मूर्खता के कीर्तिमान
”तुम्हारी कुछ बातें मुझे भी चिन्तित करती है, परन्तु यदि तुम आज के संघ को उस हिन्दू समाज का प्रतिनिधि मानते हो जिसमें बहुलता के प्रति सम्मान था, समावेशिता थी तो गलती करते हो । इसका गठन भले आत्मरक्षा के लिए हुआ हो, परन्तु इसकी आत्मा सामी है। उसी की नकल पर इसे गठित किया गया और समझदारी से काम नहींं लिया गया। यह जितना काम नहीं करता उससे अधिक दिखावा और शोर करता है और यदि यह डरावना न भी हो तो अपने इस दिखावे और शोर के कारण ही दूसरों को इतना खतरनाक लगता है कि लोग इससे किनारा कस लेते हैं। मैं अपनी और अपने जैसों की बात नहीं कर रहा, उनकी बात कर रहा हूं जो हिन्दू रीति-नीति और संस्कारों को अपने जीवन का अंग समझते हैं।”
”यह बात मैं बहुत पहले लिख चुका हूं । तुमने पढ़ा नहींं होगा। मैं जब भाजपा की बात करता हूंं, या संघ की बात करता हूं तो इन्हें अपनी पसन्द के रूप में नहीं, अपितु दो या अनेक संभव बुराइयों में सबसे कम बुरे के चुनाव के रूप में। तुमने मेरे मन की बात कह दी कि ये अपने को जिस रूप में दिखाते है, जैसा शोर मचाते हैं, उसके कारण, या कहाे अपनी नासमझी के कारण खतरनाक न होते हुए भी खतरनाक दीखते हैं । इनके आत्मरक्षात्मक उपाय भी अाक्रामक प्रतीत होते हैं या आक्रामक सिद्ध किए जा सकते हैं। शिक्षा, गहन अध्ययन और विचार-विमर्श के प्रति इनकी उदासीनता के कारण जब सत्ता इनके हाथ में होती है तब भी उसे संभालने के लिए ऐसे लोग नहीं मिलते जिनके ज्ञान और अनुभव के प्रति आश्वस्त हुआ जा सके, या मिलते हैं तो गिने चुने ही । कला, शिक्षा और अनुसंधान से जुड़ी संस्थाओं का भार वहन करने के लिए कामचलाऊपन का सहारा लिया जाता है । वे न तो अपने क्षेत्र में सार्थक बदलाव ला पाते हैं, न ही उनकी गंभीरता को समझ पाते हैं । अपनी अज्ञता को ढकने के लिए वे ऐसी ऐसी अजीब बातें करते हैं जिनसे अच्छा हास्य तक पैदा नहीं होता। हंसते हुए रोना पड़ता है । ये सभी बातें हैं। कम से कम साहित्य, इतिहास और संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाला कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में सुकून अनुभव नहीं कर सकता ।
इस उदासीनता के परिणाम स्वरूप, इन अवरोधों के बाद भी, इन्हीं के बीच जो प्रतिभाशाली लोग निकलते हैं, उनके प्रति सम्मानभाव भी गायब मिलता है । इनके राजनीतिज्ञ उनको किसी काम पर नियोजित करते हैं तो भी पूरी छूट नहीं देते, उन्हें अपनी हठधर्मिता के अनुरूप बना कर रखना चाहते हैं, जिससे वे कट कर अलग हो जाते हैं। इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण सीताराम गोयल ने अपनी छोटी सी पुस्तिका ‘हाउ आइ बिकेम ए हिन्दू’ में दिया है । पहला बुद्धिजीवियों के प्रति उनकी अरुचि को प्रकट करता है:
I also felt annoyed when I heard speaker after speaker in RSS gatherings pouring contempt on “intellectuals” who had read books but who knew nothing of the “practical problems”. One of their pet stories was about a Pandit who frowned upon a boatman for not knowing Panini, but for whom the boatman pitied for not knowing swimming when the boat was in trouble. p. 80
ऐसे जड़ से जुड़े और जड़ बन कर प्रसन्न रहने वाले समूह में किसी बुद्धिजीवी की क्या दुर्गति हो सकती है, उसे कितना महत्व दिया जाता है, क्यों बुद्धिजीवी इस तरह के संगठनों से बिदकते रहे, यह समझना मुश्किल नहीं । इसमें बुद्धिहीनों द्वारा बुद्धिजीवियों का उस सीमा तक उपयोग तो किया जा सकता है जितना उनकी समझ में अपने काम का लगे, परन्तु सम्मान नहीं किया जा सकता । आज भी वह दिन नहीं आया है । हिन्दू या प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के विषय में इनकी नासमझी ऐसी है कि यह उससे लगाव की चाह रखता है, परन्तु उसकी समझ नहीं। इसलिए इसकी आस्था हिन्दुत्व की तुलना में अपने संगठन के प्रति रही है ।
What was most revealing to me about the RSS people was that, by and large, they did not react to expression of any opinion about any subject except that about their organization (RSS) or about their leaders (adhikaris). One could say anything one chose about Hinduism, or Hindu culture, or Hindu society or Hindu history, without drawing any reaction from an average RSS man…. I wondered what sort of Hindu organization it was….80
अपने बौद्धिक खोखलेपन के विषय में इनके मन में कोई भ्रम भी नहीं है, और इस बात की चिन्ता अधिक है कि विदेशों में इनके बारे में लोगों की समझ अच्छी बन सके । सीताराम जी उसी पन्ने पर लिखते हैं:
One day a BJS leader asked me to write a book presenting the BJS to the West. I said that I knew very little about the BJS, and that it would be better if the job was undertaken by one of their own scholars. He said that the problem was that they had no scholar in their organization.
वह पुस्तक लिखने को तो तैयार हो गए परन्तु जब कहा कि इस बात का ध्यान रखें कि उस पुस्तक में मैं आपकी नीतियों की आलोचना भी करूंगा तो वह नेता हैरान रह गया,
He showed surprise. He told me in a tone full of pity for me that I was a talented man, and could move up high in their organization provided I wrote the book and remove from his peoples mind the lingering suspicion about me. I asked him, “what suspicion?” He smiled and said, you ought to know that most of our people think that you are a… He did not complete the sentence. I complete it for him, “… am American agent.” I had to control myself…
अपनी घोषित अल्पज्ञता के बाद भी यह अपने से बुद्धिमान लोगों का उपयोग करने की कामना करता है और तब अधिक दयनीय और हास्यास्पद लगता है। मैं अपना अनुभव तुम्हें बाद में कभी बताऊंगा, परन्तु यह एक कारण है कि बुद्धिजीवियों को न तो यह समझ सकता है न बुद्धिजीवियों के लिए इसका कोई उपयोग है । जब मैं दो या अनेक बुराइयों में अल्पतम बुराई के चयन की बात करता हूं तो मेरा तात्पर्य यही है, इसके बाद भी मैं जानता हूं कि इनके द्वारा देश का उससे कम अनर्थ हुआ है जितना तुम लोगों के द्वारा और मूर्खता की प्रतिस्पर्धा में भी तुम उनसे कुछ आगे निकल जाते हो, क्योंकि उन्हें इतना तो दिखाई देता है कि उन्हें किसका लाभ मिल रहा है, तुम्हें उसका भी पता नहीं । तुमने जो कीर्तिमान बनाए हैं उसे ये छूने का सपना तक नहीं देख सकते ।