जिंदगी अपनी न थी, मौत भी क्यों कर होती
लोग रोते रहे मैं हंसता बला से गुजरा।
Month: February 2019
Post – 2019-02-13
हुस्न है और है नजाकत भी
चाहने वालों की कमी है शायद
इसका अंजाम हम भी देखेंगे
तुम हो और हम भी यहीं हैं शायद।
Post – 2019-02-13
नहीं, यह भी नहीं, वह भी नहीं,
सब कुछ छलावा है
मगर तुम सामने हो तो समझ लो खत्म है दुनिया।
Post – 2019-02-13
हम कहें, तुम सुनो तो बात करें।
तुम भी अपनी कहो तो बात करें।
कुछ तो हो ऐसा गुफ्तगू में मगर
सब सुनें और सभी बात करें ।।
Post – 2019-02-13
न विश्वसेत् अविश्वस्ते
पिछली शताब्दी के अंतिम चरण में एक विशेष सोच के इतिहासकार यह सिद्ध करने के लिए पूरी शक्ति लगा रहे थे ऋग्वेद में जिस सरस्वती का उल्लेख है वह ईरान में बहती थी। रामायण में जिस अयोध्या का वर्णन है ईरान में था। एक विद्वान ने सरस्वती की सहायक नदियों को भी ईरान में स्थापित कर दिया था। इन सभी के पीछे इस बात का प्रयत्न था कि पुरानी कहानी को फिर दोहराया जाए कि आर्य नामक जाति अथवा आर्य भाषा भाषी समुदाय का भारत पर आक्रमण हुआ था और भारतीय सवर्ण समाज उसी का प्रतिनिधित्व करता है। यह एक पुरानी और निराधार मान्यता थी जिसका खंडन पुरातात्विक उत्खननों से हो रहा था और इसका उपयोग मैंने भी अपनी पुस्तक में किया था । आरंभ से ही इतिहास और पुराण निहित स्वार्थों के हथियार के रूप में काम में लाए जाते रहे हैं। इतिहास को आवश्यकता के अनुसार तोड़ मरोड़ कर पेश करके मिथक में बदलने की प्रवृत्ति रही है, और मिथकों को इतिहास का सत्य बना कर पेश किया जाता रहा है। परंतु इस इस इस चरण पर भारतीय राजनीति की विकृतियों के कारण इसने सांप्रदायिक खेमाबंदी का रूप ले लिया था। इसमें समकालीन से लेकर इतिहास तक का सच क्या है, यह महत्वपूर्ण नहीं रह गया था। अधिक महत्वपूर्ण यह हो गया कि कौन सा चित्रण किसके राजनीतिक हितों के अनुरूप है।
आक्रमण का खंडन हिंदुत्ववादी राजनीति को रास आता था, इसलिए मेरी वामपंथी रुझान के बावजूद, वामपंथी होने का दावा करने वाले इतिहासकार मेरी स्थापनाओं के विरुद्ध खड़े थे। उनकी इकहरी सोच में यदि हिंदुओं को आर्यों के जत्थे के रूप में आक्रमणकारी, हैवान और उतपीड़क सिद्ध किया जा सके तो इससे भारतीय सामाजिक समस्याओं से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है और मध्यकाल में मुस्लिम शासकों द्वारा किए गए अन्याय और उत्पीड़न को जैसी की तैसी सिद्ध करके सामाजिक विद्वेष को कम किया जा सकता है। यह समाधान नहीं था, क्योंकि जिन दिनों आर्यों के आक्रमण को लगभग सभी मान चुके थे, उन दिनों ही सांप्रदायिक विद्वेष को उग्र बनाकर देश का बंटवारा तक किया गया था। किसी अल्पकालीन उद्देश्य के लिए इतिहास को विकृत करना, विकृतिकरण के खतरनाक खेल को आरंभ करने जैसा है, जिसमें सत्ता में बैठे हुए लोग अपनी जरूरत के अनुसार इतिहास को बदलते समाज को इतना गुमराह कर सकते हैं कि वह अर्धविक्षिप्तता की स्थिति में पहुंच जाए। दक्षिणपंथी यदि समर्थन कर रहे थे इसका कारण यह नहीं था इतिहास के सत्य से उनको अधिक गहरा प्रेम था, बल्कि इसलिए कि मेरी स्थापना से उन्हें राजनीतिक लाभ दिखाई दे रहा था। मैंने वैदिक सभ्यता के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सभी पक्षों को, यहां तक की सभ्यता की निर्माण प्रक्रिया को समझने का प्रयत्न किया था, अतः कृषि के आरंभ से नगर सभ्यता के उत्थान तक की विकास यात्रा का चित्र तो प्रस्तुत किया ही था, हड़प्पा सभ्यता के ह्रास और पुनर्समायोजन के साथ ही भाषा और संस्कृति के भारोपीय क्षेत्र में प्रसार तंत्र को भी स्पष्ट किया था।
दक्षिणपंथी तथा वामपंथी दोनों राजनीतिक धड़ों की इतिहास में कोई रुचि नहीं थी। दोनों आक्रमण हुआ या आक्रमण नहीं हुआ के सवाल पर एक दूसरे पर क्षेप्यास्त्र फेंक रहे थे। मुझे दोनों की सीमाओं को उजागर करना था इसलिए इस बहस में मेरी भी लंबी साझेदारी रही। मेरा प्रयत्न मात्र इतिहास की सचाई को नष्ट होने से बचाने का था और इसमें कुछ दूर तक मुझे सफलता भी मिली। आक्रमण की बात करने वाले अंततः हथियार डालने को बाध्य हुए, पर फिर भी अपनी से बाज नहीं आए। यह उनकी नैतिक और बौद्धिक अधोगति की समस्या है। इस पर हम कुछ नहीं कहेंगे। उस प्राचीन इतिहास में किसी की रुचि आज तक नहीं जगी, इस बात का खेद अवश्य है।
परंतु जिस समय यह बहस चल रही थी उस समय तक बिसोतून (अं. बहिस्तून) में दारयावोहु (धृतयश? Dārayavauš ), composed of 𐎭𐎠𐎼𐎹 dāraya-‘to hold’ + 𐎺𐎢 va(h)u- ‘good’, meaning “he who holds firm the good”, विकीपीडिया ) के शत्रु-दमन के उपलक्ष्य में लिखवाए शिलालेख का निर्वचन हो चुका था। उनकी समस्या का समाधान इस शिलालेख में था। यूरोपीय विद्वानों ने इसका गहन विवेचन नहीं किया और जहां जरूरी हुआ सतही उपयोग किया। स्वतंत्र भारत के इतिहासकारों की जिम्मेदारी थी वे अपनी सार्थकता सिद्ध करने के लिए औनिवेशिक इतिहास-लेखन की दबोच से बाहर निकलते और उपलब्ध स्रोतों का स्वतंत्र विश्लेषण करते। वर्तमान के युद्ध केवल वर्तमान में नहीं लड़े जाते, इतिहास की व्याख्या के द्वारा भी लड़े जाते हैं, और इतिहास की व्याख्या में हारने अर्थात् गलत सिद्ध होने वाला अपनी कब्र स्वयं खोदता है जिसके उहाहरण सामने हैं।
दारयावोहु, कुरु ( کوروش Kuruš; c. 600–530 BC) का अपना पुत्र न होने के बाद भी, उसके विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना था। अपने बाहुबल से अपनी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह करने वालों का दमन करने के उपलक्ष्य में यह शिलालेख अक्कदी, बेबीलोनी और पुरानी फारसी लिपियों में अंकित कराया था। क्या हमारे इतिहासकारों में किसी को इस शिलालेख के विषय में कुछ पता नहीं था जो हमारी आशंकाओं का निवारण करने में सहायक था।
हम इस शिलालेख के कुछ निर्णायक अंशों की ओर ध्यान दिलाना चाहेंगे।
क्या आपको पता है कि यज्ञ के आयोजन और विवाह आदि के अवसरों पर पिछले सात पीढ़ियों के पुरखों को आमंत्रित किया जाता रहा है और प्रतीक रूप में उनका गोत्रोच्चार होता रहा है। यह परंपरा ऋग्वेद से लेकर हमारे ग्रामीण परिवारों तक में जीवित है। शहरों में आकर बसे लोगों ने आधुनिक शिक्षा प्राप्त महिलाओं ने इसे भुला दिया है। दारियोश अपने शिलालेख में अपना परिचय देते हुए अपने से पीछे की पांच पीढ़ियों का हवाला देता है। वह अपने को आर्य घोषित करता है, और आर्यपुत्र होने का दावा करता है। अर्थ है, कुलीनता का दावा। मैं दारयावोहु (धृतयश?) मेरे पिता विश्तास्प थे, उनके पिता अर्शाम(अर्शसान?) थे, अर्शाम के पिता अरियारम्नेश (आर्यमनस्?), उनके पिता सिश्पिश (शीर्षविश?) और उनके पिता हखामनिश (सखामणि?)थे।
इसीलिए हमें हखामनिश (सखामणि? ध्यान रखें कि मीद जनों को मित्रोपासक बताया गया है । इस दृष्टि से इनका संबंध मितन्नियों से जुड़ता है। ) मुझसे पहले की आठ पीढ़ियां राजकुलीन हैं । मैं नवां हूं।
दारयावोहु कहता है कि असुर महान की अनुकंपा से मेरे आधीन ये देश हैं: Persia [Pârsa] पार्श, एलाम (ऊव्ज), बेबीलोनिया (बाबिरस), असीरिया (अथुरा), अरैबिया (अरबाय), ईजिप्ट (मुद्राय) और समुद्र तटीय देश , लीदिया (स्पर्द), यवन (आयोनिया), माद (मीदिया), अर्मिना (अर्मीनिया), कतपतुक (कप्पादोसिया), पार्थव (पार्थिया), ज़्राक (द्रांगिआन), हरैव (आरिया), ऊवारज़्मीय (चोरस्मिया), बाख्त्रिश (बैक्ट्रिया), सुगुद (सोग्दिया), गदार (गंधार), सक (सीथिया), थतगुस (सत्त्यग्यदिया), हरौवतिश (अर्कोशिया), मक (मक) कुल तेईस देश।
दारयावोहु के विशाल साम्राज्य में बार बार विद्रोह होते रहे। संभवतः है इसका आरंभ राज्य कुल के विद्रोह से ही आरंभ हुआ क्योंकि वह उस कुरु द्वितीय का पुत्र नहीं था, यद्यपि राज वंश का था। विद्रोहियों का दमन करने करने और उनको मौत के घाट उतारने पर वह गर्व प्रकट करता है। इनमें जिन व्यक्तियों नाम आया है उनको बदल कर जो नाम तैयार होते हैं आर्य भाषा के हैं। जिसका अर्थ है पूरे मध्य एशिया और पश्चिम एशिया आर्य जनों का प्रभाव विस्तार हो चुका था: ऊव्ज (एलाम) का मर्तिय नाम का एक पारसी, माद (मीदियाई) फ्रवर्तिश (प्रवर्ती) जो उवखस्त्र (उरुक्षत्र) का वंशधर होने का दावा करता था, सिश्ताक्ष्म, असगर्तिय , अपने को मरगियन (मार्गुस) का राजा बताने वाला,फ्राद (भ्रात); एक था अर्मीनाया का अर्ख (आर्क्ष),बेबीलोन में नबोनिदुस (नभोनिधि) का पुत्र नभोकुद्रासुर ; Nebuchadnezzar, [Nabu-kudra-asura]; एक था फारस का Bardiya जो कुरु का पुत्र होने का दावा करता था और जिसने फारसी लोगों को भड़काया।
प्रसंगवश यह याद दिला दें कि दारयावोहु ने अपने साम्राज्य का जो विस्तृत विवरण दिया है उसमें सिंधु से पश्चिम के भारतीय भूभाग का उल्लेख नहीं है। विद्रोह करने वालों में भी ईश्वर प्रदेश का कुल राजा नहीं है।यह संभव है की बाद की उसके दो उत्तराधिकारी को में से किसी ने क्षेत्र को भी अपने अधिकार में किया हो।रोचक बात यह है सिकंदर ने केवल दारयावोहु को पराजित किया था और उसी पर उसे पश्चिमी इतिहासकार विश्व विजेता भारत विजेता सिद्ध करते रहे।
हम इस शिलालेख के माध्यम से जिन तथ्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं वह यह कुरु, पांचाल आदि का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता। इनका उत्थान वैदिक सभ्यता के नागर चरण के ह्रास के बाद हुआ। हमारे साहित्य में उत्तर कुरु का जो वर्णन आता है वह उसी क्षेत्र का द्योतक है जिसे मीदिया के नाम से जाना जाता रहा है। मीदिया में मध्य एशिया के वे भाग भी आते हैं जहां हड़प्पा सभ्यता के उपकेन्द्र थे।
Post – 2019-02-11
न विश्वसेत अविश्वस्ते
(अधूरा)
पश्चिमी जगत जिस क्रूरता, कुटिलता और अमानवीयता के लिए हूणों की भर्त्सना करते हुए उन्हें असभ्य या बर्बर सिद्ध करता है वैसी ही क्रूरता, कुटिलता और अमानवीयता, पश्चिम का चारित्रिक गुण रहा है। वह उसी अनुपात में और उन्हीं कोनों में सभ्य हो पाया, जिस अनुपात में वह पूरब के संपर्क में आया और उसकी विशेषताओं को आत्मसात करने का प्रयास किया। चाहे यह संपर्क हड़प्पा के व्यापार-तंत्र के माध्यम से संभव हुआ हो, या लघु एशिया, सिंतास्ता और मीदिया में बसे भारतीयों के कारण रहा हो।
क्षेपक
[ मीदिया ( an area known as Media between western and northern Iran) के निवासियों को दूसरे फारसी लोगों से अलग एक
भिन्न भाषा बोलने वाला समुदाय माना गया है (an ancient Iranian people who spoke the Median language) जिनके लिए पुरानी फारसी भाषा में ‘माद’ का (The Medes (/miːdz/, Old Persian Māda-, Ancient Greek: Μῆδοι, Hebrew: מָדַי Madai) प्रयोग हुआ है। कहा जाता है कि इन्हीं के माध्यम से ईरान में अहुरमज्दा के उपासकों का ईरान में प्रवेश हुआथा। इनके विषय में जो जानकारी हमें पश्चिमी सूत्रों से मिलती है वह 585 BC की है। ये मित्र के उपासक थे (Religion: related to Mithra । हमारी यह सूचना विकिपीडिया पर उपलब्ध सामग्री पर आधारित है)। इनकी राजधानी एकबतना (Ecbatana) थी, जिसका शाब्दिक अर्थ है वह स्थान जहां लोग आकर जुटें (“the place of gathering”)। आप इसे महानगर का पुराना रूप कह सकते हैं। चाहे तो ‘एकवतन’ के रूप में भी पढ़ सकते हैं ; आप चाहें तो प्राचीनता पर गौर करते हुए इनको मितन्नियों से भी जोड़कर समझ सकते हैं और इसका मूल नाम ‘एकवर्तन’ कल्पित कर सकते हैं। ऋग्वेद में संभवतः इन्हीं के लिए मांदार्य का प्रयोग हुआ है। मैं अपनी बात स्थापना के रूप में नहीं रखना चाहता केवल प्रस्तावना के रूप में रखना चाहता हूं। इस पर विचार किया जाना चाहिए। साथ ही यह बताना चाहता हूं कि इन पर इसलिए विचार नहीं किया गया कि जिस फरेब को इतिहास बनाया जा रहा था वह इनकी जांच के बाद खंडित हो जाता। जिस विषय पर हम चर्चा कर रहे हैं, उसके हित में है कि हम इसके विस्तार में अभी न जाएं।]
अंग्रेजों ने कदम कदम पर जिस धूर्तता से अपना साम्राज्य स्थापित किया था, सत्ता में बने रहने के लिए उसी धूर्तता का प्रयोग विचार क्षेत्र में भी करते रहे। पश्चिम की श्रेष्ठता के मामले में यूरोप के दूसरे विचारक और लेखक भी उनसे सहयोग करते रहे। इसलिए उसे समझ लेने के बाद हमें मानविकी से जुड़े हुए प्रश्नों पर उनके निष्कर्षों से सहमत नहीं होना चाहिए था। उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए तथ्यों और प्रमाणों का अपने ढंग से प्रयोग करते हुए हमें उसी तरह अपने निष्कर्ष निकालने चाहिए थे जैसे वे और आप स्वयं भी अपने प्राचीन साहित्य और परंपरा में उपलब्ध सूचनाओं का एक स्रोत के रूप में उपयोग करते रहे और करना चाहते हैं।
यह चेतावनी कई बहानों से हम इसलिए दुहराते रहते हैं कि आज भी हमारे अधिकारी माने जाने वाले विद्वान पश्चिमी लेखकों पर अधिक भरोसा करते हैं और यह भरोसा तर्क-वितर्क किए बिना करते हैं।
हमारे पाठकों में अधिकांश लोग उन्हीं को पढ़ने और उनके माध्यम से ही इतिहास को समझने को बाध्य होने के कारण उनके द्वारा मान्य और बल-पूर्वक, बार-बार, दुहराई जाने वाली कहानियों को सत्य मान बैठते हैं। उनका खंडन होने पर दुविधा में पड़ जाते हैं, कि इस आदमी की बात को सही मानें जिसके आगे पीछे कोई नहीं है, पर बात पते की कर रहा है, या इतने बड़े पदों पर बैठे, देश-देशांतर में नाम कमाने वाले इतिहासकारों के मत को जो लगभग अंतर्राष्ट्रीय मान्यता का रूप ले चुका है।
देखना आपको यह चाहिए कि पुरानी मान्यताओं का किस आधार पर खंडन किया जा रहा है, उन मान्यताओं का कोई ठोस आधार है या नहीं, और उनसे भी पीछे लौटने पर कहीं भी कोई ऐसा ठोस आधार मिलता है या कि नहीं जिसका सम्मान करते हुए, मान्यताओं की इस पूरी श्रृंखला को विचारणीय तक माना जा सके। यदि ऐसा आधार नहीं मिलता तो समझना होगा कि चुनाव करते हुए कुछ को प्रस्तुत करने और कुछ को विचार परंपरा से अलग रखने या छिपाने और अपनी बात को मनवाने के लिए घालमेल करने की बाध्यता क्या थी। वैज्ञानिक सत्य के संदर्भ में मुख्यधारा और गौण धारा का तर्क नहीं चलता, क्योंकि विज्ञान की प्रत्येक नई स्थापना अपने समय तक की सर्वमान्य स्थापनाओं के विरुद्ध ही हुआ करती है, और प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति अकेला हुआ करता है।
वे अपनी राजनीतिक शक्ति और एकेडमिक धाक का किस सीमा तक दुरुपयोग कर सकते थे और करते रहे, इसका एक उदाहरण बोगाजकोइ के अभिलेख हैं.
Trade between the Indus valley and the Euphrates is, no doubt, very ancient. The earliest trace of this intercourse is probably to be found in the cuneiform inscriptions of the Hittite kings of Mitanni in Kappadokia, belonging to the fourteenth or fifteenth century B.C. These kings bore Aryan names, and worshipped the Vedic gods, Indra, Mitra, Varuna, and the Asvins, whom they call by their Vedic title Nasatya.
[These names were discovered by Prof. Hugo Winckler on a cuneiform tablet at the Hittite capital of Boghazkoi, in 1907. See Ed. Meyer in vol. 42 of Kuhn’s Zeitschrift,
and the discussions by Oldenburg, Keith, Sayce, and Kennedy in F.R.A.S. 1909, pp. 1094-1119.vide Rawlinson, Op.cit.3]
प्रमाण इतने अकाट्क्य थे कि इससे अलग, न कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता था, न ही निकाला गया। परंतु यह तो पश्चिम की बौद्धिक दबंगई को सहन हो ही नहीं सकता था। इससे तो इतने परिश्रम से तैयार किया गया तिलिस्म ही बिखर जा रहा था। अतः कुछ समय तक भूमिगत रूप में काम करने के बाद यह तर्क दिया किया जाने लगा कि हित्ती अभिलेखों की भाषा वैदिक से अधिक पुरानी है।
बात इससे भी न बन रही थी, क्योंकि देवता वैदिक थे, इसलिए यह सुझाया जाने लगा कि ऋग्वेद का एक भाग लघुएशिया में रचा गया था। पर सवाल फिर भी बने रह जाते हैं कि वेद की रचना करने वाले सारे के सारे भारत पहुंच गए, वेद जहां रचा जाना आरंभ हुआ वहीं न बचा रहा, न उसकी परंपरा रही। मार्क्सवादी विद्वानों कोइस तरह के प्रस्ताव कुछ अधिक रास आते हैे, इसलिए कोसंबी ने ऋग्वेद से इसका प्रमाण भी पेश कर दिया। ऋग्वेद में इष्टरश्मि प्रयोग देख कर यह कयास भिड़ाया कि आर्य तो चरवाहे थे। उनको ईंट से क्या लेना देना। निश्चय ही यह ऋचा लघुएशिया में रची गई होगी। सवाल यह कि यह ऋचा तो ऋग्वेद की सबसे बाद में रचे गए सूक्त में आई है। पर गुलाम अधिक बहस नहीं करते। जरूरत पड़ने पर वे यह भी सिद्ध कर सकते थे कि भारत पश्चिम से खोद कर लाया गया है। पहले यहां समुद्र था। इस खुदाई के कारण भूमध्य सागर बन गया और इधर गोंडवाना हिमालय से जुड़ गया। मुझे विश्वास है यूरोप के इतर अनुशासनों के विद्वान यूरोप की लाज बचाने के लिए अपने अपने विषयों की जानकारी को इसके अनुरूप ढाल लेते और भारतीय विद्वान इसे अच्छे गुलामों की तरह मान भी लेते।
Post – 2019-02-10
तुम जुदा हो तो एतराज नहीं
साथ रहने के फायदे भी थे !
Post – 2019-02-10
मिट गए सच को ढूंढ़ने वाले
पर्दे इतने कि है हासिल पर्दा।
Post – 2019-02-10
आइए चांद को फिर गौर से देखा जाए
कितना किस देश का, कितना है आशिकों के लिए।
Post – 2019-02-09
पूरब से पूरब की दूरी
यह बात उलटबांसी जैसी लगेगी कि पूर्व से पश्चिम की दूरी के मुकाबले, पूरब पूरब से अधिक दूर है। हम पूर्व के देशों के बारे में बहुत कम जानते हैं, जबकि पश्चिम के ऐसे देशों के बारे में अधिक जानकारी रखते हैं जिन्हें जेब में रखा जाए तो जेब फटेगी नहीं। पूरब के किसी देश में पहुंचने की तुलना में पश्चिम पहुंचना हमें अधिक आसान और अधिक आकर्षक लगता है।
ऐसा दो कारणों से है। हम मानते हैं कि हमें पूरब से कुछ नहीं मिल सकता, क्योंकि पूरब के सभी देश या तो पिछड़े हुए हैं, या, यदि किसी मानी में हमसे कुछ आगे भी हैं तो इसलिए कि उन्होंने पश्चिम से कुछ ग्रहण किया है, और केवल उसी अनुपात में हमसे आगे हैं, जिस अनुपात में उन्होंने पश्चिम से कुछ सीखा है। अर्थात् उनके पास हमें देने के लिए अपना कुछ नहीं है, इसलिए हमें यदि कुछ प्राप्त हो सकता है तो पश्चिम से सीधे संपर्क के माध्यम से ही।
खयाल गलत नहीं है, बस इसमें इतनी कमी रह जाती है, कि पश्चिम आज भी पिछड़ेे से पिछड़े देश से उसका जो कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है उसे प्राप्त करने की चिंता में रहता है और प्राप्त करके अपना बना कर उस पर अपना दावा पेश करना चाहता है- वह आपकी बौद्धिक संपदा-नी हो, वानस्पतिक विशिष्ट उत्पाद – नीम, हल्दी, बासमती आदि़ हों, या खनिज द्रव्य। उसकी निगाह आपके प्रतिभाशाली युवकों पर भी रहती है । शिक्षित और प्रशिक्षित आप करते हैं और वे उनके काम आते हैं। आप की अर्थनीति क्या होगी यह जिस सीमा तक पर्दे में रहकर विश्व बैंक निर्देशित करता है, उससे अधिक आप की शिक्षा नीति क्या होगी, किस सीमा तक किन चीजों को, किस रूप में पढ़ाया जाएगा, इसका निर्धारण आप नहीं करते। उनकी योजनाओं और हमारी जरूरतों के बीच एक अदृश्य रिश्ता है जिससे एक दुश्चक्र पैदा होता है। आप अपनी शिक्षित और प्रशिक्षित प्रतिभाओं का उपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि आप पिछड़े हैं, आप का आधारभूत ढाँचा (इंफ्रास्ट्रक्चर) उनका उपयोग करने के अनुरूप नहीं है, और आप पिछड़े रहेंगे क्योंकि आपके पास आगे बढ़ने के लिए अपेक्षित प्रतिभाओं का अभाव है।
इसका दूसरा कारण यह है हम लंबे अरसे तक पराधीनता की स्थिति में रहे हैं और इसलिए सत्ता का हस्तांतरण हो जाने के बाद भी चेतना के स्तर पर हम आज भी पश्चिम के दिमाग पर निर्भर करते हैं। उतना ही जानते हैं जिसे अपनी योजना के अनुसार वे हमें अवगत कराना चाहते हैं – सो जानहिं जेहि देइ जनाई।
इसके पीछे पश्चिम का विकसित ज्ञान, प्रकाशन और सूचना उद्योग है जो उसके सामरिक उद्योग की तुलना में अधिक शक्तिशाली है और उसके हरावल दस्ते का काम करता है। उससे मुक्ति का कोई रास्ता निकालने में पूर्व के लोग अभी तक असफल रहे हैं, या जो जिस सीमा तक सफल हुआ है, वह उस अनुपात में पश्चिम को नकार कर ही सफल हुआ है। इसके अभाव में उनमें यह सामर्थ्य है कि वे पूर्व के लोगों का इस्तेमाल उनके हितों के विरुद्ध, अपने स्वार्थों की रक्षा या वृद्धि के लिए कर सकें और हमारी भावनाओं को उत्तेजित करके हमें उसी तरह अपनी इच्छा के अनुसार चला सकें जैसे हम अपने पालतू पशुओं को चलाते हैं।
इससे जुड़ी है एक चुनौती। पश्चिम का सहारा लेकर आप न पश्चिम को जान सकते हैं न पूर्व को। आप अपना नाम तक नहीं जान सकते, यदि आप इस योग्य हो जाएं कि आपका नाम वे लेने लगें। तब लिखने में आप भले नैपाल रहें, परंतु उच्चारण में नाईपाल हो जाएंगे और जो आपको बिल्कुल नहीं जानता है वह सोच सकता है कि यह हजामत करने वालों का कोई चेनवर्क है। अंग्रेजी जबान पर चढ़कर बनारस, बेनारस हो जाता है जिसे सुधार कर कोई वैयाकरण बिना-रस बना सकता है। क्या आप उन व्यक्तियों या स्थानों का सही नाम जानने की फिक्र करते हैं जिन्हें पहले यूनानी (Greek) और फिर बाद में पुर्तगाली और फिर अंग्रेज बिगाड़ कर चले गए और हमारी पुस्तकों में उन्हीं के बिगड़े हुए नामों को बार-बार दोहराया जाता है।
जब हम कहते हैं कि सत्ता-हस्तांतरण तो हुआ परंतु हम स्वतंत्र नहीं हुए, तो इसका एक कारण है। सत्ता एक कार्यभार (चार्ज) है, उसे बिना किसी बदलाव के किसी दूसरे को सौंपा जा सकता है। परंतु स्वतंत्रता एक मनोवृत्ति है जो लादी या सौंपी नहीं जाती, हमारे अंतर्मन से उत्पन्न होती है और अपनी कीमत मांगती है।
गुलाम कामचोर होता है। काम चोर इसलिए होता है कि वह अपने काम को अपना काम समझ करके नहीं करता। अपने मालिक का काम समझ कर करता है। इसलिए उसे काम नहीं करना है, मालिक को उसके माध्यम से अपना काम कराना है। यह काम वह दंड से करा सकता है, या पुरस्कार से करा सकता है। काम लेना उसका काम है, काम करने वाले का नहीं। अधिक पाने के लिए वह कम से कम काम करेगा। इसके चलते गुलाम समाजों में कामचोरी की प्रवृत्ति और अय्याशी की ख्वाहिश उसी अनुपात बढ़ जाती है। यदि ऐसा न होता तो हमारे गद्दी नशीन विद्वानों ने अपना नाम तो पता किया होता। अपने पड़ोसियों का नाम तो समझा होता। उनके ज्ञान पर भरोसा कर के हम अपने पुरखों, पड़ोसियों और अपने आप को तो न भूल जाते।
उदाहरण के लिए जमोरिन का नाम लीजिए। यह भारतीय राजा था जिसने पुर्तगालियों को पनाह दी थी इसका नाम जमोरिन तो नहीं हो सकता। इसका नाम समुद्रजित था।
आप जानते हैं साइरस ने अपना विशाल साम्राज्य कायम किया था। शायद आपको यूनानियों द्वारा Cyrus साइरस कहे जाने वाले इस सम्राट का सही नाम जानने की भी इच्छा पैदा न हुई हो, क्योंकि जिज्ञासा का भी ज्ञान से और ज्ञान की स्रोतों से अभिन्न संबंध है। पूरू या पोरस के बारे में तो आप जानते हैं। यह वैदिक परंपरा से जुड़ा नाम है, परंतु उसी से मिलते जुलते कुरु का नाम ईरानी में पहुंचने के कारण नहीं, बल्कि यूनानियों द्वारा बिगाड़े जाने के कारण आप पहचान नहीं पाते। फारसी में उसे कुरु کوروش Kuruš; के रूप में ही जाना जाता रहा है।
इसका ही पुत्र था दारयावश (यशोधर) Dārayavauš जिसे डेरिअस लिखा और कभी कभी दारा के रूप में पढ़ा जाता है। इसका परिचय कल देंगे। परन्तु यहां केवल यह सवाल कि इतिहास में क्रान्ति करने वाले विद्वानों को क्रान्ति करने से पहले इतिहास को जानने में तो हमारी मदद करनी चाहिए थी कि हम यह जान सकें कि इतिहास का सच क्या है। हम किसे और क्यों बदलने जा रहे हैं और किस आधार पर। यह शिकायत हमें केवल वामपंथी इतिहासकारों से ही होती ताे उनकी भर्त्सना करके खुश हो लेते। राष्ट्रवादी कह कर दरकिनार किए जाने वाले इतिहासकारों से भी हमें मदद नहीं मिलती। अतः यह मानसिक गुलामी की समस्या है। सत्ता के भूखे लोगों ने सत्ता पाने के बाद, कम से कम अपना संविधान लागू करने के बाद हमें समझा दिया कि हम स्वतंत्र हो गए और हमने मान लिया कि हम स्वतंत्र हो गए। हम एक मोर्चे पर जीत कर जश्न मनाने में इतने मस्त हो गए कि युद्ध हार गए।
हालत पै उस मुसाफिरे बेकस पर रोइए
जो थक के बैठ जाता है मंजिल के सामने।