मिटाया मैंने अपने को तो खुद को सामने पाया
यह मैं पहले भी कह आया हूँ कि अपनी समझ से किसी महान और दूसरों की नजर में गुमराह, खतरनाक और दुष्ट मेरी प्रेरणा के स्रोत इस कारण रहे हैं कि वे जानते थे कि उनकी हत्या हो सकती है, उन्हें अपमानित किया जा सकता है, उनके त्याग और बलिदान को कहीं दर्ज तक न किया जाएगा, इसकी बात भी दिमाग में नहीं आती थी। वे गुमनामी में रहकर भी, उपेक्षा, अपमान और उत्पीड़न, यहाँ तक कि प्राण का संकट मोल ले कर भी किसी महान लक्ष्य को पाना या अपने देश समाज को बदलना चाहते थे। जब वे इसका सही आकलन नहीं कर पाते थे कि उसे पाने का जो तरीका वे अपना रहे हैं, वह सही है या नहीं, उससे उसकी सिद्धि संभव है या नहीं तो वे उनकी नजर में भी गिर जाते थे जिनका भला करना चाहते थे, क्योंकि युगों के अनुभव का सार हमारी जातीय चेतना. collective consciousness हमारे भीतर, अक्षर-ज्ञान से वंचित कर दिए गए लोगों के भीतर भी विद्यमान होती है जिससे वे जानते हैं कि गुमराह लोगों के स्वयं सहायता की जरूरत होती है। उनके किए क्रांति नहीं हुआ करती, उपद्रव अवश्य हुआ करते हैं।
पहले कारण से मैं उन्हें अपनी प्रेरणा का मानता आया हूँ, दूसरे कारण से मूर्ख।
मेरे परिचितों और मित्रों में अनेक हैं जिनकी रुझान नक्सलवादी है। मैं उनका सम्मान करता हूं, यह जानते हुए भी कि उनके मन में मेरे लिए सम्मान नहीं हो सकता। कारण, सम्मान के बाद भी मैं उनका समर्थन नहीं करता, मूर्ख समझता तो हूँ पर व्यक्ति के रूप मे उनके विषय में जितना जानता हूं उससे उनके प्रति जो आदर है, उसके कारण कह नहीं पाता । वे भी मुझे इन्हीं कारणों से अपनी नजर में मूर्ख समझते तो हैं, पर कहते नही।
उनकी परिभाषा में मुझ जैसे लोग या तो कायर होते हैं, या अवसरवादी, अथवा यथास्थितिवादी।
यथास्थितिवादी लोग प्रगति अर्थात् क्रांति में बाधक तो हैं ही; प्रतिक्रियावादी भी हो सकते हैं और संकीर्णतावादी भी।
मुझे इससे चिंता नहीं होती, पर इस बात से चिंता होती है कि हमारे समाज का बौद्धिक नेतृत्व करने वाला वाचाल और जोड़-तोड़ में दक्ष (इसके बिना तो संगठन कायम भी नहीं होते।) वर्ग अपनी रक्षा तक नहीं कर पाता, नैसर्गिक संकेत प्रणालियों को फाल्स सिग्नल कह कर, उनको विघ्नकारी मान कर उनको बंद करने की ठान लेता है, और अपनी सर्वज्ञता की रक्षा में उनको मिटाने पर उतर आता है।
मेरे प्रति उसकी क्या प्रतिक्रिया है इसका मुझ पर प्रभाव नहीं पड़ता। मैं अपनी आँख पर, अपने संकेतग्राही अंगोे पर और उनकी क्षमता को बढ़ाने वाले साधनों का सम्मान करता हूँ, और बार बार यह याद दिलाता रहता हूँ कि अपनी आँखों पर, अपनी बुद्धि पर भरोसा रखो, दूसरा कितना भी बुद्धिमान हो, उस पर भरोसा करने पर वह तुम्हारा उपयोग, तुम्हारा उपयोग अपने हित के लिए करेगा।
इसके अतिरिक्त, जो कुछ, किसी दूसरे द्वारा, दिया जा सकता है उसकी कभी लालसा नहीं की। केवल एक बार कई साल की अर्ध बेकारी और घोर अभाव के क्षणो मेंं जब आत्महत्या के विचार पीछा करने लगे थे, मैं अमेरिकी सूचना विभाग के बुक सेक्शन के अधिकारी से अपना परिचय देते हुए अनुवाद का काम मांगने गया था। अपनी योग्यता का परिचय देते हुए काम मांगना, या किसी पत्र या पत्रिका में अपनी कोई रचना भेजना मेरे लिए आज भी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं है। अमेरिकी एंबेसी में काम मांगना मुझे इसलिए कष्टकर लगा था कि मैं किसी दल या संगठन से जुड़ाव न रखते हुए भी अपने को जितना वामपंथी मानता था, उसमें वहाँ काम के लिए जाना शत्रु शिविर में जाने जैसा लगा था। पहली किताब एलिनोर रूजवेल्ट की जीवनी थी। अनुवाद पसंद किए जाने के बाद जब मेंने उनसे कहा मैं कम्युनिस्ट रुझान रखता हूँ इसलिए वह मुझे साहित्य और दर्शन आदि की पुस्तकें ही दें तो कृपा होगी। इसके बाद उन्होंने उन कार्डधारकों के नाम गिनाए जो उनके लिए अनुवाद करते थे तो भी मेरा आग्रह बना रहा। उन्होंने इसका सम्मान किया। उसके बाद से साहित्य, आलोचना, समाजशास्त्र, इतिहास आदि की पुस्तकें ही देते रहे। सच बोलना विषम परिस्थितियों में भी लाभकर होता है इसे बार-बार देखा है।
अपने दम पर औपनिवेशिक मानसिकता के विरुद्ध हथियार उठाने वाले मेरी जानकारी में अभी तक तीन ही लोग पैदा हुए। एक किशोरीदास वाजपेयी; दूसरे रामविलास शर्मा था। तीसरा नाम मैं नहीं लूंगा। पर एक अंतर है: रामविलास जी कम्युनिस्ट थे, पार्टी लाइन से आरंभ से ही उनकी भाषा और इतिहास दृष्टि को ले कर असहमतियाँ थी। शेष मामलों में वह पार्टी से सहमत लगते थे इसलिए यह उन्होंने कभी न कहा कि पार्टी की सोच उपनिवेशवादी है और विद्रोह के दर्शनी तेवर के बावजूद यह उपनिवेश की सेवा ही कर सकता है। इतिहास के एक खास मोड़ पर उनका विरोध आरंभ हुआ। आरोपों का उत्तर देना उनको उचित नहीं लगता था। जिसे जो कहना है कहे, हमें जो सही लगता है वह कहेंगे। उससे अलग किसी भी दबाव में कुछ भी नहीं कहेंगे। उनकी दृष्टि से अधिक उनका यह संकल्प मुझे प्रेरित करता है। उन्होंने एक ओर तो विवाद पर बर्वाद होने वाले समय का भी सर्जनात्मक उपयोग किया और दूसरे असंख्य प्रहारों के बाद भी उस तरह घुटने टेकने को तैयार न हुए जिसका सामना राहुल जी भी नहीं कर सके।
किसी को मूर्ख कहना, और या ना बताना कि आपने ऐसा कहा किस आधार पर है, उस पर नहीं, आपके ऊपर एक गर्हित टिप्पणी है। इसे कल बताएंगे।