नयाअंधायुग
तीन
अन्धयुग इतिहास में बार बार आते रहे है। इनके रूप भिन्न-भिन्न रहे हैं, परंतु एक लक्षण समान रहा है और वह है बौद्धिक वर्ग का सभ्यताद्रोही और ध्वंसकारी शक्तियों के सामने निरुपाय हो जाना या स्वयं उनका सहयोगी बन जाना। प्रकारान्तर से कहें तो इसमें बुद्धिजीवियो की सक्रिय या निष्क्रिय भागीदारी रही है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दौर वे रहे हैं जिसमें आतताइयों का सहयोगी बनने वाले, सृजन, चिंतन और न्याय को बाधित करने वाले स्वयं को इनकी रक्षा के लिए संघर्ष करने वाला सिद्ध करते और सचमुच ऐसा मानते हों कि वे सत्य और न्याय की रक्षा के लिए आतताइयों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। ऐसे में क्या कोई ऐसा निकष हो सकता है जिससे यह तय करने में मदद मिले कि सत्य और न्याय का पक्ष कौन सा है? अर्थात् क्या वे लोग जो बिना किसी भय या प्रलोभन के, अपने सर्वोत्तम विवेक से सत्य और न्याय के लिए संघर्षरत हैं, वे किन्हीं सिद्धांतों या मानकों के आधार पर आत्मनिरीक्षण करते हुए अपने को आश्वस्त कर सकते हैं कि वे किसी भ्रम के शिकार नहीं हैं, और यदि हैं तो वर्तमान स्थिति में उनका दायित्व क्या है?
इस मामले में झूठ के खिलाफ लड़ाई की जिन अपेक्षाओं का उल्लेख ब्रेख्त ने किया है उस पर दुबारा नजर डाली जा सकती है। “1. सच को कहने का साहस, 2. सच को पहचानने की क्षमता, 3. सच को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का कौशल, 4. उन लोगों की पहचान करना जिनके हाथ में सच का यह हथियार कारगर हो सकता है, और 5. व्यापक जनसमुदाय के बीच सच को फैलाने का हुनर।” हम आज की अपनी स्थिति में सच को पहचानने की क्षमता को सबसे ऊपर रखना चाहेंगे। ब्रेख्त किसी संगठन, दल, या विचारदृष्टि से जुड़ने या किन्हीं मान्यताओं को स्वीकारने की बात नहीं करते हैं, इसे एक चिंतक के रूप में स्वयं पहचानने की क्षमता की बात करते हैं। यदि आप ने इस अपेक्षा की पूर्ति नहीं की है, किसी विचारधारा, दल या संगठन की मान्यताओं को ‘सही’ मान कर अपना लिया है तो आप उस दल की अपनी जरूरत पूरी कर सकते हैं, पूरी ईमानदारी से यह विश्वास कर सकते हैं कि आप सत्य और न्याय के लिए, अपने निजी हितों का बलिदान करते हुए, संघर्ष कर रहे हैं, क्योंंकि उस दल या संगठन का जन्म ही इस ‘महान’ उद्देश्य के लिए हुआ था, जब कि सचाई यह है कि उस संगठन या दल द्वारा आपका, आपकी सहमति से, उपयोग किया जा रहा है। जिसे आप प्रतिबद्धता कहते हैं, वह अपनी वैचारिक स्वतंत्रता त्यागने, अपना बुद्धि-विवेक खोने का पर्याय है। जो स्वयं एक फरेब का शिकार है, वह झूठ के खिलाफ खड़ा ही नहीं हो सकता। उसमें झूठ और सच में फर्क करने की क्षमता ही नहीं; वह झूठ के साथ है और इस सचाई से अवगत नहीं।
जॉर्ज ऑरवेल के शब्दों को कुछ बदल कर रखें तो “यू आर पार्ट ऐंड प्रोमोटर ऑफ ए यूनिवर्सल डीसीट ऐंड ए मिनेस टु दि रिवॉल्यूशनरी ऐक्ट आफ टेलिंग द ट्रुथ।” ऑरवेल के 1984 का पहला खंड मोटे, काले अक्षरों में छपे निम्न वाक्यों से समाप्त होता है:
WAR IS PEACE
FREEDOM IS SLAVERY
IGNOREANCE IS STRENGTH
परन्तु मैं स्वयं ऑरवेल की अदायगी का कायल होते हुए भी उसकी उक्तियों को इस सावधानी के साथ ही ग्रहण कर पाता हूँ कि शीतयुद्ध मुहावरे का जनक यह कलाकार भी जिस पक्ष को सत्य और न्याय का पक्ष मान कर उसके समर्थन में खड़ा था वह पक्ष स्वयं भी इन्हीं फिकरों का मुहताज है। इतिहास के विशेष चरणों और समाज की अपनी आंतरिक प्रतिस्पर्धा और उपलब्ध विकल्पों के संदर्भ में सच और झूठ की पहचान स्वयं करनी होती है और इसकी क्षमता बहुत कम लोंगों में होती है।
और इस पहचान के बाद भी सच को कहने का साहस और भी कम लोगों में होता है। यह साहस केवल बाहरी भय और प्रलोभन से मुक्ति की ही माँग नहीं करता, अपने राग-द्वेष से मुक्त होने की भी माँग करता है, उन आवेगों से मुक्त होने की भी माँग करता है जो हमारे विवेक को कुंठित करते हैं। सही, संतुलित भाषा की भी माँग करता है क्योंकि इसका सीधा संबंध आप की विश्वसनीयता से है जिसके खत्म हो जाने के बाद आप लिख और बोल कर, संचार के साधनों पर जिस सीमा तक अधिकार है, प्रचारित और प्रसारित हो कर भी अनसुना और अनदेखा रह जाते हैं और इसी के विपरीत अनुपात में उन मान्यताओं, विश्वासों और विचारों की स्वीकार्यता बढ़ जाती है जिनका आप विरोध करते हैं।
सबसे जरूरी है इस अतिविश्वास से बचना जिसके शिकार हमारे रचनाकार और पत्रकार रहे हैं, कि उनके पास सूचना का भंडार है, अपने कथ्य को प्रभावशाली और मार्मिक ढंग से पेश करने का शिल्प है, और वे इसके बल पर जिस भी चीज को जो भी सिद्ध करना चाहें सिद्ध कर और अपने पाठकों के मन में उतार सकते हैं। इसके साथ जुड़ा है जनसाधारण की मूढ़ता में अकथित विश्वास। विद्वान और अनाड़ी बुद्धि के मामले में समान होते है, अंतर विद्या और कौशल के मामले में होता है जो कुछ को उपलब्ध होता है, शेष इनसे वंचित रह जाते हैं। इसलिए उन्हें कुछ समय में ही यह पता चल जाता है कि उन्हें मूर्ख बनाया जा रहा है, और इस बोध के साथ आपके ज्ञान और कौशल का जादू टूटना आरंभ हो जाता है। नासमझी आपकी और दोष आप जनता को देते हैं कि एकाएक वह सांप्रदायिक हो गई है। अंध राष्ट्रवादी हो गई है। फासिज्म के खिलाफ आप की लड़ाई में आप का साथ नहीं दे रही है। वास्तविकता यह है कि वह इस जंग में उतर चुकी होती है और वह आपको इनका मूर्तरूप मान कर आप से लड़ रही होती है।