Post – 2018-07-24

आइए शब्दों से खेलें (२6)

जब हम कहते हैं जघन देववाणी से आया हुआ शब्द है तो इसका कारण यह कि घोष महाप्राण ‘घ’ सारस्वत बोली का नहीं हो सकता। परन्तु इसमें यह भी निहित है कि देववाणी में यह ‘जघन’ नहीं ‘घघन’ रहा होगा, जो ‘घन’ के आवर्तन से बना शब्द है (घनाघनः क्षोभणः चर्षणीनाम्)। जैसे क-कार संस्कृत में च-कार हो गया उसी तर्क से *घघन >जघन हो गया। ‘घन’ कूटने से उत्पन्न ध्वनि का अनुनाद था और संस्कृत में ‘हन्’ हो गया। इस न्याय से जघन सारस्वत प्रभाव में जह्न>जह्नु हो गया।और फिर जानु, फा. जानू बना।

यह मेरा अपना अनुमान है कि संभवत चंबल (यमुना) और गंगा के संगम से जो जघनाकार आकृति बनती है, उसको दो धाराओं के स्थान पर दो पावों
के (जिससे चलती हुई वे वहों तक पहुंची थीं) रूप में कल्पित किया गया। प्रवाह को गमन के रूप कल्पित किया गया है यह गं-गा, सं-गम, त्रिपथ-गा से समझा जा सकता है (कं, गं का अर्थ जल है। जल की गतिशीलता से ही कम्/गम् धातुएं बनी हैं) । इसके कारण इन नदियों के मिलन स्थल को जघन या जह्नु के रूप में कल्पित किया गया था और इससे आगे की धारा को जाह्नवी कहा जाता था।

पौराणिक कल्पना में इसकी व्याख्या में जो कथा रची गई उसमें गंगा के प्रवाह पथ में तपसाधना करने वाले जह्नु गंगा की धारा से विचलित और क्रुदध हो कर उसे चिल्लू में भर कर पी जाते हैं। काम तो बड़ा किया उन्होंने, का नहिं बाभन करि सके का न पुराण समाय। फिर तपोबल से क्या संभव नहीं है।

पर पुराणकथा गढ़ने वाले दो बातें भूल गए। गंगा समुद्र तो थी नहीं कि अगस्त्य की तरह एक बार पी लिया तो छुट्टी हुई। उनकी पीछे की ओर से आने वाली धारा को एक झटके में पीकर छुट्टी तो की नहीं जा सकती थी। दूसरे तपोबल और योग साधना के लिए ऋषि नहीं असुर प्रसिद्ध रहें हैं, यज्ञ विध्वंसक और यज्ञवर्जित शैव और योगी प्रसिद्ध रहे हैं। ऐसी अनहोनी उनसे ही संभव थी। उनकी घोर भर्त्सना करने वाले उनके कीर्तिगायक कैसे हो गए। पर छोड़िए इन विवादों को। पुराणों में लिखा है तो कोई पेंच तो होगा ही जिसे हम समझ नहीं पा रहे।

हमारी समस्या तो यह है कि जह्नु ने अपनी खुशामद कराने के बाद गंगा को अपनी जानु चीर कर प्रवाहित किया। जानु अर्थात् जह्नु। सवाल यह है कि उनका नाम जह्नु था इसलिए भगीरथ के प्रयत्न से वहां तक लाई गई भागीरथी का आगे का नाम जाह्नवी पड़ा, या जह्नु के जह्नु से प्रवाहित नदी का नाम जाह्नवी पड़ा। कहानी के अनुसार उन्होंने अपने जह्नु को चीर कर गंगा के प्रवाह को संभव बनाया। पर इस सर्जरी की जरूरत नहीं होनी चाहिए थी। जघन या जह्नु की व्याप्ति में पानी निकलने की व्यवस्था प्रकृति ने ही कर रखी है और उससे निकली हुई ही जाह्नवी कलि-मल-हारिणी है यह बताने की जरूरत नहीं।

अपनी महिमा कायम रखने के लिए ब्राहमणों ने अपनी ही परंपरा और संस्कृति को किस मूढ़ता से विकृत और कलुषित किया है, इसे ब्राह्मण नहीं बता सकता। आत्मालोचन और आत्मशुद्धि का काम हिन्दू समाज की रक्षा के लिए स्वयं परंपरावादी ब्राह्मणों को करना है अन्यथा वे न अपनी रक्षा कर सकते हैं न हिन्दुत्व की, जिसकी सबसे अधिक चिंता उन्हे ही सवार रहती है।

हमारे लिए शब्द यात्रा देववाणी के घन>घनाघन >जघान>जघन>सारस्वत प्रभाव से जघन>जघ्न>जह्न/जह्नु>पूर्वी रूपान्तर जानु । शब्द में आए इन परिवर्तनों के माध्यम से हम कुछ अनुमान बहुत आसानी से लगा सकते हैं। पहला यह कि पौराणिक कथाओं में विचत्र चरित्रों की सृष्टि बहुत बाद में बौद्धों, जैनियों और योगियों के बढ़ते हुए प्रभाव को कम करने के लिए की गई और इसके लिए तीन तरीके अपनाए गए। 1. उनकी घोर भर्त्सना जो गालियों के स्तर पर उतर आती है जैसे लुच्चा, नंगा, बुद्धू, कुत्सित, चाई आदि। 2. जनता में लोकप्रिय, बल्कि श्रद्धा के बिन्दु बन चुके मूल्यों, आचारों, व्यवहारों को अपना लेना, जैसे अहिंसा, योगसाधना आदि। इन सभी क्षेत्रों असाधारण सिद्धि पाने वाले काल्पनिक चरित्रों की सृष्टि, जिनमें असाधारण योद्धा- परशुराम (यद्यपि परशुराम ब्राह्मण क्षत्रियद्रोही तो हैं), द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि योद्धाओं, शाप से अनर्थ करने वाले दुर्वासा, और क्रोधाग्नि से दृष्टिमात्र से असंभव संहार और नदी से लेकर समुद्र तक पी जाने वाले चरित्रों की सृष्टि की जाती है और महर्षि, ब्र्ह्मर्षि कहे जाने वाले वसिष्ठ आदि के तपोबल की बात की जाने लगती है और उनके नाम के साथ मुनि लगाया जाने लगता है।

योग और तपोबल से आतंक बौद्धमत के स्खलन और योगाचार के उत्थान से पैदा हुआ इसलिए हम कह सकते हैं कि यह कथा तीसरी चौथी ईस्वी सदी में रची गई जब कि जाह्नवी नाम पुराना है।

Post – 2018-07-24

कुछ न कहिए तो लोग कहते हैं
जाने क्या क्या छिपा लिया इसने।

Post – 2018-07-24

राजनीतिक विषयों पर नियमित लेखन करने वाले क्रिप्टोलैग्निया के रोगी होते हैें।

Post – 2018-07-22

आइए शब्दों से खेलें (25)

मैंने कल अपनी पोस्ट मे कहा था कि यह समझ में नहीं आ रहा कि लात शब्द उद्भव क्या है? परंतु साथ ही इस बात की संभावना भी प्रकट की कि संभव है इसका सूत्र किसी दूसरे संदर्भ में हाथ लग जाए। कई घंटे बाद एकाएक इसका रहस्य जिस रूप में उजागर हुआ उसे मैंने लेख में जोड़ दिया था परंतु अधिकांश लोग पोस्ट पहले पढ़ चुके थे । उनकी नजर में वह न आया होगा। उसे दोहराते हुए मैं कुछ अन्य संभावनाओं को भी उसमें स्थान देना चाहता हूंः

“लात का संंबन्ध लाट से लगता है। इसके दो रूप मिलते हैं। एक कृत्रिम जलाशयों के बीच मे गाड़ा जाने वाला लकड़ी का खंंभा या स्तंभ जो एक तो पानी की गहराई का संकेत देता था, दूसरे यदि कोई जलाशय को पार करने के इरादे से तैरने को उतरा हो और चौड़ाई का सही अनुमान न लगा पाने के कारण थक जाय तो इसका सहारा ले कर सुस्ता सके।
“अशोक ने ऐसे स्तंभ अपने धर्मोपदेश लिखवाने के काम के लिए तैयार कराए। इनके साथ सुविधा यह थी कि ऊँचाई के कारण इन्हें दूर से ही लक्ष्य किया जा सकता था।
“हमारे प्रयोजन के लिए लात स्तंभ या खड़ा होने का आधार या स्तंभ stand। अपने पांवों पर खड़ा होने के मुहावरे को चरितार्थ करने के कारण इसका नाम लात पड़ा।”

यहां प्रश्न उठता है कि जिसे हम किताबों में ’अशोक की लाट’ पढ़ते हैं वह धर्म लात तो नहीं? क्या इसके पीछे ऊँचाई के कारण दूर से दीखने के अतिरिक्त, धर्मचक्र की तरह धर्म प्रवर्तन का संकेत भी जुड़ा था? आखिर अशोक को छोड़ कर अन्य सभी ने अपने ऐसे लेखों को स्तंभ की संज्ञा दी, अशोक ने इसे ’लात’ क्यों कहा?

दूसरा प्रश्न, क्या यह शब्द देववाणी का है और उसका भी पैर के लिए सबसे पुराना शब्द तो नहीं है। क्योंकि पुराने शब्दों के साथ प्रायः भदेसपन जुड़ जाता है। यही स्थिति देवसमाज में भी है। समान भूमिका वाले पुराने देवता को नए देवता का सेवक या पुत्र बना दिया जाता है जैसे वर्षा के पुराने देवता वृषाकपि को वर्षा के नए देवता इंद्र का पुत्र बनाने का प्रयास किया गया। परंतु उसी सूक्त से ऐसा भी लगता है कि वह युवा इंद्र का प्रतिस्पर्धी है। इसी तरह रुद्र गणों को इंद्र का सहायक बनाया गया है। भोजपुरी जो हमारी वर्तमान व्याख्या में देववाणी के सबसे निकट पड़ती है उसके शब्दों को दूसरी बोलियों के शब्दों की अपेक्षा अधिक अवज्ञा से देखा जाता रहा है।

परन्तु इसका एक अन्य कारण अशोक द्वारा धर्म प्रवर्तन के लिए इसका प्रयोग हो सकता है। जिस तरह ब्राहमणों ने जैन और बौद्ध धर्म से जु़ड़ी हर चीज को गाली में बदल दिया ठीक वैसा ही इस शब्द के साथ हुआ हो सकता है।

अगला प्रश्न यह है कि क्या ’लाट’, ’लट’ और ’लतर’ के नामकरण के पीछे मोटाई की अपेक्षा लंबाई का बहुत अधिक होना प्रधान कारण नहीं है ? इस दृष्टि से इक्षु लता और सोमलता, वेतस लता, बालों की लट, तथा लट्ठा, लाठी, में सर्वनिष्ठ गुण यहीं मिलता है।

अब हम अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हैं पद या पांव के उपांगों की बात कर सकते हैं

जघन
पावों के उपांगों की चर्चा कई दृष्टियों से बहुत उलझन भरी है । इसमें एक का दूसरे पर आरोपण और अन्य का अंशग्रहण समस्या को अधिक कठिन बनाता है। उदाहरण के लिए जाँघ को लें । एक ओर तो इसका अर्थ उसके वह भाग है जिसके लिए अंग्रेजी में थाई, या संस्कृत में ऊरु का प्रयोग होता है जिसमें फैलाव का भाव प्दूरधान है। दूसरी ओर इसमें वस्ति और नितंब के लेखर जानु पर्यंत के पूरे भाग का आशय ग्रहण किया जाता है । मूल संकल्पना बहुत पुरानी लगती है जिसमें आघात करने, फैलने चलने, जनने और जानने या अनुभव करने से जुड़ी क्रियाओं को एक दूसरे पर आरोपित कर दिया गया है. कामक्रीडा को एक और हिंसा के रूप में कल्पित किया गया जो देशज प्रयोग मारना में व्यक्त होता है। जंग और जंघ की ध्वनिगत और अर्थगत निकटता सर्वविदित है। कामाचार छांदोग्य उपनिषद में जीवन के यज्ञ में से एक यज्ञ माना गया है और यज्ञ का अर्थ होता है उत्पादन इसको समझने के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त कुछ शब्दों और सायणाचार्य द्वारा उनकी व्याख्या पर ध्यान देना उपयोगी होगाः
जंघनत् (3.53.11) भृशं हतवान्,
जंघनन्त (2.31.2) अत्यर्थं गच्छन्ति,
जंघाम (1.116.15) जंघोपलक्षितं पादं,
जघन्थ (3.30.8) हतवानसि,
जजस्तं (4.50.11)युध्यन्तं, (7.97.9) उपक्षयतं,
जजान (2.12.7) जनयामास, (3.32.8) उत्पादयामास,
जज्ञतू (7.90.3) जनयामासतू; जज्ञानं (6.21.7) प्रादुर्भवत्, (6.38.5) प्रादुर्भवन्तं,
जज्ञाना (5.33.5) उत्पादयन्तः,
जज्ञिरे (1.64.2) प्रादुर्बभूव,
जज्ञिषे (2.1.14) उत्पादयसि, (8.15.10) प्रादुर्भवसि,
जज्ञिषे (5.35.4) उत्पद्यसे
जज्ञुः (7.62.4) ज्ञातवन्तः

लगता है इसकी आदिम संकल्पना में ही घन, जंह और जन का तिहरा दबाव था। आ जंघन्ति सान्वेषां जघनाँ उप जिघ्नते ।…6.75.13

Post – 2018-07-21

यह गली आखिरी है अन्धी है
फिर भी आगे कई मुकाम तो हैं।
मुकाम=मकान

Post – 2018-07-20

टुकड़े टुकड़े कर के फर्माने लगे
जुड़ न सकता हो तो कीमा ही बना

Post – 2018-07-20

कौन कहता है बुढ़ापे ने कर दिया बेदम
दुखों का बोझ अकेले उठा लिया मैंने।
जो काम दौरे जवानी में हो न पाया था
वह काम इतने तजुर्बे से अब किया मैने।

Post – 2018-07-20

#आइए_शब्दों_से_खेलें(२४)
पांव, चरण, लात,

पांव के डग बहुत लंबे हैं। इसे बोलियों से लेकर यूरोप की भाषाओं तक फैला पा सकते हैं। चाहें तो तमिल के पो – जाना से जल की एक ध्वनि, पो (पा/पी/पे/पो) से सिद्ध कर सकते हैं, और यदि मेरी मानें तो चलते समय पाँव के जमीन पर रक्खे जाने के साथ उत्पन्न ध्वनि ‘पद्’ से उद्भूत मान सकते हैं ( यहां मैं व्युत्पन्न करने की जगह उद्भव का प्रयोग जानबूझ कर कर रहा हूँ। )

परन्तु यहां एक समस्या है। पद शब्द देववाणी का है। देववाणी में हलन्त उच्चारण तो हो नहीं सकता। पांव के गिरने में जो आकस्मिकता है, वह अजन्त पत से पूरी नहीं होती। इसके अभाव में अनुनादन का तर्क व्यर्थ हो जाता है। ऐसी स्थिति में यह समझना होगा कि आकस्मिकता की समस्या को देववाणी कैसे सुलझाती थी? यह था, अजन्त (स्वरयुक्त अन्तिम अक्षर) से पहले उसी का हलन्त घुसा कर। सवर्णसंयोग या मिथ की प्रवृत्ति के पीछे यह प्रधान कारण प्रतीत होता है। पत् के स्थान पर पत्त, पद के स्थान पर पद्द, और इसी तरह अन्य पच्च, पट्ट, खट्ट, सत्त, सट्ट, आदि । कहें, देववाणी में पांव के लिए पद नहीं, पद्द का प्रयोग होता रहा होगा।

समस्या एक और है। जब पाँव की बात की जा रही है तो इसमें केवल मनुष्य नहीं, दूसरे जानवरों के पांव भी आते हैं जिनमें कुछ के खुर भी होते हैं। फिर जमीन की कठोरता और मृदुता के अनुसार पांव की ध्वनि अलग अलग हो सकती थी। इसलिए इसके अनुनादी शब्द पत, पद, पट, पड (पत्त, पद्द, पट्ट, पड्ड) कई हो सकते थे पर पांव, पैर नहीं, यहां तक कि पात/पाद आदि भी नहीं। इसके बाद भी ये सभी समस्रोतीय हैं। इसका रहस्य क्या है?

पत, पट (पत्त/पद्द, पट्ट/टप्प) की ध्वनि पत्ती के गिरने, पानी की बूँद के गिरने, या किसी पक्षी के पंख से भी पैदा हो सकती है और इससे उनकी संज्ञाएं बन सकती हैं और इस तरह एक ही ध्वनि वाले कई शब्द (समनादी या homophonic) व्यवहार में आ सकते है। पत्ते के हवा में उड़ने से भी ध्वनि (परपर, फरफर, फड़फड़) पैदा हो सकती हैं जिसे पर्र, फर्र, पड़ (तु. करें- गम् >गो/गोरू; पड़>पाड़ा पड़रू) के रूप में अनुनादित किया जा सकता है। पत की साझी ध्वनि का पांव, पत्ती, पानी में समान होने के कारण सभी की एक संज्ञा पत्त/पद्द हुई। शेष दो की एक अन्य संज्ञा बन गई। अर्थात उसका एक पर्याय भी हो गया। समनादी सगोत्रता के कारण इनके पर्याय से वह शब्द भी प्रभावित हो सकता है, जिसकी ध्वनि या अनुनाद रकारयुक्त नहीं होते। अब इनकी चौबन्दी पर ध्यान दें:

१. (क) पत् = पंख की ध्वनि, (ख)पतन=उड़ान, पतनक- पंचतंत्र में एक कौए का नाम; (ग) पताति, पप्तन, आदि क्रिया रूप; (घ) पतंग = सूर्य (दिव: पतंग), (ङ) kite;
(२) पर =(उड़ने के साथ र-कार युक्त पर्, फर् के कारण) पंख, पर्ण = पंख, सुपर्ण =पक्षी (सुपर्ण एक आसते; द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया), परेवा, परिन्दा)।
(३) (क) पक् / पंक = पंख की ध्वनि, (ख) पक्ष/ पंख/पख/ पाख (ग) पक्षी/ पांखी/ पाखी (घ) पक्ष, पाख, (ङ) दो समान भागों में बटा और परस्पर जुड़ा कुछ भी, जैसे मकान के मुंडेर से फैल दोनो पाख, महीने के पखवारे, जुए के दोनों भाग।
अब इसी की तरह पत् की ध्वनि से पत्ता, पर्ण, पत्र, पान, पतन जो उड़ान की जगह अध:पतन का सूचक होता है, पातन, पातक, पत्तल, पतूखी, पातर/ पतला, पट, पाती, पन्ना आदि ।
पानी के मामले में पत/पट/टप बूंद गिरने कि ध्वनि, पत = पानी> पतवार, पतन/ पातन – नीचे गिराना, भरना, पान- पीना, पानी, पातर/पतला – घोल में सान्द्रता में कम या जल की मात्रा की अधिकता आदि।

यहां हम जो सुझाव रखना चाहते हैं वह मान्यता नहीं मात्र प्रस्ताव है कि पत् की ध्वनि के कारण पंख, पत्ता, पानी से समनादी homophonic संबन्ध ही हो सकता है जिससे पद/पाद में उनके विकारों को पद के नामभेदों में रकार ( पैर, para, parallel, pair, parity)’ पंख के अनुनासिक का नासिक्य प्रभाव (पाँव, पाँवड़ा) और पन्ना की तरह पद पन में बदला होगा (पनहा – खोए पशु के पांवों के निशान पहचानते हुए उसके वर्तमान ठिकाने पर पहुँच कर लाने की फीस, पनही/ उपानह जैसे शब्द बने होंगे) कारण ये ध्वनियाँ पद की गिरने की नैसर्गिक ध्वनि में नहीं हो सकतीं।

हम यहां नाम के पर्यायों में समनादी शब्दों के अलक्ष्य दबाव को स्पष्ट करना चाहते थे।पता नहीं कर सके या नहीं।

अंग्रेजी में एक ओर तो यह फुट बना दूसरी स्वरभेद के साथ pedi, paddle, pedestrian आदि में लातिन के माध्यम से पहुंचा। para के विषय में हम विचार कर आए हैं, परन्तु न-कार युक्त पन्- की क्या fund, fundamental, और foundation के पीछे भूमिका हो सकती है?

चरण
चरण जल की चर/सर ध्वनि से निकला है, और यहां गति के आशय में प्रयुक्त होने के कारण चलने वाले अंग का सूचक बना है इसलिए पंडितों की उद्भावना प्रतीत होता है। इसका प्रयोग इसीलिए साहित्य में अधिक और सामान्य बोलचाल में कम होता है। कविता के चरण और आदमी के पांव। यू पद कविता के भी होते हैं पर पूरी कविता को समेट लेते हैं या भाषा में एक खंड तक सिमट कर रह जाते हैं। चर क्रिया के रूप में बोलियों से लेकर ऋग्वेद और संस्कृत ही नहीं यूरोप तक (chariot, carry, carrier, car) तक व्याप्त है और बोलियों में तो यह चरने, चराने, चरी, चारा आदि में अर्थोत्कर्ष भी पा सका है, परन्तु चरण के रूप में ऋग्वेद में यह आचरण, संचरण, चरण (गति), चरणीय, विचरण, उपाचरण, प्रचार आदि रूपों में ही इसका प्रयोग हुआ है। एक स्थल पर ‘मृगाणां चरणे चरन्’ प्रयोग आया है पर यह भी रफ्तार के ही आशय में है। इसके विपरीत पद का प्रयोग स्पष्टत: पांव (त्रेधा निदधे पदम् ; अपदे पादा प्रति धातवे क:) के अर्थ में, है यद्यपि गन्तव्य या स्थान (तद् विष्णो: परमं पदं) के आशय में भी इसका प्रयोग हुआ है । चर का प्रयोग जहां संभव था वहां भी दूत (यमस्य दूतौ चरतो जनां अनु) या स्पश (देवानां स्पश इह ये चरन्ति) हुआ है।

एक रोचक बात यह कि वैदिक या संस्कृत में पैर का प्रयोग नहीं हुआ है पर यदि हमारा आकलन सही है तो यह यूरोप तक पहुंचा। जाहिर है बोलचाल की भाषा का सही पंरतिनिधत्व वेद भी नहीं करता और प्रसार इस बोलचाल की भाषा का हुआ था।

लात
लात से मिलते लता और लट शब्द ही दिखाई देते हैं। अर्थ या उद्भव समझ में नहीं आता। ऐसा भी नहीं लगता कि यह विजातीय या वैभाषिक शब्द है। अभ्यस्ति के आशय में हिन्दी का सबसे सटीक शब्द ‘लत’ अवश्य इससे निकला है। लात का प्रयोग अमर्यादिद कथनों – लात मारना, लतखोर, आदि में ही होता है। संभव है कल को किसी अन्य सन्दर्भ में इसका अर्थ खुले।
लात से मिलते लता और लट शब्द ही दिखाई देते हैं। अर्थ या उद्भव समझ में नहीं आता। ऐसा भी नहीं लगता कि यह विजातीय या वैभाषिक शब्द है। अभ्यस्ति के आशय में हिन्दी का सबसे सटीक शब्द ‘लत’ अवश्य इससे निकला है। लात का प्रयोग अमर्यादिद कथनों – लात मारना, लतखोर, आदि में ही होता है।

लात का संंबन्ध लाट से लगता है। इसके दो रूप मिलते हैं। एक कृत्रिम जलाशयों के बीच मे गाड़ा जाने वाला लकड़ी का खंंभा या स्तंभ जो एक तो पानी की गहराई का संकेत देता था, दूसरे यदि कोई जलाशय को पार करने के इरादे से तैरने को उतरा हो और चौड़ाई का सही अनुमान न लगा पाने के कारण थक जाय तो इसका सहारा ले कर सुस्ता सके।
अशोक ने ऐसे स्तंभ अपने धर्मोपदेश लिखवाने के काम के लिए तैयार कराए। इनके साथ सुविधा यह थी कि ऊँचाई के कारण इन्हें दूर से ही लक्ष्य किया जा सकता था।

हमारे प्रयोजन के लिए लात स्तंभ या खड़ा होने का आधार या stand। अपने पांवों पर खड़ा होने के मुहावरे को चरितार्थ करने के कारण इसका नाम लात पड़ा।

#आइए_शब्दों_से_खेलें

Post – 2018-07-19

नीरज वाक्सिद्ध कवि (थे) हैं। दिनकर की तरह। बच्चन जी से इस माने में कुछ ऊपर ।

Post – 2018-07-19

सच के आगे हजार पर्दे हैं
सभी पर्दे उठा नहीं करते।
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