विरुद्ध रहा है। मैं कभी कभी कह और लिख बैठता था, “लिखना मेरे लिए (वेचिरिक) युद्ध है। I write to fight. और अब 90 के साल मे प्रवेश के साथ कहता किसी से नहीं, बचपन से छिप कर रोने का अभ्यास जो किया है, रोना किसी को दिखाई नहीं देता। लिखने से अपने को रोक नहीं पाता पर मन में सोचता हूँ, मैं सूखी आँखों से रोने के लिए लिखता हूँ – I write to weep without tears!

हम अपने समाज से कट चुके है। हमारी आवाज हमारे समाज तक नहीं पहुँच पाती, समाज की आवाज हम सुन नहीं पाते। दुनिया का कोई समाज अपने विरुद्ध खड़ा नहीं होता। इसका दूसरा नाम आत्महत्या है। हम आत्महत्या के लिए कृतसंकल्प समाज के वाचाल प्रवक्ता हैं जिनकी लिखावट आत्महत्या के बाद खोली और पढ़ी जाएगी।