#मुहम्मद_का_पैगंबर बनना
मुहम्मद साहब के चाचा अबू तालिब पहले भी धनी नहीं थे, उनके बाल बच्चों की तादाद बढ़ने के साथ भतीजे का बोझ भारी लगने लगा। उन्होंने मुहम्मद से कोई काम धंधा शुरू करने की सलाह दी। इस समय तक मुहम्मद साहब की उम्र 25 साल हो चुकी थी। उन्होंने एक मालदार विधवा खादिजा से संपर्क करने की सलाह दी जिसके काफिले दूरदराज तक जाते रहते थे। मोहम्मद साहब ने जब उनसे मुलाकात की तब तक वह उनकी ईमानदारी के चर्चे सुन चुकी थीं। उन्होंने दूसरों के मुकाबले दूने बड़े काफिले का भार उन्हें सौंपा जो सीरिया जाने वाला था।
मक्का से सीरिया की दूरी 2000 किलोमीटर से अधिक है। इतनी लंबी यात्राओं के दौरान मनुष्य को कितने तरह के लोगों, परेशानियों, मत मतांतरों और विचारों से पाला पड़ता है, यह अनुभव से ही जाना जा सकता है।
इसी यात्रा के दौरान वह व्यक्तिगत रूप से यहूदियों और ईसाइयों के सीधे संपर्क में आए। उन्होंने मुहम्मद साहब के साथ बहुत दोस्ताना सलूक किया था। मुहम्मद साहब की ईमानदारी के कारण इस बार खादिजा को बहुत मुनाफ़ा हुआ। उन्हें शादी के प्रस्ताव मिलते रहे थे जिन्हें वह ठुकराती आई थीं। परंतु मोहम्मद को उन्होंने स्वयं शादी का प्रस्ताव भेजा जिसे उन्होंने कबूल कर लिया। इसके बाद से दौलत, शोहरत और सूझ के संयोग से उनके जीवन में ऐसे बदलाव आने आरंभ हुए जिन्होंने उन्हें पैगंबर बना दिया।
यूं तो चमत्कार की कहानियां बचपन से ही उनके जीवन से जुड़ी मिलती हैं परंतु मुहम्मद को पहली बार यह सूचना खादिजा ने अपनी बहन वरक़ा के माध्यम से पहुँचाई थी कि जब वह सौदागरी पर निकले थे तो एक भिक्षु ने उनसे कहा था, मोहम्मद पैगंबर बनने वाले हैं। एक दूसरी बात खादिजा के संदर्भ में उल्लेखनीय है। उनके पहले से कुछ एकेश्वरवादियों से संपर्क थे जो बहुदेववाद और मूर्तिपूजा से परहेज करते थे। इन्हें हनीफ (अडिग श्रद्धालु) कहा जाता था। कुरान में हनीफ विशेषण का प्रयोग इब्राहिम के लिए हुआ है। उनके संपर्क का भी मोहम्मद साहब के विचारों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।
उनके पैगंबर बनने से एक तपस्या भी जुड़ी हुई है। मक्का से पांच किलोमीटर दूर हिरापहाड़ की गुफाओं में भारत की तरह एकांतवास और साधना की परंपरा भी प्रचलित थी।[]
[] क्या आप ने कभी कहानियों के उस तोते के नाम पर ध्यान दिया हैं जिसमें मानवभक्षी दैत्य के प्राण बसते थे, जिसका रहस्य किसी को मालूम था तो राक्षस की लड़की को। उसे असंभव को संभव करने को निकले राजकुमार से प्रेम हो जाता है। वह उसे छिपा कर रखती है. और अंत में उस दैत्य के मरने का उपाय भी बता देती है। उस तोते का नाम हिरामन तोता है जिसका एक अर्थ हिरा पर्वत की कंदरा में ध्यानस्थ व्यक्ति हो सकता है।[]
इसे रमजान के बाद तहन्नुफ या आत्मशुद्धि के लिए किया जाता था। मुहम्मद साहब ने भी यह साधना की। उनके लिए इसका एक आकर्षण यह भी था कि उसी पहाड़ पर ज़ैद बिन अम्र भी साधना करते थे जिनके लिए उनके मन में बहुत आदर था। एक बार उनके सपने में मनुष्य के वेश में फरिश्ता जिब्रील (Gabriel) प्रकट हुए और उनसे एक सूरा पढ़ने को कहा। उन पर पहली बार सूरा के आयत होने का इतना गहरा असर हुआ कि वह लगभग विक्षिप्त से होकर गुफा से बाहर निकल गए। लगा वह आत्महत्या कर लेंगे। इस तरह वह मुहम्मद बन कर गुफा में गए थे, रसूल बन कर बाहर निकले।
जैसे ब्राह्मणों को यह खयाल था कि वेद सृष्टि के आदि से हैं उसी तरह मुसलमानों का भी यह खयाल है कि कुरान अल्लाह के मुंह से निकला वचन है जो अनश्वर तख्ते पर लिखा था। उसे जिब्रील ने सातवें आसमान से लेकर सबसे निचले आसमान में अज्मत के मंदिर में संग्रहीत कर दिया और उसी के सूरे वह साल-दर-साल समय समय पर मुहम्मद साहब को सुनाते रहे।
अब यहां एक समस्या खड़ी होती है। यदि कुरान अल्लाह का आदिकाल का वचन है, ईश्वर का सबसे नया संदेश कैसे हो गया? वैदिक ऋषियों को मंत्रों का रचनाकार न मानकर मंत्रों का द्रष्टा, धर्म का साक्षात्कार करनेवाला करने वाला कहा गया हा है। वसिष्ट ने अपने किसी पूर्व जन्म में असाधारण विद्युत ज्योति प्राप्त की थी (विद्युतो ज्योतिः परि संजिहानं मित्रावरुणा यदपश्यतां त्वा । तत्ते जन्मोतैकं वसिष्ठागस्त्यो यत्त्वा विशाजभार । 7.33.10) और मूसा सिनाई पर्वत पर दश महादेशों का साक्षात्कार करते है, जिब्रील उन्हें अज्मत के मंदिर में लाकर इकट्ठा करते और जरूरते नागहानी मुहम्मद साहब को सुनाते हैं। एक ही ईंट गारा से मामूली फेरबदल से अपने मत को आप्तता देने के लिए प्रयोग में आता है। ऋग्वेद के सृष्टि के आदि में रचे जाने के विश्वास की व्याख्या संभव है। अन्यत्र इसका प्रयत्न भी किया है। परन्तु सामी परंपराओं में विचार के लिए जगह ही नहीं है।
अपने निजी जीवन में वह सामान्य जनों जैसे ही थे। उन्हें खादिजा से छह संतानें प्राप्त हुईं। पहला पुत्र कासिम 2 साल की उम्र में मर गया। चार बेटियों – जैनब, रुकैया, फातिमा और उम्म खुल्तून – के बाद उनका सबसे छोटा पुत्र आबिद मिनाफ पैदा हुआ जो शैशव में ही चल बसा। जिंदगी के सुख दुख में वह दूसरों से अलग नहीं थे।
काबा के पत्थर के प्रति पैगंबर के आदर पर ताबिश सिद्दीकी, (इस्लाम का इतिहास) की टिप्पणी निम्न प्रकार है:
“सबसे पहली बात जो इसमें ध्यान देने योग्य है, वो ये कि इस पत्थर का कोई भी ज़िक्र कुरान में नहीं आया है. ये सबसे अहम् हिस्सा है, जिस पर सबसे पहले गौर करना चाहिए. इसका ज़िक्र कुरान में न होना इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि इस पत्थर को पूज्य या तो पैगंबर के इस दुनिया से जाने के कुछ ही दिनों पहले के दिनों में बनाया गया या फिर जाने के बाद. इसका ज़िक्र कुरान में न होकर सिर्फ हदीसों में मिलता है. और हदीसें बस कही-कहाई बातें हैं, जिनका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है. इसी वजह से हदीसों में क्या सच है, क्या झूठ कोई बिलकुल दावे से नहीं बता सकता है.”
इसके बाद वह उन कहानियों का जिक्र करते हैं जो हदीसों में इस संबंध में दी गई हैं। उस विस्तार में जाने का साहस हम अपनी सीमा के कारण नहीं कर सकते , परंतु यह सवाल कर सकते हैं कि इस्लाम से पहले के ज्ञान के सभी स्रोतों को नष्ट कर दिए जाने के बाद लोगों की याददाश्त में और दूसरे मजहबों और परंपराओं में जो कुछ बचा रह गया था उसके आधार पर और पुरातत्व की सहायता से इस्लाम पूर्व अरब को समझने प्रयत्न किया गया है। कुरान की आप्तता पर आंख मूंदकर विश्वास करने वाला, इस बात का प्रमाण नहीं दे सकता कि इसका लेखन मोहम्मद साहब के जीवन काल में हुआ था। वर्तमान कुरान मुहम्मद साहब से इंतकाल के बाद तीसरे खलीफा खलीफा उस्मान के समय में तैयार किया गया माना जाता है [The Quran as it is known in the present, was first compiled into book format by Zayd ibn Thabit and other scribes under the third caliph Uthman (r. 644–56, Wikipedia, Histroy of Quran]
महत्वपूर्ण बात चह है कि मुहम्मद साहब ने अरब समाज की अधिकांश ऐसी रीतियों और विश्वासों के साथ छेड़छाड़ नहीं की थी जिनमें अधिकांश अरबों की श्रद्धा थी, जिनमें आत्मशुद्धि के लिए रोजा, रमजान माह की पवित्रता, हज आदि आते हैं । काले पत्थर के साथ भी ऐसा ही था। काबा की पवित्रता उससे जुड़ी थी। पहले दीवार ऊंची न थी इसलिए परिक्रमा करते हुए उसे आसानी से देखा जा सकता था। दीवार ऊंची की जाने लगी तो इस बात को लेकर झगड़ा हो गया और इसे मुहम्मद साहब ने ही निपटाते हुए पूरब के कोने की दीवार में रखवाया था।
यह संभव है कि जैसे हमारे तीर्थ तीर्थ स्थानों पर जैसे कई तरह के कदाचार पनपते रहे हैं उसी तरह की स्थिति मक्का की भी रही हो जिसे इस्लाम से पहले की अधोगति को दर्शाने के लिए अतिरंजित रूप में दिखाया जाता
है। जिस सच्चाई को छुपाया जाता है, वह यह कि अरब में धार्मिक कट्टरता का अभाव था जिसका आरंभ इस्लाम के साथ हुआ, परंतु हुआ यहूदियों और ईसाइयों की नकल करने के कारण। यहूदियों को पश्चिमी जगत में मजहब का ही जन्मदाता नहीं, मजहबी कट्टरता अभी जन्मदाता कहा जा सकता है।
सामी, या इब्रानी मजहबों की प्रेरणा का सर्वमान्य स्रोत एक है। इनकी मूल्य व्यवस्था तथा विधि विधान तथा पुराण कथाओं मे भी गहरी समानताएं हैं। यहां तक कि एक किंबदंती के अनुसार स्वयं मोहम्मद साहब इब्राहिम के पुत्र इस्माइल के पुत्र सिद्ध किए जाते रहे हैं। इन समानताओं में बकरीद (ईदुल अजहा) जैसे त्योहारों और हिजाब की पाबंदी, खतना, जालीदार टोपी (स्कल कैप) के साथ अपने को छोड़ कर शेष जगत को जाहिल, कुरीतियो से ग्रस्त, अधम मानने की प्रवृत्ति भी शामिल है। ईसाई और यहूदी विश्वासों की बहुत सी बातें हैं प्रचारकों के माध्यम से उनके विश्वास का हिस्सा बन चुकी थीं।
आधुनिक जगत में मजहब को लेकर सारे कलह, फसाद और युद्ध सबसे पहले इब्रानी मजहबों के बीच हुए और बाद मे भी सबसे उग्र इन्हीं के बीच बने रहे, यद्यपि खुदाई किताब पर विश्वास करने के कारण ये एक दूसरे को अपने निकट मानते रहे हैं। दूसरे मत-मतातरों के लोगों के साथ टकराव और फसाद इन्हीं के विस्तार की सनक के परिणाम हैं। पांचवी शताब्दी से आरंभ होने वाले लगभग 1000 साल में पोप तांत्रिक ईसाइयत यहूदियों से भी आगे बढ़ गई। हमने 3 जनवरी 2016 को फेसबुक पर अपनी पोस्ट में ईसाई कट्टरता के कारण यूरोप में आए अंधकार युग के विषय में विस्तार से लिखा था। 15वीं और 16वीं शताब्दी में पुर्तगाली मिशनरियों के द्वारा जो अत्याचार किए गए, इसकी चर्चा अन्यत्र कर आए हैं। उसी दौर में इसी पागलपन में स्पेनी ईसाइयों ने अमेरिका की माया सभ्यता का सर्वनाश कर दिया।
इससे या प्रकट होता है स्वयं मोहम्मद साहब के जीवन, आदर्श और व्यवहार में यहूदियों और ईसाइयों का बहुत गहरा प्रभाव रहा है, और इस्लाम की अधिकांश विकृतियां, जिन पर मुसलमान गर्व करते रहे हैं, उन्हीं के कारण पैदा हुईं। इस पृष्ठभूमि को समझे बिना हम न तो मोहम्मद साहब की जीवन को समझ सकते हैं नहीं कुरान के अंतर्विरोध को न ही इस्लाम के द्वारा आधुनिक विश्व में चलते रहने वाले उपद्रवों को।