Post – 2017-05-03

देववाणी (इक्कीस)

तुम्हारे आरम्भ में ही तुम्हारा अंत है

‘तुम किस बुरे अनुभव की बात कर रहे थे? अधिक तो नहीं पर कुछ भाषाविज्ञान मैं भी जानता हूं। उन्होंने कई पहलुओं से इसे जांचा और पाया कि भाषा के इतने जटिल ढ़ाचे का विकास अनुनादी शब्दों से नहीं हो सकता और उसी आजमाए और छोड़े हुए रास्ते को अपना कर, तुम विषय से अनजान अपने भोलेभाले पाठकों को भ्रमित करते हो, और तेवर ऐसा अपनाते हो कि जैसे भाषाविज्ञान में क्रान्ति कर रहे हो।’ मेरा मित्र मिल जाय और कोड़ों की बरसात न शुरू हो जाय यह संभव ही नहीं है।

मै मुस्कराता रहा और सिर्फ इतने से ही वह नर्वस होने लगा। इसका मजा लेते हुए मैंने कहा, ‘बैठो। अपना सारा ज्ञान उलाटने के बाद खाली हो चुके होगे, लो पानी पी लो। कुछ तो भीतर रहे।

उसने पानी का गिलास तो बिना कुछ कहे ले लिया, एक दो घूंट पीकर गिलास एक किनारे रख भी दिया, पर देखता उसी तेवर से रहा जिसमे अब चुनौती के साथ उलझन भी मिल गई थी।

‘‘देखो, जो अन्तिम ज्ञान तक पहुंच चुके हैं वे कुछ नया समझना तो दूर सुनने को भी तैयार नहीं होते, इसलिए मैं तुमसे यह उम्मीद नहीं कर सकता था कि तुम यह मोटी सचाई तक समझ पाओगे कि जटिल तन्त्रों का विकास जिन सूक्ष्म आद्य रूपों से होता है उनमें उस जटिलता की समग्र संभावनाएं निहित होती हैं। जैसे बट बीज में बटवृक्ष, शुक्राणु और सूक्ष्मांड में मनुष्य के सभी गुणसूत्र।

रही बात उस अनुभव की बात तजिसका हवाला दे कर मैं आगे बढ़ गया। उसका एक इतिहास है जो ग्रीक सभ्यता तक जाता है। वहां अफलातून यानी प्लेटो ने भाषा पर विचार करते हुए खासी मशक्कत करने के बाद भी खासी नासमझी की बातें की थीं। वह केवल संज्ञाओं को ही पूरी भाषा मान कर उसे समझने का प्रयत्न कर रहे थे और जिस तर्क सरणी से बढ़ रहे थे वह उस मशक्कत के अनुरूप ही मूर्खतापूर्ण थी और इसके बाद भी उसमें कुछ तत्व की बातें थीं जिन्होंने अस्तित्ववादी दर्शन में प्रेरक का काम किया। जैसे यह किसी वस्तु को हम अपनी जरूरत के अनुसार देखते और जानते हैं, पर यह उसका अपना स्व नहीं होता। वह अपने आप में हमारी जरूरत से भिन्न कुछ होता है। पर्यायों की समस्या, बहुअर्थी शब्दों की समस्या, इसमें नैसर्गिकता और मानवीय हस्तक्षेप आदि सवालों से भी टकराये थे और इस उहापोह में संज्ञाओं की रचना या उत्पत्ति को समझने का प्रयत्न किया था. जैंसे एक फिरकी (शटल) लकड़ी की होती है पर लकड़ी फिरकी बनने के लिए नहीं होती, न फिरकी होती है, इस सिलसिले को तुम पीछे और खींच सकते हो। अब फिरकी के लिए शब्द पर विचार करते हुए वह कहते हैं, फिरकी जुलाहे की जरूरत है कि वह धागों के बीच से गुजर सके पर जुलाहा फिरकी नहीं बना सकता। इसके लिए उसे बढ़ई के पास जाना होगा और अपनी जरूरत बतानी होगी जिसकों ध्यान में रख कर वह फिरकी बनाएगा। नई चीज़ के लिए नए शब्द की जरूरत जिसे होती है वह शब्दकार के पास जाता है कि मुझे इसके लिए नाम चाहिए और वह उसे उसकी संज्ञा देता है।’ मैंने अपना माथा पीट लिया।

‘इसमें गलत या मूर्खतापूर्ण क्या है? हमारे यहां भी लोग बच्चे का नाम रखने के लिए पंडित के पास जाते रहे हैं और वह नामकरण करता रहा है।’

‘मैंने कहा न जब जनमकुंडली वाली समझ से भाषा की उत्पत्ति तलाशने चलोगे जिसमें ध्वनियों का भंडार तुम्हारे पास है, सिर्फ चुनाव करना है कि इस नई चीज को कौन सा नया नाम दूं जो दूसरे लोगों या चीजों को दिए गए नामों से अलग हो तो इस तरह की यांन्त्रिकता रहेगी।

अंतर इतना ही है कि हमारे यहां जैसा कि पतंजलि ने कहा था कि लोग नाम रखवाने के लिए वैयाकरण के पास नहीं जाते, वे अपनी जरूरत के अनुसार स्वयं नाम गढ़ लेते हैं, पर यान्त्रिकता हमारे यहां भी थी। वह ज्ञान व्यवस्था ही ऐसी थी कि उसमें भाषा की उत्पत्ति को ही नहीं इसके चरित्र को भी समझने में कठिनाइयां थीं। इसी से घबराकर फ्रांस में जब भाषा विषयक अनुसंधान की संस्था बनी तो उसमें यह चेतावनी थी कि इसमें भाषा की उत्पत्ति पर बात न की जाएगी।

‘इसका मुझे पता नहीं था, ‘ उसने सहज भाव से स्वीकार किया।

‘ मेरा भी ज्ञान, तुम्ही बताते हो कि बहुत अच्छा नहीं है और सिर्फ इस मामले में तुम्हारी जानकरी ठीक है। खैर इसका हवाला मैक्समुलर ने दिया था और इसका अनुमोदन करते हुए दिया था फिर भी वह शब्दों के इतिहास की बात करते हैं, व्युत्पत्ति की बात करते हैं।’’

वह मुस्कराने लगा, जबान से कुछ न कहा।

‘भाषा की उत्पत्ति की समस्या भाषावैज्ञानिकों में से कुछ की इस चिन्ता से आरंभ हुई कि आज की दुनिया में यदि सभी देश और समाज एक ही भाषा में बात करें तो सबका ज्ञान सबके द्वारा साझा किया जा सकता है। विगड़ते हुए हालात में भाषाई अहंकार को त्याग कर सभी राष्ट्र किसी एक भाषा में बात करें तो राष्ट्रों के बीच तनाव कम किया जा सकता है। इसी आशा और विश्वास से नई भाषा गढ़ने के क्रम में उन्होंने भाषा की उत्पत्ति के सवाल पर फिर विचार करना आरंभ किया और कई तरह के सुझावों के बीच एक ऐसी भाषा तैयार की जिसे मैं दुनिया की सबसे सरल और सुन्दर भाषा मानने को तैयार हूं। यह थी एस्पेरान्तो जिसं संयुक्त राष्ट्रसंघ की भी मान्यता प्राप्त है।

‘परन्तु बहुत सुथरी और निखोट कृत्रिम रचना नैसर्गिक विकास का स्थान नहीं ले सकती, न ही उन रहस्यमय पक्षों को आत्मसात् कर सकती है जो उसमें है। एस्पेरान्तो नहीं चल पाई। राष्ट्रसंघ के प्रोत्साहन और आधुनिक विश्व की जरूरत के बाद भी। यह एक खतरनाक प्रस्ताव था, इसे भी नहीं समझा गया। नैसर्गिक विविधताओं को नष्ट करते हुए कुछ को सर्वोत्तम मान कर शेष को मिटाने या उनके मिटने की परिस्थितियां तैयार कर देना एक खतरनाक विकल्प है । सबसे रोचक बात यह कि नई भाषा गढ़नेवालों ने यह समझने का पूरा प्रयास किया कि भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई और उसी का सहारा लेकर अपनी नई विश्वभाषा गढ़ना चाहते थे। इसे लेकर हास्यास्पद अटकलबाजियां करते रहे परन्तु समझ न सके। जो नई भाषा गढ़ी वह भी यूरोपीय भाषाओँ का वैसा ही पचमेल था जैसा PIE के रूट्स की उद्भावना करते हुए किया जाता रहा है और जिसकी आलोचना स्वयं ऐसे भाषाविज्ञानी भी करते रहे थे। यूरोप का आदमी कितना भी प्रखर हो वह भाषा की उत्पत्ति को नहीं समझ सकता।’

अब उसके ठठा कर हंसने की बारी थी, हंसी थमी तो बोला, ‘मैं पहले से जानता था तुम आओगे इसी ब्रह्मसूत्र पर।’

‘मैं यही कह रहा था कि तुम पहले से सब कुछ जानते हो इसलिए न कुछ धैर्य से सुन सकते हो न अपने माने हुए से अनमेल पड़ने वाले किसी सत्य को समझ सकते हो। यहां तक कि तुम सही सवाल तक नहीं कर सकते नहीं तो अपना फैसला सुनाने से पहले पूछा होता कि मई ऐसा कह किस आधार पर रहे हो ?

उसका उत्साह ठंडा पड़ गया, सम्भलने में कुछ समय लगा, फिर बोला, ‘चलो, तब नहीं तो अब सही। अब तो बताओ कि यह राय तुमने बनाई किस आधार पर है?’

‘थक गए होंगे। आराम करो। शाम को बात करेंगे।’

Post – 2017-05-02

देववाणी (20)
जननी भाषा और आद्य रूप

भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई इस सवाल से पाश्चात्य भाषाविज्ञानी बचते भी रहे है, टकराते भी रहे हैं और मुंह की खाते भी रहे हैं और इन अनुभवों के कारण इससे उलझने से कतराते भी रहे हैं। आप भाषा की बात करें और शब्दविचार न करें यह संभव नहीं। शब्दविचार करें और व्युत्पत्ति का सवाल न खड़ा हो यह संभव नहीं। व्युत्पत्ति के साथ ही भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न अनिवार्य हो जाता है। परन्तु इसका उनका अनुभव बहुत बुरा रहा है।

सच कहें तो उत्पत्ति का सवाल जिस रूप में विकासवाद के मान्य होने के बाद सामने आया वह पहले संभव ही नहीं था। सच कहें तो ईश्वर के हत्यारों में सबसे पहला नाम डार्विन का ही आता है। उससे पहले ईश्वर था, उसकी बनाई हुई सृष्टि थी, उसकी एक व्यापक योजना थी, उसके बनाए पशु, पक्षी, मनुष्य सभी थे और उसके भीतर ही वे अपनी करामात कर सकते थे पर उससे बाहर नहीं जा सकते थे।

इसलिए ग्रीस हो या प्राचीन भारत या दुनिया का कोई दूसरा देश, उत्पत्ति की बात सोच ही नहीं सकता था। यही कारण है कि हमारे भाषाचिन्तक जिन्होंने भाषाचिन्तन को आश्चर्यजनक उूंचाईयों पर पहुंचाया वे भी अपनी ओर से कुछ जोड़ने बदलने की बात को तो नकार ही नहीं सकते थे, परन्तु उत्पत्ति की बात उनकी कल्पना में भी नहीं आ सकती थी। आज हम जिन बातों पर हंसते हैं कि इतने बुद्धिमान लोगों ने इतनी मूर्खतापूर्ण बात कैसे सोच और मान ली, जैसे सृष्टि के पहले से ही भाषा ही नहीं वेदों तक का अस्तित्व, वे हों किसी देश के, डार्विन से पहली अपने पुराणगाथा के अनुसार उन्हीं बातों का उतना ही या उससे भी हास्यस्पद समाधान दे सकते थे पर इस सोच और विश्वास पर हंस नहीं सकते थे।

वह सीधा सादा आदमी, जो किसी मानी में असाधारण न था, जो देखा उसे कहने के साहस के कारण दुनिया का सबसे बड़ा मजाक करते हुए बन्दर को आदमी बना कर पेश कर दिया और पेश भी इस मासूमियत से किया कि सबने इसे सच भी मान लिया. जादू ओह जो सर चढ़कर बोलेा मुहावरा तो पहले से था, पर जादू ने सर चढ़कर बोलना डार्विन के इशारे पर शुरू किया.

गोरा होते हुए गोरेपन से ऊपर उठकर, ईसाई होते हुए भी ईसाई विश्वासों से ऊपर उठकर अपने रंग पर गरूर करने के कारण काले रंग को भी गाली बना देने वाले समाज को थप्पड़ लगाते हुए बानरों की सन्तान बना दिया। मुहावरा उल्लू बनाने का है, बन्दर बनाने का होना चाहिए। यह ऐसा मजाक था जिसने हमें उन चीजों पर हंसना सिखाया जिनके सामने हम लाचार हो कर हाथ जोड़े खड़े हो जाते थे, या सिर रगड़ने लगते थे। मनुष्य की साधारणता के बीच से उसकी महिमा की यह तलाश ही आधुनिकता है। आधुनिकता के जनक, विज्ञान युग के जनक, मेरी समझ से गैलीलियो या कोपर्निकस नहीं, डार्विन हैं।

अतः हमें इस बात का खेद नहीं है कि हमारे महान भाषाचिन्तक भाषा की उत्पत्ति की समस्या से उलझे बिना व्युत्पत्ति की तलाश में जुटे और इसके लिए धातुओं की कल्पना की और अपना काम इस मनोयोग से किया कि यह आधुनिक भाषाविज्ञानियों को भी अपने जादू में बांध कर भटकाने में समर्थ रहे।

पश्चिमी जगत अपने को वैज्ञानिक सोच का बताता है और सूचना, ज्ञान और प्रचार के सभी माध्यमों का अकूत विस्तार करने के बल पर जिसे जो भी सिद्ध करना चाहता है करने में सफल हो जाता है क्या वह अपनी सोच में वैज्ञानिक है?

यदि हाँ, तो वह जननी भाषा या आद्य भाषाओँ को प्रौढ़ या अपनी पूर्णता पर पहुंची भाषाओँ के बहुनिष्ठ घटकों को जोड़ते या कुछ समायोजन करते हुए आदिम अवस्थाओं की बात कैसे कर सकता है? क्या बहुत सारे प्रौढ़ मनुष्यों के सभी लक्षणों के बहुनिष्ठ तत्वों को मिलाकर (भ्रूण की बात तो छोड़ दें, क्योंकि भाषा की उस अवस्था का ज्ञान हमें भी नहीं है) नवजात शिशु की काया, ज्ञान, व्यवहार आदि को समझ सकते हैं. क्या यह मोटी समझ उन ग्रंथो और नियमों और पुनर निर्मित मूलों (रूट्स), पल्ल्वदण्डों (स्टेम्स) और विवेचनों में दिखाई देती है? डार्विन के बाद भी पाणिनि की नकल करने वाले क्या वैज्ञानिक युग के प्रतिनिधि है? और उन्हें जगद्गुरु मानने वाले ?

Post – 2017-05-01

देववाणी (उन्नीस)

मै आज की चर्चा किसी दूसरे कोण से आरम्भ करना चाहता था. एक व्यवधान के कारण, जिसमे यह आभास हुआ कि मेरे पाठकों के मन में भाषा के प्रति एक सचेतता पैदा हुई है. यह सुखद था. पर इसका एक डरावना पक्ष यह था कि उनमें ऐसे शब्दों को लेकर अपनी व्याख्या अपनी ज्ञान सीमा में देने की लालसा भी पैदा हुई है जिसके उलटे परिणाम हो सकते हैं. इसलिए विषय को यहीं से आरम्भ करते है.
मनुष्य ने जितनी भी संस्थाएं बनाई हैं, भाषा सबसे पुरानी है. वह दूसरी संस्थाएं, इनमें भाषा के बाद समाज का स्थान भी आता है, भाषा के अभाव में निर्मित नहीं हो सकती थी. इस विषय में विवाद हो सकता है कि भाषा अधिक पुरानी है या समाज. इस तर्क से कि भाषा एक सामाजिक संस्था है समाज को भाषा से भी पुरानी माना जा सकता है. हम यह निवेदन करना चाहते हैं कि सामाजिकता यूथबद्धता से आगे की संस्था है और भाषा सम्पन्नता ने ही मूल्यों का सृजन करके यूथ या झुण्ड को समाज में बदला. जो भी हो दोनों का चोली-दामन का साथ है और दोनों के गठन, विस्थापन, बिखराव और समायोजन का दूसरे पर असर पड़ता है और यदि हम धैर्य से काम लें तो समाज के इतिहास का बहुत कुछ भाषा के विवेचन से समझा जा सकता है.
स्तालिन काल में एक पुस्तिका पढ़ने को मिली थी – स्तालिन ऑन लैंग्वेज. राज्याध्यक्ष अवसर के अनुरूप अधिकारी व्यक्तियों द्वारा लिखित भाषण देते हैं इसलिए इसे सोवियत भाषावैज्ञानिकों का भाषा विषयक मत मान कर पढ़ा जाना चाहिए.

उसमे जिस बात को रेखांकित किया गया था वह यह कि भाषा का सम्बन्ध न आधार से है न अधिरचना से. यह दोनों को संभालती, एक के बदलने के बाद स्वयं बदलती नहीं और बदलाव को सँभाल भी लेती है. ठीक यही बात समाज के विषय में कही जा सकती है. अर्थ व्यवस्था में बदलाव के साथ समाज व्यवस्था नहीं बदलती न उससे अप्रभावित रहती है. समाज व्यवस्था इसलिए नहीं बदलती क्योंकि समाज मात्र अर्थ आधारित नहीं है-
भाषा हो या समाज दोनों की संरचना बहुत जटिल है और इनकी एक दूजे पर निर्भरता इतनी गहन है कि भाषा को नष्ट करके समाज को नष्ट किया जा सकता है और समाज को नष्ट करने के बाद तो भाषा बच ही नहीं सकती.
इसलिए भाषा हो या समाज आपको हर तरह की छूट देते या दे सकते हैं, भाषा के व्यवहार में या सामाजिक आचार में हमे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारा हस्तक्षेप कैसा हो, कहाँ हो और किस रूप में हो.

जिनको इस जिम्मेदारी का ध्यान नहीं है वे राष्ट्रगान गाते हुए राष्ट्र को हानि पहुंचा सकते हैं और अंतर्राष्ट्रीय गाते हुए भी अपने पावों के नीचे की जमीन पर भी अपना अधिकार खो सकते है. वे खो सकते है भाषा को भी और समाज को भी. समाज में समस्याएं है, भाषा में समस्याएं हैं. हस्तक्षेप जरूरी है. इसके बिना तो हम जीवंत मुर्दों में बदल जाएंगे.
परन्तु बदलाव के लिए उस चीज़ कि समझ जरुरी है जिसे आप बदलना चाहते हैं, इसके लिए जरूरी तैयारी में लम्बा समय लगता है. क्या यह तैयारी की गई. इन सवालों पर अपनी मूर्खताओं पर क्या कभी सोचने का समय निकला? मैं इनका उत्तर न दूँगा, न यह पूछूंगा कि क्या क्रांतिकारी मनसूबे पालने वाले आज भी आत्मनिरीक्षण करते है. जो वन्देमातरम कहना होगा को राष्ट्रगान बनाना चाहते हैं क्या उनमे से किसी ने अपनी भाषा और समाज का गहन अध्ययन किया. जिस राष्ट्र या विचारधारा के प्रति इतनी भक्ति है कि वह घर से चौराहे तक फ़ैल जाती है उसके लिए इतना भी त्याग न करने वाले कि वे समाज और संस्कृति का, उसकी भाषाओँ का गहन अध्ययन करें वे वाममुखी हों या दक्षिणमुखी क्या वे इसका जवाब देंगे कि यह जरुरी काम किये बिना वे स्वेच्छा से उनके गुलाम क्यों बनते जा रहे हैं जो आपका जरूरी काम आपको अपना मनोवैज्ञानिक गुलाम बना कर रखने के लिए कर रहे हैं?

भाषा में गहन अध्ययन और और जो कुछ प्राचीन मुनियों पंडितों ने कहा है उस पर विश्वास करके चलना जरूरी है। जहां वे नियम चुक जाते हैं वहां से आगे की बात भी उन्हीं के बताए नियमों, सिद्धान्तों के अनुसार की जाती है और उसके लिए और लंबी तैयारी की जरूरत होती है। उसके बाद भी मन में आशंका बनी रहती है कि कहीं ऐसा न झूट गया हो जिससे निष्कर्ष पूरी तरह बदल जाये। उदाहरण के लिए मैंने सस, स्रंस से भोजपु. संस् को व्युतपन्न माना जो कि गलत लगता है. सस जिससे शश और फिर शशि का सम्बन्ध है.
सस आगे बढ़ने तेजी से बढ़ने के लिए तेज धारा की सरसराहट से उपजी ध्वनि है, स्रंस का स्रोत वही है पर अंतःसर्ग के कारण अर्थ बदल जाता है और यह खिसकने छूटने के आशय में प्रयोग में आता है – गांडीवं स्रंसते हस्तात्, इसलिए भोजपुरी का संस उस संस से जो शंस बना पर संस्कृत में प्र लगने के बाद ही मिलता है, निकला है यह मानना ठीक होगा।