आइए शब्दों से खेलें (२6)
जब हम कहते हैं जघन देववाणी से आया हुआ शब्द है तो इसका कारण यह कि घोष महाप्राण ‘घ’ सारस्वत बोली का नहीं हो सकता। परन्तु इसमें यह भी निहित है कि देववाणी में यह ‘जघन’ नहीं ‘घघन’ रहा होगा, जो ‘घन’ के आवर्तन से बना शब्द है (घनाघनः क्षोभणः चर्षणीनाम्)। जैसे क-कार संस्कृत में च-कार हो गया उसी तर्क से *घघन >जघन हो गया। ‘घन’ कूटने से उत्पन्न ध्वनि का अनुनाद था और संस्कृत में ‘हन्’ हो गया। इस न्याय से जघन सारस्वत प्रभाव में जह्न>जह्नु हो गया।और फिर जानु, फा. जानू बना।
यह मेरा अपना अनुमान है कि संभवत चंबल (यमुना) और गंगा के संगम से जो जघनाकार आकृति बनती है, उसको दो धाराओं के स्थान पर दो पावों
के (जिससे चलती हुई वे वहों तक पहुंची थीं) रूप में कल्पित किया गया। प्रवाह को गमन के रूप कल्पित किया गया है यह गं-गा, सं-गम, त्रिपथ-गा से समझा जा सकता है (कं, गं का अर्थ जल है। जल की गतिशीलता से ही कम्/गम् धातुएं बनी हैं) । इसके कारण इन नदियों के मिलन स्थल को जघन या जह्नु के रूप में कल्पित किया गया था और इससे आगे की धारा को जाह्नवी कहा जाता था।
पौराणिक कल्पना में इसकी व्याख्या में जो कथा रची गई उसमें गंगा के प्रवाह पथ में तपसाधना करने वाले जह्नु गंगा की धारा से विचलित और क्रुदध हो कर उसे चिल्लू में भर कर पी जाते हैं। काम तो बड़ा किया उन्होंने, का नहिं बाभन करि सके का न पुराण समाय। फिर तपोबल से क्या संभव नहीं है।
पर पुराणकथा गढ़ने वाले दो बातें भूल गए। गंगा समुद्र तो थी नहीं कि अगस्त्य की तरह एक बार पी लिया तो छुट्टी हुई। उनकी पीछे की ओर से आने वाली धारा को एक झटके में पीकर छुट्टी तो की नहीं जा सकती थी। दूसरे तपोबल और योग साधना के लिए ऋषि नहीं असुर प्रसिद्ध रहें हैं, यज्ञ विध्वंसक और यज्ञवर्जित शैव और योगी प्रसिद्ध रहे हैं। ऐसी अनहोनी उनसे ही संभव थी। उनकी घोर भर्त्सना करने वाले उनके कीर्तिगायक कैसे हो गए। पर छोड़िए इन विवादों को। पुराणों में लिखा है तो कोई पेंच तो होगा ही जिसे हम समझ नहीं पा रहे।
हमारी समस्या तो यह है कि जह्नु ने अपनी खुशामद कराने के बाद गंगा को अपनी जानु चीर कर प्रवाहित किया। जानु अर्थात् जह्नु। सवाल यह है कि उनका नाम जह्नु था इसलिए भगीरथ के प्रयत्न से वहां तक लाई गई भागीरथी का आगे का नाम जाह्नवी पड़ा, या जह्नु के जह्नु से प्रवाहित नदी का नाम जाह्नवी पड़ा। कहानी के अनुसार उन्होंने अपने जह्नु को चीर कर गंगा के प्रवाह को संभव बनाया। पर इस सर्जरी की जरूरत नहीं होनी चाहिए थी। जघन या जह्नु की व्याप्ति में पानी निकलने की व्यवस्था प्रकृति ने ही कर रखी है और उससे निकली हुई ही जाह्नवी कलि-मल-हारिणी है यह बताने की जरूरत नहीं।
अपनी महिमा कायम रखने के लिए ब्राहमणों ने अपनी ही परंपरा और संस्कृति को किस मूढ़ता से विकृत और कलुषित किया है, इसे ब्राह्मण नहीं बता सकता। आत्मालोचन और आत्मशुद्धि का काम हिन्दू समाज की रक्षा के लिए स्वयं परंपरावादी ब्राह्मणों को करना है अन्यथा वे न अपनी रक्षा कर सकते हैं न हिन्दुत्व की, जिसकी सबसे अधिक चिंता उन्हे ही सवार रहती है।
हमारे लिए शब्द यात्रा देववाणी के घन>घनाघन >जघान>जघन>सारस्वत प्रभाव से जघन>जघ्न>जह्न/जह्नु>पूर्वी रूपान्तर जानु । शब्द में आए इन परिवर्तनों के माध्यम से हम कुछ अनुमान बहुत आसानी से लगा सकते हैं। पहला यह कि पौराणिक कथाओं में विचत्र चरित्रों की सृष्टि बहुत बाद में बौद्धों, जैनियों और योगियों के बढ़ते हुए प्रभाव को कम करने के लिए की गई और इसके लिए तीन तरीके अपनाए गए। 1. उनकी घोर भर्त्सना जो गालियों के स्तर पर उतर आती है जैसे लुच्चा, नंगा, बुद्धू, कुत्सित, चाई आदि। 2. जनता में लोकप्रिय, बल्कि श्रद्धा के बिन्दु बन चुके मूल्यों, आचारों, व्यवहारों को अपना लेना, जैसे अहिंसा, योगसाधना आदि। इन सभी क्षेत्रों असाधारण सिद्धि पाने वाले काल्पनिक चरित्रों की सृष्टि, जिनमें असाधारण योद्धा- परशुराम (यद्यपि परशुराम ब्राह्मण क्षत्रियद्रोही तो हैं), द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि योद्धाओं, शाप से अनर्थ करने वाले दुर्वासा, और क्रोधाग्नि से दृष्टिमात्र से असंभव संहार और नदी से लेकर समुद्र तक पी जाने वाले चरित्रों की सृष्टि की जाती है और महर्षि, ब्र्ह्मर्षि कहे जाने वाले वसिष्ठ आदि के तपोबल की बात की जाने लगती है और उनके नाम के साथ मुनि लगाया जाने लगता है।
योग और तपोबल से आतंक बौद्धमत के स्खलन और योगाचार के उत्थान से पैदा हुआ इसलिए हम कह सकते हैं कि यह कथा तीसरी चौथी ईस्वी सदी में रची गई जब कि जाह्नवी नाम पुराना है।