Post – 2019-06-06

भारत की भाषा नीति और हिंदी

मैं बहुत संक्षेप में अपना मत रखना चाहूंगा:
1. मुझे विश्वास नहीं था की वर्तमान सरकार सांस्कृतिक मोर्चे पर कोई सार्थक कदम उठा पाएगी। इसलिए यह जानकर आश्चर्य हुआ पिछले 3 साल से वह शिक्षा नीति पर गंभीरता से विचार कर रही थी।

2. त्रिभाषा सूत्र दुबारा चर्चा के केंद्र में है। त्रिभाषा सूत्र पर गंभीरता से काम नहीं किया गया। यह आसान काम नहीं है। इसके लिए जिस बड़े पैमाने पर दक्षिण भारत की भाषाएं जानने वाले उत्तर भारतीय विशेषकर हिंदी प्रदेश के लोग तथा उत्तर भारत की भाषाएं जानने वाले दक्षिण भारतीयों की आवश्यकता थी वह कभी तैयार नहीं की गई। उसके सुचारु प्रबंधन के लिए इस योजना पर , चुनौती के अनुरूप, बजट प्रावधान की अपेक्षा थी। वह नहीं किया गया।

3. आज जब रोजगार के नए अवसरों की कमी है इस पर बजट प्रावधान करके दसियों लाख लोगों को काम दिलाया जा सकता है और इस समस्या का सामना करने की इच्छाशक्ति दिखाई जा सकती थी। अभी तक यह सूत्र किसी भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषा बनने से वंचित रखने, और अंग्रेजी को अनंत काल तक सरकारी भाषा बनाए रखने के लिए एक भ्रम जाल सा था। कभी किसी ने नहीं चाहा इस पर अमल किया जाए।

4. मोदी के कारण कुछ ऐसी चीजें सचमुच मुमकिन हुई हैं जिनके वादे किए जाते थे पर पूरा नहीं किया जाता था। इनमें एक रैंक एक पेंशन का प्रस्ताव भी था, जो इतने भारी धन की अपेक्षा रखता था कि कभी किसी ने पूरा नहीं किया। मोदी ने अल्पतम समय में इसे कर दिखाया। मैं यहां पहले असंभव मानी जाने वाली और मोदी के द्वारा कार्य रूप में परिणत की जाने वाली योजनाओं की तालिका देना नहीं चाहता, परंतु मोदी है तो मुमकिन है के नारे को देश ने चुनावी लफ्फाजी नहीं माना। विश्वास के स्तर पर यह जीत राजनैतिक सत्ता की जीत से कहीं बड़ी है। इसलिए मैं मांगता हूं मोदी हैं तो त्रिभाषा फार्मूले पर अमल भी मुमकिन है।

5. इसमें एक नया पहलू जुड़ गया है कि दक्षिण के लोगों के लिए हिंदी को अनिवार्य भाषा न रख कर वैकल्पिक भाषा बनाया जाना चाहिए। इस पर कुछ लोगों ने अपनी चिंता और यह आशंका प्रकट की है कि इस तरह हिंदी कभी राजभाषा नहीं बन पाएगी।

6. तमिलनाडु की राजनीति हिंदी विरोध पर पलती रही है। वहां के दोनों दल त्रिभाषा फार्मूले के पुराने रूप का विरोध करने के मामले में एक दूसरे से आगे बढ़ने के प्रयत्न में इसे पहले से भी अधिक उग्र बनाएंगे, इसमें कोई संदेश नहीं। किसी चीज को अनिवार्य बना कर उसे लोकप्रिय नहीं बनाया जा सकता। इसलिए अनिवार्यता ऊपर से थोपने का पर्याय है। तमिलनाडु की राजनीति इसी का लाभ उठा सकती है। अनिवार्यता समाप्त करके उनको उत्तर दिया जा सकता है।

7. प्रकाश जावडेकर का यह कथन कोई चीज थोपी नहीं जाएगी, दूरदर्शिता पूर्ण है। इसी दशा में विभाषा सूत्र पर काम किया जा सकता है। त्रिभाषा अनिवार्य, सभी को तीसरी भाषा के रूप में किसी भी भारतीय भाषा को सीखने की पूरी छूट हो, परंतु त्रिभाषा के सिद्धांत से हटने की छूट नहीं । अनिवार्यता हट जाने के बाद, परिणाम हिंदी को अनिवार्य बनाने से अधिक सुखद होंगे, यह मेरा विश्वास है। यदि कोई एक भारतीय भाषा सीखनी ही है तो वह कौन सी हो तो अधिक लाभ होगा, यह निर्णय बहुत आसान है। इसके बहुत कम अपवाद सामने आएंगे और वे भी बहुत इष्टकर होंगे।

8. सबसे पहले इसकी तैयारी अर्थात् इसके लिए अपेक्षित संख्या में शिक्षक उपलब्ध हो सकें इस दिशा में काम करना होगा । यह भी कौशल विकास जैसा ही चुनौती भरा कार्य है।

भारत सरकार ने इस बीच लोगों के मत जानने के लिए अपना दरवाजा खोल रखा है। यदि आप इससे सहमत हों तो स्वयं ऐसा सुझाव सरकार को भेजें या इसे अपनी पोस्ट बनाकर दूसरों को फारवर्ड करें। मोदी है तो मुमकिन है, क्योंकि उसे कम से कम 29 तक रहना है। समय भी है। संकल्प भी है।

Post – 2019-06-04

#इल्हाम_और_जिहाद

मुझे संदेह है कोई हिंदू इलहाम और जिहाद का सही मतलब जानता होगा। इसे आप मेरे अज्ञान का विस्तार मान सकते हैं। मैं इलहाम का अर्थ अंतःप्रज्ञा या अंतरानुभूति या पूर्वानुभूति मानने की गलती करता रहा हूं।

जिहाद के नाम पर जो कुछ हुआ और जो किया जाता है उससे जो धारणा बनती है उसे ही हम इसका अर्थ समझ लेते हैं। जिहाद इस्लाम-पूर्व की अवधारणा है, जैसे रमजान के महीने की तपश्चर्या और प्रायश्चित्त/ आत्मशुद्धि की प्रथा पुरानी है। तब जिहाद का अर्थ था, आत्मशुद्धि को अमल में लाते हुए अपने मनोविकारों पर विजय प्राप्त करना। इंसानियत के लिए नेक काम (दान-पुण्य) करना। यह भारतीय आत्मविजय, इंद्रिय विजय का अरबी संस्करण था।

इस्लाम के बाद इसका अर्थ बदल कर जहालत में पड़े हुए लोगों को अल्लाह के रास्ते पर लाने के लिए जो कुछ भी करना पड़े करते हुए एक भला काम करना। इस आवेश में जितने नरसंहार, जिसने युद्ध, जितने बलात्कार, जितने फरेब, जितने विश्वासघात, किए गए सभी पवित्र काम थे और जिहाद को अपने अनुभव से हम इसी रूप में जानते हैं।

नेक दिल समझे जाने वाले भारतीय मुसलमान समझाते हैं, नहीं साहब, जिहाद बुरी चीज नहीं है, ये लड़के इसका मतलब नहीं समझ पाते। वे तफसील में जाकर बताते हैं जिहादे-अकबर और जिहादे-असगर का भेद , परंतु यह भुला देते हैं कि आत्मविजय और पुण्य का काम जाहिलिया के दौर का आचरण था जिसे मुहम्मद साहब ने उलट दिया, और जिस रूप में अमल में लाए, उसी रूप में वे अमल में लाते हैं जिन्हें वे सार्वजनिक रूप से सिरफिरा बता कर इस्लाम के प्रति सहानुभूति पैदा करते हैं, और आंतरिक संवाद में मानते हैं कि वे ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं जो मुहम्मद साहब के आचरण के विरुद्ध हो, और इस तरह सार्वजनिक रूप में जिसकी निंदा करते हैं, आपसी संवाद में यह जानते हुए कि तरीका गलत है, इससे परहेज किया जाना चाहिए, उसे गलत नहीं ठहरा पाते, और यदि उनकी संतानों में कोई इस राह पर निकल जाए तो उसे समझा नहीं पाते कि वह गलत रास्ते पर जा रहा है। वे यह भी नहीं समझ पाते कि जिसे वे आदर्श जिहाद कहते हैं, वह उस आदर्श अवस्था में अमल में लाया जाता था जिसे वे जाहिलिया कहते हैं, और उसे यह प्रेरणा भारतीय तपश्चर्या/ आत्म शुद्धि/ प्रायश्चित और आत्मविजय और दान-पुण्य से मिली हो सकती है।

जिस तरह का घालमेल जिहाद के मामले में हुआ, उसी तरह का घालमेल इलहाम के मामले में हुआ, क्योंकि, आत्मा, अंतः चेतना, अंतः प्रज्ञा की अवधारणा सामी जगत में नहीं थी। (जारी)

Post – 2019-06-03

#मुहम्मद_का_पैगंबर बनना

मुहम्मद साहब के चाचा अबू तालिब पहले भी धनी नहीं थे, उनके बाल बच्चों की तादाद बढ़ने के साथ भतीजे का बोझ भारी लगने लगा। उन्होंने मुहम्मद से कोई काम धंधा शुरू करने की सलाह दी। इस समय तक मुहम्मद साहब की उम्र 25 साल हो चुकी थी। उन्होंने एक मालदार विधवा खादिजा से संपर्क करने की सलाह दी जिसके काफिले दूरदराज तक जाते रहते थे। मोहम्मद साहब ने जब उनसे मुलाकात की तब तक वह उनकी ईमानदारी के चर्चे सुन चुकी थीं। उन्होंने दूसरों के मुकाबले दूने बड़े काफिले का भार उन्हें सौंपा जो सीरिया जाने वाला था।

मक्का से सीरिया की दूरी 2000 किलोमीटर से अधिक है। इतनी लंबी यात्राओं के दौरान मनुष्य को कितने तरह के लोगों, परेशानियों, मत मतांतरों और विचारों से पाला पड़ता है, यह अनुभव से ही जाना जा सकता है।

इसी यात्रा के दौरान वह व्यक्तिगत रूप से यहूदियों और ईसाइयों के सीधे संपर्क में आए। उन्होंने मुहम्मद साहब के साथ बहुत दोस्ताना सलूक किया था। मुहम्मद साहब की ईमानदारी के कारण इस बार खादिजा को बहुत मुनाफ़ा हुआ। उन्हें शादी के प्रस्ताव मिलते रहे थे जिन्हें वह ठुकराती आई थीं। परंतु मोहम्मद को उन्होंने स्वयं शादी का प्रस्ताव भेजा जिसे उन्होंने कबूल कर लिया। इसके बाद से दौलत, शोहरत और सूझ के संयोग से उनके जीवन में ऐसे बदलाव आने आरंभ हुए जिन्होंने उन्हें पैगंबर बना दिया।

यूं तो चमत्कार की कहानियां बचपन से ही उनके जीवन से जुड़ी मिलती हैं परंतु मुहम्मद को पहली बार यह सूचना खादिजा ने अपनी बहन वरक़ा के माध्यम से पहुँचाई थी कि जब वह सौदागरी पर निकले थे तो एक भिक्षु ने उनसे कहा था, मोहम्मद पैगंबर बनने वाले हैं। एक दूसरी बात खादिजा के संदर्भ में उल्लेखनीय है। उनके पहले से कुछ एकेश्वरवादियों से संपर्क थे जो बहुदेववाद और मूर्तिपूजा से परहेज करते थे। इन्हें हनीफ (अडिग श्रद्धालु) कहा जाता था। कुरान में हनीफ विशेषण का प्रयोग इब्राहिम के लिए हुआ है। उनके संपर्क का भी मोहम्मद साहब के विचारों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।

उनके पैगंबर बनने से एक तपस्या भी जुड़ी हुई है। मक्का से पांच किलोमीटर दूर हिरापहाड़ की गुफाओं में भारत की तरह एकांतवास और साधना की परंपरा भी प्रचलित थी।[]

[] क्या आप ने कभी कहानियों के उस तोते के नाम पर ध्यान दिया हैं जिसमें मानवभक्षी दैत्य के प्राण बसते थे, जिसका रहस्य किसी को मालूम था तो राक्षस की लड़की को। उसे असंभव को संभव करने को निकले राजकुमार से प्रेम हो जाता है। वह उसे छिपा कर रखती है. और अंत में उस दैत्य के मरने का उपाय भी बता देती है। उस तोते का नाम हिरामन तोता है जिसका एक अर्थ हिरा पर्वत की कंदरा में ध्यानस्थ व्यक्ति हो सकता है।[]

इसे रमजान के बाद तहन्नुफ या आत्मशुद्धि के लिए किया जाता था। मुहम्मद साहब ने भी यह साधना की। उनके लिए इसका एक आकर्षण यह भी था कि उसी पहाड़ पर ज़ैद बिन अम्र भी साधना करते थे जिनके लिए उनके मन में बहुत आदर था। एक बार उनके सपने में मनुष्य के वेश में फरिश्ता जिब्रील (Gabriel) प्रकट हुए और उनसे एक सूरा पढ़ने को कहा। उन पर पहली बार सूरा के आयत होने का इतना गहरा असर हुआ कि वह लगभग विक्षिप्त से होकर गुफा से बाहर निकल गए। लगा वह आत्महत्या कर लेंगे। इस तरह वह मुहम्मद बन कर गुफा में गए थे, रसूल बन कर बाहर निकले।

जैसे ब्राह्मणों को यह खयाल था कि वेद सृष्टि के आदि से हैं उसी तरह मुसलमानों का भी यह खयाल है कि कुरान अल्लाह के मुंह से निकला वचन है जो अनश्वर तख्ते पर लिखा था। उसे जिब्रील ने सातवें आसमान से लेकर सबसे निचले आसमान में अज्मत के मंदिर में संग्रहीत कर दिया और उसी के सूरे वह साल-दर-साल समय समय पर मुहम्मद साहब को सुनाते रहे।

अब यहां एक समस्या खड़ी होती है। यदि कुरान अल्लाह का आदिकाल का वचन है, ईश्वर का सबसे नया संदेश कैसे हो गया? वैदिक ऋषियों को मंत्रों का रचनाकार न मानकर मंत्रों का द्रष्टा, धर्म का साक्षात्कार करनेवाला करने वाला कहा गया हा है। वसिष्ट ने अपने किसी पूर्व जन्म में असाधारण विद्युत ज्योति प्राप्त की थी (विद्युतो ज्योतिः परि संजिहानं मित्रावरुणा यदपश्यतां त्वा । तत्ते जन्मोतैकं वसिष्ठागस्त्यो यत्त्वा विशाजभार । 7.33.10) और मूसा सिनाई पर्वत पर दश महादेशों का साक्षात्कार करते है, जिब्रील उन्हें अज्मत के मंदिर में लाकर इकट्ठा करते और जरूरते नागहानी मुहम्मद साहब को सुनाते हैं। एक ही ईंट गारा से मामूली फेरबदल से अपने मत को आप्तता देने के लिए प्रयोग में आता है। ऋग्वेद के सृष्टि के आदि में रचे जाने के विश्वास की व्याख्या संभव है। अन्यत्र इसका प्रयत्न भी किया है। परन्तु सामी परंपराओं में विचार के लिए जगह ही नहीं है।

अपने निजी जीवन में वह सामान्य जनों जैसे ही थे। उन्हें खादिजा से छह संतानें प्राप्त हुईं। पहला पुत्र कासिम 2 साल की उम्र में मर गया। चार बेटियों – जैनब, रुकैया, फातिमा और उम्म खुल्तून – के बाद उनका सबसे छोटा पुत्र आबिद मिनाफ पैदा हुआ जो शैशव में ही चल बसा। जिंदगी के सुख दुख में वह दूसरों से अलग नहीं थे।

काबा के पत्थर के प्रति पैगंबर के आदर पर ताबिश सिद्दीकी, (इस्लाम का इतिहास) की टिप्पणी निम्न प्रकार है:

“सबसे पहली बात जो इसमें ध्यान देने योग्य है, वो ये कि इस पत्थर का कोई भी ज़िक्र कुरान में नहीं आया है. ये सबसे अहम् हिस्सा है, जिस पर सबसे पहले गौर करना चाहिए. इसका ज़िक्र कुरान में न होना इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि इस पत्थर को पूज्य या तो पैगंबर के इस दुनिया से जाने के कुछ ही दिनों पहले के दिनों में बनाया गया या फिर जाने के बाद. इसका ज़िक्र कुरान में न होकर सिर्फ हदीसों में मिलता है. और हदीसें बस कही-कहाई बातें हैं, जिनका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है. इसी वजह से हदीसों में क्या सच है, क्या झूठ कोई बिलकुल दावे से नहीं बता सकता है.”

इसके बाद वह उन कहानियों का जिक्र करते हैं जो हदीसों में इस संबंध में दी गई हैं। उस विस्तार में जाने का साहस हम अपनी सीमा के कारण नहीं कर सकते , परंतु यह सवाल कर सकते हैं कि इस्लाम से पहले के ज्ञान के सभी स्रोतों को नष्ट कर दिए जाने के बाद लोगों की याददाश्त में और दूसरे मजहबों और परंपराओं में जो कुछ बचा रह गया था उसके आधार पर और पुरातत्व की सहायता से इस्लाम पूर्व अरब को समझने प्रयत्न किया गया है। कुरान की आप्तता पर आंख मूंदकर विश्वास करने वाला, इस बात का प्रमाण नहीं दे सकता कि इसका लेखन मोहम्मद साहब के जीवन काल में हुआ था। वर्तमान कुरान मुहम्मद साहब से इंतकाल के बाद तीसरे खलीफा खलीफा उस्मान के समय में तैयार किया गया माना जाता है [The Quran as it is known in the present, was first compiled into book format by Zayd ibn Thabit and other scribes under the third caliph Uthman (r. 644–56, Wikipedia, Histroy of Quran]

महत्वपूर्ण बात चह है कि मुहम्मद साहब ने अरब समाज की अधिकांश ऐसी रीतियों और विश्वासों के साथ छेड़छाड़ नहीं की थी जिनमें अधिकांश अरबों की श्रद्धा थी, जिनमें आत्मशुद्धि के लिए रोजा, रमजान माह की पवित्रता, हज आदि आते हैं । काले पत्थर के साथ भी ऐसा ही था। काबा की पवित्रता उससे जुड़ी थी। पहले दीवार ऊंची न थी इसलिए परिक्रमा करते हुए उसे आसानी से देखा जा सकता था। दीवार ऊंची की जाने लगी तो इस बात को लेकर झगड़ा हो गया और इसे मुहम्मद साहब ने ही निपटाते हुए पूरब के कोने की दीवार में रखवाया था।

यह संभव है कि जैसे हमारे तीर्थ तीर्थ स्थानों पर जैसे कई तरह के कदाचार पनपते रहे हैं उसी तरह की स्थिति मक्का की भी रही हो जिसे इस्लाम से पहले की अधोगति को दर्शाने के लिए अतिरंजित रूप में दिखाया जाता
है। जिस सच्चाई को छुपाया जाता है, वह यह कि अरब में धार्मिक कट्टरता का अभाव था जिसका आरंभ इस्लाम के साथ हुआ, परंतु हुआ यहूदियों और ईसाइयों की नकल करने के कारण। यहूदियों को पश्चिमी जगत में मजहब का ही जन्मदाता नहीं, मजहबी कट्टरता अभी जन्मदाता कहा जा सकता है।

सामी, या इब्रानी मजहबों की प्रेरणा का सर्वमान्य स्रोत एक है। इनकी मूल्य व्यवस्था तथा विधि विधान तथा पुराण कथाओं मे भी गहरी समानताएं हैं। यहां तक कि एक किंबदंती के अनुसार स्वयं मोहम्मद साहब इब्राहिम के पुत्र इस्माइल के पुत्र सिद्ध किए जाते रहे हैं। इन समानताओं में बकरीद (ईदुल अजहा) जैसे त्योहारों और हिजाब की पाबंदी, खतना, जालीदार टोपी (स्कल कैप) के साथ अपने को छोड़ कर शेष जगत को जाहिल, कुरीतियो से ग्रस्त, अधम मानने की प्रवृत्ति भी शामिल है। ईसाई और यहूदी विश्वासों की बहुत सी बातें हैं प्रचारकों के माध्यम से उनके विश्वास का हिस्सा बन चुकी थीं।

आधुनिक जगत में मजहब को लेकर सारे कलह, फसाद और युद्ध सबसे पहले इब्रानी मजहबों के बीच हुए और बाद मे भी सबसे उग्र इन्हीं के बीच बने रहे, यद्यपि खुदाई किताब पर विश्वास करने के कारण ये एक दूसरे को अपने निकट मानते रहे हैं। दूसरे मत-मतातरों के लोगों के साथ टकराव और फसाद इन्हीं के विस्तार की सनक के परिणाम हैं। पांचवी शताब्दी से आरंभ होने वाले लगभग 1000 साल में पोप तांत्रिक ईसाइयत यहूदियों से भी आगे बढ़ गई। हमने 3 जनवरी 2016 को फेसबुक पर अपनी पोस्ट में ईसाई कट्टरता के कारण यूरोप में आए अंधकार युग के विषय में विस्तार से लिखा था। 15वीं और 16वीं शताब्दी में पुर्तगाली मिशनरियों के द्वारा जो अत्याचार किए गए, इसकी चर्चा अन्यत्र कर आए हैं। उसी दौर में इसी पागलपन में स्पेनी ईसाइयों ने अमेरिका की माया सभ्यता का सर्वनाश कर दिया।

इससे या प्रकट होता है स्वयं मोहम्मद साहब के जीवन, आदर्श और व्यवहार में यहूदियों और ईसाइयों का बहुत गहरा प्रभाव रहा है, और इस्लाम की अधिकांश विकृतियां, जिन पर मुसलमान गर्व करते रहे हैं, उन्हीं के कारण पैदा हुईं। इस पृष्ठभूमि को समझे बिना हम न तो मोहम्मद साहब की जीवन को समझ सकते हैं नहीं कुरान के अंतर्विरोध को न ही इस्लाम के द्वारा आधुनिक विश्व में चलते रहने वाले उपद्रवों को।

Post – 2019-06-02

वह आदमी ही आदमी कुछ कुछ लगा मुझको
कहता था जो इंसानियत से दूर बहुत हूँं।

Post – 2019-06-01

जिन्हें हम देख कर डरते थे, अब पहचान लेते हैं

यह दुर्भाग्य की बात है कि हम एक राष्ट्र के रूप में #स्मृतिलोप की उस अवस्था में पहुंच गए हैं, जिसमें हम दूसरों से पूछते हैं कि हम कौन हैं? हमारा नाम क्या है? जो कुछ सुनते हैं उस पर विश्वास नहीं कर पाते। जो कुछ देखते हैं, वह बेतरतीब लगता है। जो कुछ अपनी धुंधली चेतना से याद करते हैं, वह अविश्वसनीय लगता है।

गुलामों की #प्रतिरोध-क्षमता को नष्ट करने के लिए, उन पर राज करने वालों को उनकी चेतना को नष्ट करना होता है। इतिहास को विकृत करते हुए हमारे साथ यही किया गया।

गुलामों को कोड़ा मारने वाले गुलाम और हाथियों का शिकार करने वाले हाथी पाल-पोस कर रखे जाते हैं, उनका रुतबा ऊंचा होता है, परंतु वे मालिकों के काम के होते हैं अपनी बिरादरी के काम के नहीं।

यही हाल हमारे बुद्धिजीवियों का है। उनको जिस भाषा में, जिस ज्ञानाभासी शिक्षा सामग्री और शिक्षा प्रणाली के द्वारा अपने उपयोग के लिए मालिकों ने तैयार किया और विदा होते हुए, जिसे अपने स्वामिभक्त गुलामों को सौंप कर चले गए, वे भी उसी पद्धति पर काम करते रहे। उनका ही ज्ञान जगत पर साम्राज्य है, वे अपने समाज की याददाश्त की वापसी से घबराते है। वे अपने इतिहास को जानने से घबराते हैं।

उनकी सूचना बहुलता के आतंक में शिक्षित व्यक्तियों से उस इतिहास की बात करो जो आपकी अपनी पहचान और आत्माभिमान को वापस ला सकता है, जिनका प्रमाण आपके पास है और अपने पवित्र अज्ञान के कारण इसका खंडन नहीं कर सकते, तो आपका खंडन करने का एक उपयोगितावादी तर्क तलाश लेते हैं, ‘मान लिया आप जो कहते हैं वह सही है, परंतु हमें इससे आज क्या लाभ जब पश्चिम हमारे गौरव काल से इतना आगे बढ़ चुका है जितना तिल से ताड़?’

आप यह भूल जाते हैं कि यही प्रश्न स्मृतिलोप के शिकार हुए व्यक्ति से करने वाले को आप उस शठयंत्र का हिस्सा मानेगे या नहीं जिसकी दवाओं में मिले जहर से उसका स्मृतिह्रास और स्मृतिलोप हुआ है।

जब तक आप ऐसा नहीं कर पाते हैं तब तक आपको ऐसे लोगों से निवेदन करना चाहिए, ‘ हुजूर, आप बजा फरमाते हैं। पर मुझे समझाइए ताड़ बन चुके देशों के लोग ताड़ से उतर कर तिल का सूक्ष्मदर्शी लगाकर अध्ययन करने का प्रयत्न क्यों करते हैं , सूक्ष्मदर्शी को दूरदर्शी चेहरे पर लगाकर क्यों देखते हैं? इस शरारत की ओर आपका ध्यान क्यों नहीं जाता कि जिनके पास , आप की तुलना में उनके भौगोलिक क्षेत्र में अपार अवसर उपलब्ध हैं वे पिछड़ी दुनिया को समझने के लिए क्यों निकल पड़ते हैं और आप अपने को समझने से इतना घबराते क्यों है?

कहना चाहिए कि आप आजाद होने से डरते हैं। आजादी का रास्ता इतिहास के गहन अध्ययन और बोध से खुलता है, अपनी याददाश्त वापस लाने से खुलता है, और उधार ली हुई अक्ल से काम लेने पर बन्द हो जाता है।

एक दूसरा हीनता बोध उसी चेतना के अंतर्गत पनपाया गया है । यह है अपने प्राचीन ऐतिहासिक सत्य को उद्घाटित करने वालों की विश्वसनीयता को समाप्त करना और यह आरोप लगाना कि वे अपनी आत्मासक्ति के कारण, अन्य सभ्यताओं के योगदान को समझ नहीं पाते और सभी विकासों का उद्भव भारत को सिद्ध करना चाहते हैं और कृतियों तथा घटनाओं की काल रेखा को पीछे खिसका कर अधिक प्राचीनता का दम भरना चाहते हैं।

ये दोनों अर्धसत्य हैं। अर्धसत्य न सही होता है न गलत होता है, वह चुनिन्दा तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर रचा गया एक भ्रम या प्रतीति होता है। हमारा मानसिक पर्यावरण इसी से निर्मित हुआ।

इतिहास पर लिखते हुए मेरी अंतश्चेतना में यह पर्यावरण लगातार उपस्थित रहता है, और इसलिए समय-समय पर मुझे इतिहास और इतिहासबोध के महत्व को याद दिलाना पड़ता है जो एक टेक सा बन गया है।

जब मैं प्राचीन अरब के विषय में बात करते हुए यह याद दिला रहा था कि हड़प्पा के व्यापारियों का लघु एशिया पर्यंत भू भाग पर गहरा असर था, और यह लगातार 17 वीं शताब्दी तक बना रहा था तो आप में से कुछ को अतिरंजना की आशंका हुई होगी और कुछ को ‘गई भैंस पानी में’ का मुहावरा याद आया होगा।

मुझे एक साथ आपके सिखाए हुए ज्ञान की सीमा से भी लड़ना होता है, और प्रमाण के साथ अपनी बात कहने के बाद भी आपके अविश्वास से भी लड़ना होता है जिसे वस्तुपरक ज्ञान का निकष बना दिया गया है। इसलिए यहां दो तथ्यों की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं।

अरब जहां से इतिहास में याद किए जाने लगते हैं, वे बहुत सफल सौदागरों के रूप में याद किए जाते हैं। मक्का का जो व्यापारिक आधार हमने अपनी पिछली पोस्ट में चित्रित किया है उसमें भी वह सौदागरों के रूप में दिखाए गए हैं। आपको यह सवाल तो अपने आप से पूछना ही चाहिए कि अरब में खजूर को छोड़कर क्या पैदा होता था जिसे दूर दूर तक वे पहुंचाते थे ? यदि इसमें विविधता थी तो यह कहां का माल था जिसके अरब में दाखिल होने पर उस पर आयात कर भी लगाया जाता था? वह कहां से आता था? जिधर जाता था उधर से तो नहीं आता रहा होगा। जो व्यापारिक मार्ग सक्रिय दिखाई देता है, भारत की ओर से आता है यह नतीजा निकालने में आपको अपना दिमाग अधिक खरोंचना नहीं पड़ेगा।

दूसरा उदाहरण लीजिए। आपने अलिफ लैला की हजार दास्तान, या अरैबिएन नाइट्स का नाम तो सुना होगा और यह भी जानते होंगे कि यह पंचतंत्र की प्रेरणा से, किस्से में से किस्सा गढ़ने का प्रयोग था। आपने सिंदबाद और हिंद बाद की कहानियां भी सुनी होंगी। कभी यह सोचा यह दोनों नाम सिंध के साथ क्यों जुड़े हैं। सौदागरों के भाग्य का सारा खेल भारत पहुंचने और भारतीय समृद्धि से लाभान्वित होने तक ही क्यों सिमटा है?

इतिहास की खोज, उसकी सच्चाई तक पहुंचने का प्रयास, इतने धागों से जुड़ने की मांग करता है जिसकी ओर किताबी ज्ञान रखने वालों का ध्यान नहीं जाता।

हमारे प्रख्यात इतिहासकारों का किताबी ज्ञान सराहनीय है, परंतु उनके पास यह समझ नहीं है कि उसका कितना कूड़ा और योजनाबद्ध रूप में तैयार किया और कितनी सावधानी से पैक किया गया है। पैकिंग के ऊपर बारीक अक्षरों में लिखा है, ‘केवल भारत के लिए।’