Post – 2020-03-10

नया अंधायुग
दो
आनंद स्वरूप वर्मा ने अपनी पुस्तक के पहले अध्याय ‘आजादी और जवाबदेही’ मैं पत्रकारिता के क्षेत्र में आई गिरावट के विविध रूपों रूपों और कारकों का निरूपण किया है जिनका दायरा इतना फैला हुआ है कि इन सभी को एकत्र समेटने पर समस्या सुलझने की जगह अधिक उलझ जाती है। परंतु एक लेखनजीवी पत्रकार पर पड़ने वाले दबाव (बौद्धिक दायित्व और आर्थिक स्वावलंबन) के चलते उन्होंने वदन्त-लेखन का जो तरीका अपनाया उसमें इस तरह की बारीकियों का ध्यान रख पाना संभव नहीं। जिस संकट से वह अपनी बात शुरू करते हैं वह यह कि “प्रिंट मीडिया अथवा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, दोनों ने देश की जनता को एक खास ढंग की राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाने की जिम्मेदारी संभाल ली है और इस प्रक्रिया में उसके लिए हर व्यक्ति या संगठन देश का दुश्मन है जो सांप्रदायिक अंधराष्ट्रवाद, असहिष्णुता और राजनेताओं की गुंडागर्दी का प्रतिरोध करता है, जो अन्याय का विरोधी है और जो तर्कशीलता में यकीन करता है।” आगे बढ़ते ही यह हिंदुत्ववादी संकट का रूप ले लेता है जिसमें मुझे स्वयं भी उन लोगों के साथ खड़ा पाया जा सकता है जिनकी ऊपर भर्त्सना की गई है।

लेख के अंत में बर्टोल्ट ब्रेख्त द्वारा सुझाए गए झूठ के खिलाफ लड़ाई लड़ने के कुछ तरीकों का उल्लेख किया गया है “उनका कहना था पांच बातों को ध्यान में रखना चाहिए- 1. सच को कहने का साहस, 2. सच को पहचानने की क्षमता, 3. सच को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का कौशल, 4. उन लोगों की पहचान करना जिनके हाथ में सच का यह हथियार कारगर हो सकता है, और 5. व्यापक जनसमुदाय के बीच सच को फैलाने का हुनर।” इसी क्रम में कुछ आगे बढ़कर जॉर्ज ऑरवेल के इस कथन को उद्धृत करते हैं “इन ए टाइम ऑफ यूनिवर्सल डीसीट टेलिंग द ट्रुथ इज ए रिवॉल्यूशनरी ऐक्ट।”

हमारी सहमति इन सिद्धांतों तक ही सीमित है- इससे आगे बढ़ने पर समझ के रूप और लेखकीय कार्यभार सभी को लेकर अंतर इतना बढ़ जाता है कि यदि उनकी नजर में लगे कि मैं प्रतिक्रियावादी शक्तियों के साथ हूँ तो इस समझ से असहमति रखते हुए मैं उनको ऐसी राय बनाने के लिए दोष नहीं दे सकता। ठीक इसी तरह यदि मुझे लगे कि जिसे वह एक लेखक और विचारक का कार्यभार मानते हैं उसकी अपेक्षाएं क्या है इसकी समझ ही धुँधली है, जो उन्हें सत्य का पक्ष प्रतीत होता है उसकी बुनियाद ही झूठ और फरेब पर रखी गई है तो इसे समझने में उन्हें कठिनाई ही नहीं होगी, यह आरोप इतना अनर्गल प्रतीत होगा कि वह यह समझने तक के लिए तैयार नहीं होंगे कि इस मान्यता का आधार क्या है।

संकल्प एक है, उसके लिए समर्पण भाव भी एक है, और सच्चाई क्या है इसकी समझ इतनी अलग है कि सत्य के दोनों अनुसंधाता एक दूसरे के विरुद्ध खड़े हो सकते हैं और वस्तुतः खड़े हैं।

यहां हम एक नई समस्या के सामने उपस्थित होते हैं। जिनको हम बौद्धिक मानते हैं वे सचमुच बौद्धिक हैं भी या नहीं। वे स्वयं सोचते हैं या किन्हीं ऐसे दावों को सुविधाजनक या प्रथम दृष्टि में सही समझ कर अपना लिया है, जो पड़ताल के बाद गलत सिद्ध हो सकते हैं। फिर इतिहास जो मानविकी की प्रयोगशाला है उसने उन्हें क्या सिद्ध किया है। जो लोग अपने को धर्मनिरपेक्ष मानते हैं वे धर्मनिरपेक्ष हैं या सांप्रदायिकता को दूर करने के बहाने उसका विस्तार कर रहे हैं?