Post – 2017-11-06

ला इलाह इल इंसान
मुझे अरबी तो दूर फारसी तक का इल्म नहीं। मैं जुआड़ियों की तरह ब्लैंक कार्ड फेकता हूं। लग गया तो तीर नहीं तुक्का। कई बार मेरे तुक्के को तीर बनते देख कर लोग कहते हैं ‘अहो मेधा! अहो मति:’ तो मजा आता है। इसी मजे की तलब में यह तुक्का यह सोच कर लगा बैठा कि इसका मतलब होगा ‘इंसान को छोड़ कर कोई अल्लाह नहीं।

यदि यह अर्थ गलत है तो जानकार लोग इसे सुधारें। मैं उसे अपनी ज्ञानव्यवस्था में जगह देकर पहले की व्यवस्था में बदलाव कर लूंगा जैसे हम नया फर्नीचर आने पर उसे जगह देने के लिए पहले की चीजों को सरका कर उसके लिए जगह बनाते हैं। परन्तु यदि यह सही है तो समस्या अधिक गंभीर हो जाती है।

अब समस्या का चरित्र बदल जाता है। सोचना यह पड़ता है कि किसने किसको बनाया। इंसान ने अल्लाह को या अल्लाह ने इंसान को। लो गलती हो गई। मुझे सारी भाषाओं, सभी मजहबों मे खुदा और बन्दे के पर्यायों का एक साथ उल्लेख करते हुए अपनी बात करनी चाहिए, आलस्य और अज्ञान के चलते एक ही का नाम लेकर रह गया, और ब्रह्म के सामने तन कर ‘अहं ब्रह्मास्मि’ और अनलहक दहाड़ने, और बुदबुदाकर ‘अपनी जरूरतों से मैंने तुझे बनाया, तू सबको बनाता है अपनों को यह पढ़या।’ कहने वालों की याद तक न रही।

मेरा यह प्रमाद आपको भी पसंद न आया होगा और डर है मैं आप सबकी नजरों में गिरा न भी होऊं तो नजर में काफी उतर अवश्य गया होऊंगा। यदि
जल्ल तू, जलाल तू।
अंडों का अंडमान तू।
बंदों का बर्धमान तू
इल्मों का इल्मदान तू।
मेरी खता को देख कर
अपनी खता भी मान तू।
मरजी थी तेरी हो गया
डंडे को मत उछाल तू।
गर आ गयी समझ तुझे
आई बला को टाल तू ।
का कीर्तन करने से काम चल जाए तो मान लें, इसे लिखते हुए ही कीर्तन हो गया । लेकिन आदमी वह फितरती चीज है कि यदि खुदा ने उसे बनाया है तो भीवह खुदा से बड़ हो चुका है जैसे हमारी कृतियां हम से बड़ी हो जाती हैं और हम अमुक रचना वाले अमुक के रूप में जाने जाते हैं। जरूरत पड़ने पर तरह तरह के खुदा बना लेगा, और जरूरत न रही तो से सारे खुदाओं अपने खुदा को बचाने के बहाने मिटा सकता है। यदि हमारे कबीले के
खुदा को सभी अपना मान लें तो इतने खुदाओं की जरूरत क्या है, यदि न मानें तो उन्हे इन्सान कहाने का हक क्या है और जो इंसान नहीं हैं उनके लिए तो कबीलाई खुदाने कह ही रखा है कि वे तुम्हारे लिए बनाए गए हैं और तुम उनके साथ मनचाहा सलूक कर सकते हो। मार दिया जाय कि छोड़ दिया जाय, बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाय, यह फिल्मी गाना नहीं हैं।
मुझे पूरा विश्वास है कि यह मजहबी गाना है, गो मैं यह स्वीकार करना चाहता हूं कि मुझे अपनी समझ पर पूरा भरोसा नहीं।

लीजिए कि मैने प्रायश्चित्त कर लिया।

पिछली भूल सुधारते हुए, खुदाओं का कारोबार करके खुदा ने जिनको बनाया, उन्हें बनाते हुए अपना उल्लू सीधा करने वालों की राह में न आते हुए मैं भी मान लेता हूं कि सभी बनी हुई चीजों को ईश्वर ने बनाया, पर उसने एक ही गलती की कि उसने अपनी की छवि में इंसान बनाने का इरादा कर लिया और इसके साथ ही एक दूसरा विचार पैदा हुआ कि जनाब अपनी ही छवि मे इंसान को पैदा करके आप अपना दुश्मन पैदा कर रहे हो। या तो तुम रहोगे या वह। पर इरादा एक बार पैदा हो जाय तो वह कार्यान्वित हो कर ही रहता है। प्रेरणा और उद्भास के बाद सर्जक कितना निरुपाय और सृजन प्रक्रिया उस पर कितनी भारी पड़ती है इसे वे भावाकुल कवि भी जानते हैं जो तरुणाई में लोगों का रास्ता चलना भी मुश्किल कर देते हैं – पहले मेरी कविता सुनो और फिर आगे बढ़ो – और बाद में कहते हैं, पैसा हो तो कवियों का दरबार लगाया जा सकता है और फिर कुछ भी करके पैसा बनाने में लग जाते हैं, वे भी बता सकते हैं।

मुझे खेद इस बात का है कि खुदा और आदमी की जंग मे हारते सभी रहे, जीत की कोशिश में खुदा खुदा रहा ही नहीं और खुदा को मेटने की कोशिश में इंसान इंसान रह ही न पाया। कौन किससे बड़ा है, यह शीतयुद्ध जारी था उसी बीच एक नया खुदा पैदा हो गया। इसका नाम है विज्ञान। अहमस्मि नेतर:। यह अहं ब्रहमास्मि का नया पाठ है। यह ब्रह्म के सच्चिदानन्द का चित है, न इसमें सत है (इसे तो विज्ञान का मिथ्याचार और खुराफात के लिए जितना उपयोग है उसीसे जाना जा सकता है।), न आनन्द (इसे मौज मस्ती में वृद्धिके अनुपात में ही दुख और यातना के विस्तार में भी देखा जा सकता है)।

Post – 2017-11-05

अवधू तीन लोक सों न्यारो

प्रात: स्नान करना शरीर को स्वच्छ या निर्मल करना नहीं, शुद्ध करना है।

भारतीय समाज दो भागों में बंटा है। एक जो प्रात:स्नान करता है, और दूसरा जो सांध्यस्नान करता है। दुनिया के सारे लोग दिन में कामकाज करते और कामकाज के चलते धूल, मैल, पसीने से गंदे होते है, इसलिए शाम को शरीर की मैल साफ करने के लिए नहाते हैं। जो शरीर से केवल एक ही उत्पादक काम करते हैं और उसे भी पाप की तरह करते हैं वे अपने काम के बाद गंदे नहीं होते, अपवित्र हो जाते है और इसलिए स्वच्छता के लिए स्नान नहीं करते, शुद्धता के लिए स्नान करते हैं, सो पानी में एक डुबकी लगाने से भी उनका स्नान पूरा हो सकता है, यहां तक कि पानी छिड़ने से भी काम चल सकता है। पर इसी धक्के में अपने अगले जनम को सुधारने के लिए अपने ज्ञात अज्ञात पापों को भी धोते-बहाते रहते हैं।

परंपरा पुरानी है। ऋग्वेद का एक कवि कहता है, इदमापः प्रवहत यत् किंचित् दुरितं मयि l यद् वा अहं अभीदुद्रोह,यत वा शेप उतानृतम् ।
‘ये जल हमारे उन पापों को भी धो-बहा ले जायं, जिनका हमें भी पता नहीं, जो हमसे अनजाने में हो हो गए हों, जो मेरे मन में किसी के प्रति द्वेष पैदा हुए हों, या जो हमारे मुंह से गलत बात निकलने हुआ हो।’

नदी में स्नान का महत्व इसी पाप प्रक्षालन से जुड़ा है, पाप को धोने बहाने के लिए नदी में स्नान अधिक पवित्र और कुछ खास पर्वों पर स्नान अधिक उपयोगी रहा है, और नदियों में भी कुछ नदियां तो पाप धोने के लिए सीधे ब्रह्मा या विष्णु से पैदा होकर धरती पर उतरी और प्रवाहित हुई थीं। सरस्वती या गंगा जैसी नदियां पापहरण के लिए उतरी थी और अज्ञानी और लोभी जन इनका उपयोग नौवहन और सिंचाई के लिए करने से बाज न आते थे।

पर फिर सोचना पड़ता है कि क्या इतना संवेदनशील और पापभीरु समाज सचेत रूप में किसी के प्रति कोई अन्याय कर सकता था?

भटकने का डर है इसलिए यहां इतना ही कि जिस बौद्ध मत को सनातन या वैदिक मूल्यव्यवस्था से अधिक प्रगतिशील बताया जाता है, वह लगभग सभी मामलों में प्रतिगामी था। उसमें भौतिक जीवन की उपेक्षा थी। परलोकवाद न था, पर पूर्वजन्मों के कर्मफल और उसके भोग में विश्वास था, जो स्वर्ग नरक की पुरानी अवधारणा से अधिक खतरनाक था, क्योंकि इससे सामाजिक और आर्थिक विषमता को समर्थन मिलने लगा। एक ओर इसने वर्णव्यवस्था को धता बताते हुए सभी जनों के लिए अपने मत का, जिसे पहली बार इसने धर्म की संज्ञा दी, द्वार खोल दिया जो इसका एकमात्र प्रगतिशील कदम है। दूसरी ओर ब्रहमचर्य को इंद्रिय निग्रह तक सीमित करके और अहिंसा पर अनावश्यक बल दे कर, स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को पहले से अधिक हेय बनाया और अस्पृश्यता का पर्यावरण तैयार किया । इसका प्रगतिशील समझा जाने वाला कदम भी औपनिषदिक एकत्व या समभाव से आगे नहीं जा पाता। स्वच्छता का इसका मानदंड बहुत लचर था। आश्चर्य नहीं कि सामाजिक न्याय के लिेए विख्यात संत आन्दोलन ने अपनी प्रेरणा और भाषा बौद्ध मत से न लेकर उपनिषदों से ग्रहण की ।

भटकने से बचते हुए भी इतना तो भटक ही गए कि यह बता ही नहीं पाए कि प्रात:स्नाता और सान्ध्य स्नाता, शुद्धतावादी और स्वच्छतावादी जनों से ऊपर और इन दोनों के लिए स्पृहणीय एक तीसरा वर्ग भी होता है जिसके लिए ये सारी श्रेणियां बेकार होती हैं। इसमे पुराने समय के अवधूत, मध्यकाल के सूफी पीर, आधुनिक युग के अपने बचपन के अपने राम और विज्ञानयुग के महान आविष्कारक स्टीव जाॅब आते हैं। ये आत्मा से शुद्ध और स्वच्छ दोनों होते हैं इसलिए काया की गंदगी की ओर ध्यान नहीं देते । ये दूसरों को गन्दा दिखाई देने पर भी गन्दे नहीं होते न यह समझ पाते हैं कि वे भी गंदे हो सकते हैं। वे मानते हैं कि नहाना एक दंड है और उनकी मान्प्रयता का एक दार्शनिक आधार है। प्रकृति ने जब किसी दूसरे जानवर को नहाने की सजा नहीं दी, फिर आदमी पर ही यह अन्याय क्यों? नहाना अप्राकृतिक और अस्नात काया से उठनेवाली गंध को मर्दानाक्रीम और जनानाक्रीम की विज्ञापित भाषा मे विसर्गमुक्त भाव से झेलने की योग्यता का विकास करना प्राकृतिक भी है, आधुनिक भी है और, आज तो, सर्वविदित भी है।

आदमी को नहलाना, नहाने को बाध्य करना, न नहाने वालों से भेदभाव बरतना क्रूरता है और इस क्रूरता का शिकार मुझे बनना पडता था। उसे बयान करने का आज समय तो है नहीं।
कल कहेंगे जो आज कहना था
कल का कलिकाल में ठिकाना क्या।

Post – 2017-11-05

26Then God said, “Let us make mankind in our image, in our likeness, so that they may rule over the fish in the sea and the birds in the sky, over the livestock and all the wild animals,a and over all the creatures that move along the ground.”
27So God created mankind in his own image,
in the image of God he created them;
male and female he created them.
यदि ईश्वर ने मनुष्य को अपनी छवि में गढ़ा और मनुष्य उस को हृदयंगम करने के लिए उसे उसी छवि में गढ़ता है तो यह अपराध कैसे हो गया। इससे तो बिना किसी दलाल के सीधे उसका साक्षात्कार कहना होगा।

Post – 2017-11-04

याद करता हूं तुझे खुद को भूल जाता हूं।
तुमने भी याद किया है, कभी मुझको ऐसे ।।
बहुत मुश्किल है संभलना फरेब से अपने
सच अगर माना तो क्या मुझसे कहा है ऐसे।
नहीं, हर्गिज नहीं, पर सच से जुदा है क्या यह
सच के नुस्खों में ही सच ढूंढ़ रहे हों जैसे।
अपनी बर्वादियों के साथ खड़े हैं तन कर
फिर भी पहले भी हुए लोग हैं कैसे कैसे।।

Post – 2017-11-04

हमें भी देखिए, हम खुश नहीं हैं दुनिया से
मगर, दुख, फाड़ कर कपड़े, बयां नहीं करते।।
हमें भी देखिए, कुछ करते हैं, दुख दूर तो हो
हम कोसते नहीं, आहो फुगां नहीं करते ।।
हम सोचते हैं कि क्या करना है, क्या होना है
सुनते हैं सबकी किसी का कहा नहीं करते ।।
इतना सा फर्क है पर दूरियों को देखिए तो
जमीं वही है मगर हम मिला नहीं करते।।

Post – 2017-11-03

स्वच्छता और पवित्रता

मैं बचपन में बहुत गन्दा रहता था। उस छोटी उम्र में जब मुझे स्वच्छ रखने की जिम्मेदारी उन पर थी जो सफाई और गंदगी का भेद जानते थे। उनके पास मेरे लिए कुछ नहीं था। समय तक नहीं। पिता जी छावनी पर रहते। दोपहर और शाम को खाना खाने लिए आते तो देख लेता, पर निकट जाने का साहस नहीं होता था। छावनी न होती, वह घर पर भी होते तो भी उनके पास अपनी संतानों के लिए समय नहीं हो सकता था।

दीदी को सहेलियों के साथ खेलने, कूदने से फुर्सत न थी। उसने सीना पिरोना और अक्षर ज्ञान कब और किससे पाया, यह मुझे पता न चला, पर वह किसी रहस्यमय तरीके से यह सब जानती थी। दूसरे किसी की अपेक्षा मैं दीदी से कुछ लगाव अनुभव करता था, परंतु उसका सारा स्नेह भैया के लिए था । कुछ ऐसे काम थे जिनके लिए भैया पकड में आ जाते थे क्योंकि वह मेरे बूते का था जैसे छावनी से दूध लाना, या रहेट्ठा (अरहर का सूखा डंठल) तोड़ कर या लकड़ी चीर कर जलावन के लिए घर में पहुचाना, पर जहां उन्हें लगता कि वह काम भी मुझसे कराया जा सकता, वह उसे भी मेरे ऊपर लाद कर उससे मुक्त हो जाते। वह इस समय का उपयोग ताश खेलने में करते। उनका मेरे प्रति कोई कर्तव्य न था, मैं उनसे छोटा था इसलिए न तो उनके आदेश की अवज्ञा कर सकता था, न उनसे हुज्जत कर सकता था। ऐसे कामों को संभाल मैंने उन्हें घर का कोई काम करते नही देखा। इसके बाद भी उनको सभी प्यार करते, माई को छोड़कर और वह उसी अनुपात में बिगड़ते गए थे। जिस एकमात्र कला का विकास किया था वह था झूठ बोलना और डींग हांकना।

बाबा साठ साल की उम्र मे ही अचलस्त से हो गए थे। मरने के बाद नरक से बचने के लिए वह जो जुगत भिड़ाते रहते थे उनके चलते ही उन्होंने कभी चारों धाम करने की ठान ली थी, याद नहीं आता ठीक कब। अजीब बात है। बाबा के प्रसंग में यह बात कभी ध्यान में आई ही नहीं और आज अचानक थैला तक याद आ गया जो ठीक इसी प्रयोजन के लिए सिला गया था। यह मारकीन के सात आठ गज कपड़े को दोहरा करके इस तरह सिला गया था कि दोनों सिरों पर तीन तीन फुट लंबे थैले बन जाएं और बीच का हिस्सा कंधे पर टांगने के लिए पट्टे का काम करे। आगे और पीछे लटकते इन थैलों में कपड़ा-लत्ता, लोटा डोरी, सत्तू, चिउड़ा, नमक, सब कसा गया था। अनुमान है कि इन थैलों के भीतर पैसा, रुपया रखने की थैलियां भी बनी रही होंगी। बाबा का स्वास्थ्य उस समय ठीक रहा होगा, पर उसकी कोई तसवीर नहीं उभरती, जब कि कसे हुए उन थैलों की उभरती है।

तीर्थयात्रा आज सैलानी पन का ही एक रूप है, परन्तु उन दिनों जब यातायात के सीमित साधन थे, या उससे भी पहले जब उनका भी अभाव था, यह सचमुच एक साधना थी। जाना तय था पहुंच पाना अनिश्चित था और लौट कर जीवित वापस आने का कोई ठिकाना न था। बहुत से लोग इस आशंका से कि कहीं ऐसी जगह हारी बीमारी में मौत न हो जाय कि किसी परिजन को खबर ही न लग सके, प्रस्थान से पहले अपनी प्रतीकात्मक अंत्येष्टि करके तीर्थ यात्रा पर निकलते। रास्ते में जहां कहीं सत्तू भूजा मोल मिल जाता खरीद कर खाते। थैले का सामान उन स्थितियों के लिए होता जब कहीं कुछ नहीं मिलता। वे अक्सर दल बनाकर निकलते। बाबा के मामले में उनके प्रस्थान का या ऐसे दल का कोई आभास नहीं। गए किसी दल के साथ ही थे क्योंकि एक आभासिक स्मृति उभरती लग रही है कि दूसरे लोग आगे चले गए थे, यह अकेले लौटे थे।

हुआ यह था कि उन्होंने पहला तीर्थ बद्रीनाथ को चुना था। ठंढ को झेलने के लिए धोती और चादर तो उपयुक्त हो नहीं सकते थे। शरीर भारी था। चढ़ाई में घुटने जवाब दे गए। गठिया की शिकायत और घुटनों को लपेटने के ऊनी पट्टों के साथ लौटे थे। पट्टों की याद है, उन्हें लपेटने के दृश्यों की भी याद है फिर भी इसका कालक्रम बैठ नहीं पाता। जिसे उन्होंने गठिया समझ लिया था वह गंठिया तो न था, क्योंकि कछ दिनों के बाद उनहोंने वह पट्टा लपेटना बन्द कर दिया था। परन्तु इसके बाद वह लगभग बैठ से गए थे। कहीं आने जाने के नाम पर मंगलवार की बाजार करने जाते, एकाध बार छावनी तक।

बद्रीनाथ की यात्रा से ही वह एक और बीमारी ले कर लौटे थे, या यदि यह पहले से थी तो इसके बाद उग्र हो गई थी। यह थी ब्राकाइटिस, जिसे वह दमा समझते थे। इसके बाद से ही उन्हें जाड़ा इतना अधिक सताता कि रुइभरे की माटाई के बाद भी सिहरते रहते थे। इन सभीका मिला जुला असर ही था कि वह दरवाजे से बंध कर रह मए थे और समय बिताने का उनका एक सहारा ताश का खेल बन गया था। अब उनकी देख संभाल के लिए दूसरों की जरूरत थी, वह किसी दूसरे की देख भाल नहीं कर सकते थे। उन्हें नहलाने के लिए रामबालक के लड़के सीता राम की सेवा ली जाने लगी थी।

बाबा दोपहर तक का समय कैसे बिताते इसका ठीक हिसाब नहीं मालूम । संभव है कुछ समय विश्वामित्र के साप्ताहिक अंक को पढ़ने में लगाते रहे हों, जिसमें साहित्य आदि के साथ पूरे सप्ताह के समाचारों का सार भी तिथिवार दिया होता था। साहित्य में उनकी कोई रुचि थी तो वह रामायण तक सीमित थी।

बाबा को समय काटने के लिए ताश खेलने की आदत पड़ गई थी. वह ताश के पत्तों का खर्च झेल सकते थे और संभव है ताश खेलने को उ न्नत मनोरंजन मानते रहे हों, इसलिए पच्छिमी गोसवारे में दो खांटों को जोड़ कर ताश खेलने वालों के लिए मंच तैयार कर दिया जाता और खिलाड़ी जुटते जाते जो खेल न पाते वे तमाशा देखते रहते और किसी जकके किसी काम से उठाने की स्थिति में अपनी बारी का इंतजार करते. खेल के नाम पर वे शाह काट से आगे कुछ न जानते थे. तमाशा देखने वालों में भैया भी शामिल होते । सभी इतने व्यस्त थे कि किसा के पास किसी और के लिए समय ही न था।

मैं गंदा इसलिए रहता था कि मैं समाज के उस पवित्र हिस्से का सदस्य था जिसे गंदा रहने, साफ सुथरी चीज को भी गंदा करते रहने की आदत है। वह सड़ांध और दुर्गंध के बीच, घंटों, दिनों, महीनों रह सकता है, पर उसे साफ करके उससे मुक्ति नहीं पा सकता, क्योंकि ऐसा करते ही उसकी पवित्रता नष्ट हो जाएगी। उसे स्वच्छ रखने के लिए गन्दे और अपवित्र आदमियों की जरूरत है। वह गंदा आदमी बनना किसी को पसंद न था।