Post – 2016-12-03

मूर्खता के कीर्तिमान

”तुम्‍हारी कुछ बातें मुझे भी चिन्तित करती है, परन्‍तु यदि तुम आज के संघ को उस हिन्‍दू समाज का प्रतिनिधि मानते हो जिसमें बहुलता के प्रति सम्‍मान था, समावेशिता थी तो गलती करते हो । इसका गठन भले आत्‍मरक्षा के लिए हुआ हो, परन्‍तु इसकी आत्‍मा सामी है। उसी की नकल पर इसे गठित किया गया और समझदारी से काम नहींं लिया गया। यह जितना काम नहीं करता उससे अधिक दिखावा और शोर करता है और यदि यह डरावना न भी हो तो अपने इस दिखावे और शोर के कारण ही दूसरों को इतना खतरनाक लगता है कि लोग इससे किनारा कस लेते हैं। मैं अपनी और अपने जैसों की बात नहीं कर रहा, उनकी बात कर रहा हूं जो हिन्‍दू रीति-नीति और संस्‍कारों को अपने जीवन का अंग समझते हैं।”
”यह बात मैं बहुत पहले लिख चुका हूं । तुमने पढ़ा नहींं होगा। मैं जब भाजपा की बात करता हूंं, या संघ की बात करता हूं तो इन्‍हें अपनी पसन्‍द के रूप में नहीं, अपितु दो या अनेक संभव बुराइयों में सबसे कम बुरे के चुनाव के रूप में। तुमने मेरे मन की बात कह दी कि ये अपने को जिस रूप में दिखाते है, जैसा शोर मचाते हैं, उसके कारण, या कहाे अपनी नासमझी के कारण खतरनाक न होते हुए भी खतरनाक दीखते हैं । इनके आत्‍मरक्षात्‍मक उपाय भी अाक्रामक प्रतीत होते हैं या आक्रामक सिद्ध किए जा सकते हैं। शिक्षा, गहन अध्‍ययन और विचार-विमर्श के प्रति इनकी उदासीनता के कारण जब सत्‍ता इनके हाथ में होती है तब भी उसे संभालने के लिए ऐसे लोग नहीं मिलते जिनके ज्ञान और अनुभव के प्रति आश्‍वस्‍त हुआ जा सके, या मिलते हैं तो गिने चुने ही । कला, शिक्षा और अनुसंधान से जुड़ी संस्‍थाओं का भार वहन करने के लिए कामचलाऊपन का सहारा लिया जाता है । वे न तो अपने क्षेत्र में सार्थक बदलाव ला पाते हैं, न ही उनकी गंभीरता को समझ पाते हैं । अपनी अज्ञता को ढकने के लिए वे ऐसी ऐसी अजीब बातें करते हैं जिनसे अच्‍छा हास्‍य तक पैदा नहीं होता। हंसते हुए रोना पड़ता है । ये सभी बातें हैं। कम से कम साहित्‍य, इतिहास और संस्‍कृति के क्षेत्र में काम करने वाला कोई व्‍यक्ति ऐसी स्थिति में सुकून अनुभव नहीं कर सकता ।
इस उदासीनता के परिणाम स्‍वरूप, इन अवरोधों के बाद भी, इन्‍हीं के बीच जो प्रतिभाशाली लोग निकलते हैं, उनके प्रति सम्‍मानभाव भी गायब मिलता है । इन‍के राजनीतिज्ञ उनको किसी काम पर नियोजित करते हैं तो भी पूरी छूट नहीं देते, उन्‍हें अपनी हठधर्मिता के अनुरूप बना कर रखना चाहते हैं, जिससे वे कट कर अलग हो जाते हैं। इसका एक बहुत अच्‍छा उदाहरण सीताराम गोयल ने अपनी छोटी सी पुस्तिका ‘हाउ आइ बिकेम ए हिन्‍दू’ में दिया है । पहला बुद्धिजीवियों के प्रति उनकी अरुचि को प्रकट करता है:
I also felt annoyed when I heard speaker after speaker in RSS gatherings pouring contempt on “intellectuals” who had read books but who knew nothing of the “practical problems”. One of their pet stories was about a Pandit who frowned upon a boatman for not knowing Panini, but for whom the boatman pitied for not knowing swimming when the boat was in trouble. p. 80

ऐसे जड़ से जुड़े और जड़ बन कर प्रसन्‍न रहने वाले समूह में किसी बुद्धिजीवी की क्‍या दुर्गति हो सकती है, उसे कितना महत्व दिया जाता है, क्‍यों बुद्धिजीवी इस तरह के संगठनों से बिदकते रहे, यह समझना मुश्किल नहीं । इसमें बुद्धिहीनों द्वारा बुद्धिजीवियों का उस सीमा तक उपयोग तो किया जा सकता है जितना उनकी समझ में अपने काम का लगे, परन्‍तु सम्‍मान नहीं किया जा सकता । आज भी वह दिन नहीं आया है । हिन्‍दू या प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्‍कृति के विषय में इनकी नासमझी ऐसी है कि यह उससे लगाव की चाह रखता है, परन्‍तु उस‍की समझ नहीं। इ‍सलिए इसकी आस्‍था हिन्‍दुत्‍व की तुलना में अपने संगठन के प्रति रही है ।
What was most revealing to me about the RSS people was that, by and large, they did not react to expression of any opinion about any subject except that about their organization (RSS) or about their leaders (adhikaris). One could say anything one chose about Hinduism, or Hindu culture, or Hindu society or Hindu history, without drawing any reaction from an average RSS man…. I wondered what sort of Hindu organization it was….80

अपने बौद्धिक खोखलेपन के विषय में इनके मन में कोई भ्रम भी नहीं है, और इस बात की चिन्‍ता अधिक है कि विदेशों में इनके बारे में लोगों की समझ अच्‍छी बन सके । सीताराम जी उसी पन्‍ने पर लिखते हैं:
One day a BJS leader asked me to write a book presenting the BJS to the West. I said that I knew very little about the BJS, and that it would be better if the job was undertaken by one of their own scholars. He said that the problem was that they had no scholar in their organization.

वह पुस्‍तक लिखने को तो तैयार हो गए परन्‍तु जब कहा कि इस बात का ध्‍यान रखें कि उस पुस्‍तक में मैं आपकी नीतियों की आलोचना भी करूंगा तो वह नेता हैरान रह गया,
He showed surprise. He told me in a tone full of pity for me that I was a talented man, and could move up high in their organization provided I wrote the book and remove from his peoples mind the lingering suspicion about me. I asked him, “what suspicion?” He smiled and said, you ought to know that most of our people think that you are a… He did not complete the sentence. I complete it for him, “… am American agent.” I had to control myself…

अपनी घोषित अल्‍पज्ञता के बाद भी यह अपने से बुद्धिमान लोगों का उपयोग करने की कामना करता है और तब अधिक दयनीय और हास्‍यास्‍पद लगता है। मैं अपना अनुभव तुम्‍हें बाद में कभी बताऊंगा, परन्‍तु यह एक कारण है कि बुद्धिजीवियों को न तो यह समझ सकता है न बुद्धिजीवियों के लिए इसका कोई उपयोग है । जब मैं दो या अनेक बुराइयों में अल्‍पतम बुराई के चयन की बात करता हूं तो मेरा तात्‍पर्य यही है, इसके बाद भी मैं जानता हूं कि इनके द्वारा देश का उससे कम अनर्थ हुआ है जितना तुम लोगों के द्वारा और मूर्खता की प्रतिस्‍पर्धा में भी तुम उनसे कुछ आगे निकल जाते हो, क्‍योंकि उन्‍हें इतना तो दिखाई देता है कि उन्‍हें किसका लाभ मिल रहा है, तुम्‍हें उसका भी पता नहीं । तुमने जो कीर्तिमान बनाए हैं उसे ये छूने का सपना तक नहीं देख सकते ।

Post – 2016-12-02

”यार तुम तो कह रहे थे हिन्‍दुओं में मेरे जितने मित्र हैं उससे कम मुसलमानों में नहीं हैं । पर जब तुम ‘बच के रहना रे बाबा, बच के रहना रे’ पर उतर आए तब समझ में आया तुम कितने पाखंडी हो । तुम्‍हें अपना कहा याद है या नहीं ।”

”याद क्‍यों न रहेगा, मैं तो सहस्राब्दियों पीछे की काम की बातें तक याद रहता हूं।यह बताओ तुम मेरे मित्र हो या नहीं । और मैं तुम्‍हारे विचारों और मान्‍यताओं से बच कर अपने मत पर कायम रहता हूं या नहीं । सावधानी और जहां बराव जरूरी हो वहां बराव, बुनियादी ईमानदारी से जुड़े प्रश्‍न है। पाखंड से तुम अपने को धोखे में रख सकते हो, दूसरे का मनोरंजन कर सकते हो, परन्‍तु उसका विश्‍वास नहीं जीत सकते। जब तुम अपने कथन और व्‍यवहार से यह सिद्ध करते हो कि तुम ईमानदार हो तभी अगले का विश्‍वास तुम पर जम पाता है जो मित्रता की पहली शर्त है ।”

वह फंस गया था ।

”मैं तुमसे एक सीधा सवाल करता हूं । तुम सांप्रदायिकता को अच्‍छी चीज मानते हो या बुरी ?”

”सांप्रदायिकता को कौन अच्‍छी चीज मानेगा यार ?”

”मान लो मैं । संप्रदाय और सांप्रदायिकता तो हमारे देश में लंबे समय से रहे हैं । उनकाेे अनेकों रूपों में देखा जा सकता है। एक रूप तो किसी सरोकार से जुड़ी बन्‍धुता से है । नाथ संप्रदाय
, वैष्‍णव संप्रदाय। तुम अंग्रेजी शब्‍दों को हिन्‍दी में अनूदित करके थोपते समय भी इस बात का ध्‍यान नहीं रख पाते कि अंग्रेजी में भी कम्‍युनैलिटी बुरी चीज नहीं है, कम्‍युनलिज्‍म बुरा हो सकता है, यूं तो कम्‍युनिज्‍म में जो कम्‍यून है उसमें भी कम्‍यून कम्‍युनिटी का ही द्योतक है । फिर भी कम्‍युनलिज्‍म या संप्रदायवाद बनने के साथ इसका अर्थ उलट जाता है और यह अपने संमुदाय की बन्‍धुता से आगे बढ़ कर इतर समुदायों या संप्रदायों के प्रति द्वेष बन जाता है। तुम अालसी स्‍वभाव के कारण दोनों में फर्क करने की भी जरूरत नहीं समझते । कला और कलावाद में जो अन्‍तर है वही सांप्रदायिकता और संप्रदायवाद में है, परन्‍तु हमारे यहांं ब्रितानी कूटनीति के तहत संप्रदायवाद और सांप्रदायिकता को समानान्‍तर विषबेलि की तरह उगाया और फैलाया गया । पहले अभिज्ञान के नाम पर हिन्‍दुओं की प्रत्‍येक जाति को दूसरी जातियों से, फिर एक ही जाति के बीच कुल गोत्र के अनुसार अपनी पृथक पहचान और उसकी उपाधि या उपनाम को जोड़ने को अदालतों के माध्‍यम से बढ़ावा दिया गया जिससे उनकी दबी सामूहिकता को उभार कर दूसरों से पृथकता पैदा की जा सके और दूसरी ओर जो संप्रदाय शाखाओं तक सीमित था उसे धार्मिक सामूहिकता के रूप में पेश करते हुए उन्‍हें अलग किया जा सके । यहीं से हिन्‍दूू मुस्लिम भेद को हिन्‍दू मुस्लिम प्रतिस्‍पर्धा और फिर एक दूसरे के अहित से जोड़ने का प्रयत्‍न किया गया। कहें सांप्रदायिकता को संप्रदायवाद, जातिभेद को जातिवाद के रूप में उभारने की योजना काम में लाई गई ।

Post – 2016-12-01

अन्तकाल निज रूप देखावा

”एक लेखक के रूप में मेरा अस्तित्‍व, और कुछ दूर तक तक सम्‍मान भी, तुमसे दूसरे लेखकों और बुद्धिजीवियों से नाभिनाल की तरह जुड़ा है जिनकी मैं आलोचना करता हूं । यदि लेखकों और बुद्धिजीवियों पर से जनसाधारण का विश्‍वास उठ जाय, यदि पढ़ने में उनकी रुचि ही न रह जाय, यदि वे पढ़ने से पहले ही हमारे विचारों और निष्‍कर्षों का पूर्वानुमान करके सामने पड़ी सामग्री को पढ़ने की जरूरत ही न समझें तो इसके प्रभाव से वे लेखक भी नहीं बच सकते जो पूर्वानुमेय या प्रिडिक्‍टेबल नहीं हैं। मेरा विरोध उनके उनके विचारों से नहीं है, अपितु उस बदहवासी से है जिसमें वे नहीं जानते कि उनके विचार क्‍या हैं और उनको किस तरह व्‍यक्‍त किया जाय कि वह उस जत्‍थे से बाहर भी उत्‍सुकता पैदा कर सकें जिसके भीतर उनके अहो रूपं अहो ध्‍वनि: की गूंज उन्‍हें आत्‍ममुग्‍ध रखती है।”

”तुम आरोप लगाते हो कि हमने लीग की कार्ययोजना को अपनी कार्ययोजना बना रखा है परन्‍तु यह नहीं देख पाते कि तुम उतने ही गर्हित और संकीर्ण संघ और उसकी सन्‍तान भाजपा का समर्थन करते हो । क्‍या तुम्‍हें स्‍वयं पता है कि तुम क्‍या कर रहे हो?”

”मैं जानता था तुम यह प्रश्‍न उठाओगे । परन्‍तु तुमने इस बात पर ध्‍यान नहीं दिया कि मैं जानता हूं कि मैं किसकी हिमायत कर रहा हूं, इसे किसी से छिपाया भी नहीं और आज तक अपनी बात तर्क, औचित्‍य, प्रमाण और विश्‍लेषण के आधार पर रखता आया हूं। तुम मायाचारी हो, अपनी सचाई को स्‍वीकार नहीं कर पाते, जो कर चुके हो उसके परिणामों की जिम्‍मेदारी लेने को तैयार नहीं होते । तुम अपने को भी धोखा देते हो और दूसरों को भी धोखा देते हो और यह तुम्‍हारी आदत में शामिल हो गया है। तुम्‍हारे पास अपने कार्यों और विचारों का औचित्‍य नहीं इसलिए तुम्‍हें तर्क की जगह गालियों का प्रयोग करना होता है, फासिस्‍ट, भक्‍त, शाविनिस्‍ट । गालियां देने वाला, कोसने वाला स्‍वयं यह स्‍वीकार करता है कि उसके पास तर्क और औचित्‍य नहीं है। यदि मैं बताऊं कि तर्क का अभाव क्‍यों है और उसे कैसे दूर करके बुद्धिजीवी की भूमिका में आ सकते हो तो वह भी तुम्‍हारी समझ में नहीं आएगा।”

”हम क्‍या चाहते हैं यह तुम क्‍या समझोगे, पहले यह बताओ कि तुम क्‍या चाहते हो।”

”यह मैं कई बहानों से बताता आया हूं, तुम समझ नहीं पाए। अब भी समझोगे, यह विश्‍वास नहीं, फिर भी यह कह दूं कि मैं वही चाहता हूूं जिसकी अपने काे उदार दिखाने के लिए तुम दुहाई देते हो और फिर पलट कर उसी का सत्‍यानाश करने लगते हो । मैं उस बहुलता को बचाना चाहता हूं जिसे दूसरे मिटाना चाहते हैं । तुम बहुलता की, समावेशिता की बात भी करते हो और साथ उनका देते हो जिनको यह सहन नहीं, इसलिए दूसरी सांस में एकजुटता या इंटीग्रेशन की बात करने लगते हो, जो दूसरे सभी का मिट कर किसी एक आदर्श के अनुरूप बन जाने का, अपनी निजता को मिटा देने का पर्याय है और उन मजहबों का आदर्श है जो अपने मजहब से बाहर के लोगों को पूरा इंसान तक नहीं मानते और उनके साथ उनका समायोजन तब तक पूरा नहीं होता जब तक दूसरा धीरे-धीर उनके जैसा नहीं बन जाता। एकता नहीं अविरोध और सहयोग बहुलता का लक्ष्‍य हो सकता है, जिसे समझ न पाने के कारण दोनों जहां की नेमतें बटोरने के चक्‍कर में तुम दोनों की गलाजतें बटोरने लगते हो और जिसे मिटाना चाहते हो उस पर उन्‍हें आरोपित कर देते हो ।”

वह कुछ सोचता सा लगा, या संभव है मेरी बात अधूरे मन से सुनते हुए उसे यह समझ में ही न आया हो कि अभी अभी मैने क्‍या कहा है और उसे अपनी कल्‍पना में उन टुकड़ों के आधार पर गढ़ने में लगा हो। बोला तो उसके स्‍वर में आत्‍मविश्‍वास था, ”बात कहीं से शुरू हो, तुम घूम फिर कर मजहब पर क्‍यों आ जाते हो ?”

”यह याद दिलाने के लिए कि तुमने एक मजहब की सोच और कार्ययोजना को कम्‍युनिज्‍म और सेक्‍युलरिज्‍म नाम दे रखा है जिसके कारनामों का खुला समर्थन करने का साहस तुममें नहींं है। यहीं से वह ग्रन्थि पैदा होती है जिसमें तुम अपने ही कार्यो और विचारों के बीच अन्‍तर्विरोध को न समझ पाते हो न समझना चाहते होे, यही वह कारण है जिससे तुम अपना सामना स्‍वयं नहीं कर पाते। इस ग्रन्थि का विश्‍लेषण तुम्‍हारे भले के लिए मैं कर सकता हूं।”

वह हंसने लगा । यह झेंप और प्रतिवाद की मिलीजुली हंसी थी। मैंने हंसी पर ध्‍यान ही न दिया, ” तुम चाहो तो इसे समझ भी सकते हो, और इसकी दबोच को कम भी कर सकते हो, पर इससे मुक्‍त होना आसान नहीं है, यह तुम्‍हारे बजूद का हिस्‍सा बन गया है । जानना, चाहना सदिच्‍छा पर निर्भर करता है, परन्‍तु अपने को बदल पाना पूरी तरह हमारे वश में नहीं है ।”

अब उसके लिए अपने को संभाल पाना कठिन हो गया, ”क्‍या समझाना चाहते हो तुम, पहले अपने आप काे तो समझो ।”

”वह भी करूंगा। यदि तुम्‍हारी मदद की जरूरत हुई या तुम्‍हें लगा कि तुम मेरी मदद कर सकते हो तो मदद भी लूंगा, परन्‍तु अभी तो मैं तुम्‍हारी उस अन्‍तर्ग्रन्थि को खोलना चाहता हूं । तुम्‍हें केवल सीधे हां या ना में उत्‍तर देना होगा ।”
वह कुछ बोला नहीं, मुझे प्रश्‍नातुर दृष्टि से देखता रहा ।

वह कुछ बोला नहीं, मुझे प्रश्‍नातुर दृष्टि से देखता रहा ।

”आज की ही बात लो तो, तुम्‍हारी समस्‍या यह नहीं है कि आज के विमुद्रीकरण से लोगों को अहसनीय कष्‍ट हो रहा है और उन्‍हें इससे मुक्ति मिलनी चाहिए, बल्कि हर छोटी बड़ी परिघटना पर तुम्हारे मन में मोदी पर हमला करने, उसको सत्‍ता से हटाने की लालसा उग्र हो उठती है और आज यह उग्रतम हो गई है। सीधे जवाब देना, हां या नहीं ।”

”हां ।”

”मोदी में वह साहस और निर्णय क्षमता है जिसके कारण वह तुम्‍हें डरावना लगता है ?”

वह एक क्षण के लिए रुका और फिर कहा, ”हां।”

मोदी न भी होता, कोई तीसरा ही होता, फर्ज करो, आडवाणी तो भी तुम उसे सत्‍ता से हटाने के लिए कुछ बाकी नहीं रखते ।”

”इसमें पूछने की क्‍या बात है, तुम स्‍वयं लीगी शासन नहीं चाहोगे, मैं भी नहीं चाहूंगा, पर इसी तरह हम संघ का या किसी हिन्‍दू संगठन का शासन भी नहीं चाहेंगे ।”

”यह आदर्श स्थिति है, और यहां तक मैं भी तुम्‍हारे साथ हूं । समाज की खंडित दृष्टि रखने वाला पूरे समाज के साथ न्‍याय नहीं कर सकता । यदि केवल इसका निर्वाह करते तो तुमसे मुझे कोई शिकायत न होती। परन्‍तु इसमें हिन्‍दू मूल्‍यों, परंपराओं, महागाथाओं, ग्रंथों और इतिहास का उपहास और योजनाबद्ध ध्‍वंस भी शामिल हो जाय तब सोचना पड़ेगा कि इसका कर्ता कौन है? यह किसकी कामना रही है ? उसे पूरा करने वाला किसका कार्यभार संभाले हुए है ? यहीं आकर तुम अपने बचाव के लिए नाम भले लीग की संकीर्णता का लो, तुम उसके वारिस बन जाते हो और यह भूल जाते हो कि उसके द्वारा किए जाने वाले उपद्रवों से बचाव के लिए संघ की स्‍थापना और इसका अर्धसैन्‍य संगठन जरूरी हुआ था, न कि किसी पर आक्रमण करने या उपद्रव करने के लिए । दोनों में साम्‍य देखना गलत है ।

”तुमने लीग की विरासत संभाल रखी है, इससे अवगत भी नहीं हो, गो उस इतिहास से अनजान भी नहीं हो जिसमें यह विरासत अपनाई गई थी, इसलिए तुम्‍हारे विरोध में मुझको भाजपा का पक्षधर बन कर यह बताने की जरूरत पड़ी कि तुमने इस देश का उससे अधिक अहित किया है जितना भाजपा कर सकती थी।

”संघ को जिलाए रखने और ताकतवर बनाने के लिए भी तुम जिम्‍मेदार हो । तुम्‍हारे साथ जो लेखकों की पूरी अक्षौहिणी है उनमें से लगभग हर एक सुबह से शाम तक इस एक वाक्‍य को पचासों बार पचासों तरह से दुहराता है कि मोदी अब मरा कि तब और लगातार मरा मरा करते रहने के कारण वह तुम्‍हारेे ही राम राम सत्‍य है में बदलता चला जाता है । तुमने पूरे देश को एक व्‍यक्ति बना दिया है, मोदी के समर्थकों में भी कोई एक बार से अधिक उसके पक्ष में कुछ नहीं कहता और वह भी रोज ब रोज नहीं ।

”तुम जानते हो कि तुम जो चाहते हो वह होने वाला नहीं, इसलिए हताशा में गालियों पर उतर आते हो । मैंने इन गलियों में भटकते हुए प्रधानमंत्री के लिए भी गालियों का प्रयोग होते देखा है, यह वही प्रधानमंत्री है जिसकी तानाशाही प्रवृत्ति के कारण तुम्‍हें लगता है अभिव्‍यक्ति का संकट पैदा हो गया है ।

”भारत को हिन्‍दू राष्‍ट्र बनाते जाने के अपराधी तुम हो ।

“तुम्हे पता है इस देश का एक नाम हिन्दुस्तान हुआ करता था, और यह भी भूला न होगा कि इसे तीन टुकड़ों मे बांटने की योजना को संभव बनाने में तुम्हारी निर्णायक भूमिका थी । उन दो टुकड़ों में हिन्दू सम्मान और सुरक्षा के साथ नहीं रह सकता। वह इन दोनों में विलुप्तप्राय प्राणी के रूप मेंं अपने दिन गिन रहा है और इस बात को लेकर तुम्हारे मन में कभी पीड़ा नहीं हुई । अकेला टुकड़ा जो उसके हिस्से में आया था, जहां वह दूसरों के साथ निर्वैर भाव से सम्मान के साथ रह सकता था, वह उसके प्रति निष्‍ठा की बात करता है तो तुम्‍हें घबराहट होती है । जब इसके विषय में भी हिन्दूद्रोही योजनाएं अमल में आने लगीं और यह लगने लगा कि काग्रेस के क्रिस्तानी चोला धारण करने के बाद अपने देश के अपने हिस्‍से में आए टुकड़े में भी हिन्दू का सम्मान से रह पाना संभव नहीं है, तब तुम चुप रहे । जब दो टूक शब्दों में मनमोहन सिह ने कहा, इस देश के संसाधनों पर पहला हक माइनारिटीज का है, तब तुम तुम चुप रहे । अब तुम हिन्दू राष्ट्रवाद का हौवा दिखा कर जनता को बर्गलाना चाहते हो तो जनता चुप रहती है । जब तुम देशद्रोहियों के साथ खड़े हो जाते हो और इस बचे हुए टुकड़े को तोड़ने की बात करते हो तो उसका यह विश्वास दृढ़ होता है कि इस देश को बचाने की चिन्ता अकेले भाजपा को है । दूसरे सभी सत्ता के भूखे भेड़िए हैं और इनके हाथ में देश सुरक्षित नहीं । मौका मिले तो ये देश को ही खा जाएंगे । यह देश हिन्दुओं का है और हिन्दू ही इसे बचा सकता है । दूसरे केवल इसमें हिस्‍सा मांगेंगे और सकारात्‍मक योगदान की जगह नकारात्‍मक भूमिका पेश करेंगे।

मैं जानता हूं इससे तिलमिलाकर तुम अपने बचाव के लिए नई गालिया गढोगे । अब वही तुम्हारे पास बच रही हैं, पर समझोगे नहीं । पर अब वे गालियां भी बे असर हो रही हैं । तुम बौखला कर अधिक से अधिक गर्हित उपमाएं तलाशते हो, आपस में शेयर भी करते हो, पर उनकी पहुंंच तुम्‍हारे गिरोह से बाहर नहीं रह गई है । और एक बात बता दूं, मैंने उसी दिन यह निर्णय लिया था जिस दिन मनमोहन सिंह ने वह ऐतिहासिक फेसला किया था कि इस देश के संसाधनों पर पहला अधिकार माइनारिटीज का है, और फिर जब उस बिल की रूपरेखा सामने आई थी जिसके अनुसार किसी सांप्रदायिक फसाद में यदि कोई हिन्‍दू भी शामिल पाया जाता है तो हिन्‍दू को ही अभियुक्‍त मान कर जांच की जाएगी, मैंने अपना स्थिर मत बना लिया था कि पूरे देश को सम्‍मान से जीने का अवसर केवल हिन्‍दू संगठन ही दे सकता है। चुनाव की घोषणा बाद में हुई। मोदी बाद में मंच पर आए । मैं मोदी के साथ नहीं अपने साथ था और आज भी हूं । मध्‍यकाल में भी केवल हिन्‍दू शासकों ने दूसरे समुदायों को सम्‍मान से जीने का अधिकार दिया था और भाजपा के शासन ने उसे झुठलाया नहीं, यह उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है ।”

Post – 2016-12-01

है दिल अपना, दिमाग अपना नहीं है ।
पता मैंने किया, पाया सही है ।

बहुत प्‍यारा, सलोना था यह कोना
जब अपनी आंख थी अपनी नजर थी
मगर चश्‍मा चढ़ा ब्लिंकर सजा तब
यह कहता, देखता उनकी कही है ।

गया था मीर बनने मुफलिसी में
जुटाया और भरा जो हाथ आया
है यह रंगीन भूसों का भुसौला
हमारे काम का कुछ भी नहीं है ।

चलो फिर से पढ़ें अपना ककहरा
बनायें खुद ही अपने ईंट गारे
सजोयें अपने बिखरे सोच सपने
सिवा इसके कोई चारा नहीं है ।।