Post – 2020-03-06

सोलह
(जारी)

हमने यहूदी विरोध की जिस विस्तृत सर्वे रपट का हवाला दिया है उसके केवल एक पक्ष पर ध्यान केन्द्रित करना चाहूँगा। भारतीय चिंतन, और उसमें भी विशेषतः हिंदी क्षेत्र का चिंतन, इतना सतही हो चुका है, इसमें किसी समस्या को गहराई में समझने की आकांक्षा तक का अभाव दिखाई देता है और इसकी क्षतिपूर्ति, पक्षधरता की आड़ में, अपने पूर्वाग्रहों पर डटे रहने का खेल बन चुका है।

यदि किन्हीं भी परिघटनाओं की बारीकी से जांच नहीं की गई, समय रहते उनका उपचार नहीं किया गया, तो बहस में आप जीत सकते हैं, परंतु आपकी जीत आप का सर्वनाश भी कर सकती है। हमारी सामाजिक विसंगतियां पहले ही जटिल थीं। सुनने में महामानव-समुद्र, अच्छा लगता है, परंतु यह जिस डरावने यथार्थ की ओर इंगित करता है उसके प्रति असावधानी अपने विनाश को आमंत्रित करने जैसा है। पहले की जटिल समस्याएं हमारी लापरवाही के कारण अधिक जटिल होती गईं, आज व्याधि का रूप ले चुकी हैं, और विनाशकारी होती जा रही हैं।

यह हमारे अस्तित्व और हमारे भविष्य की समस्या है जिसके परिणाम सभी को भुगतने होंगे। किसी अन्य धर्म-समुदाय या धर्मेतर समुदाय से, वह जो कुछ मानता है, उसे लेकर मुझे कोई शिकायत नहीं है।

हमने जिस सर्वेक्षण की बात की है उसमें हेलेन फीन की निम्न पंक्तियों को मैं मूल में प्रस्तुत करना चाहता हूं:
Reports on antisemitism uses the definition of Helen Fein according to which antisemitism is “a persisting latent structure of hostile beliefs towards Jews as a collectivity manifested in individuals as attitudes, and in culture as myth, ideology, folklore and imagery, and in actions – social or legal discrimination, political mobilisation against the Jews, and collective or state violence – which results in and/or is designed to distance, displace, or destroy Jews as Jews.”(464).

जिस तथ्य की ओर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, वह यह है स्वतंत्र भारत में या कहें प्रेमचंद्र के बाद के हिंदी साहित्य में जहां भी गुंजाइश रही है, कविता, कहानी, रंगमंच, सिनेमा, विचार-विमर्श, समाचारकथा और टिप्पणियों में, आपसी व्यंग्य विनोद और तंज में हिंदू-मुस्लिम समस्या को खींचतान कर लाया जाता रहा है और बड़ी ‘सदाशयता’ से हिंदू को अपराधी सिद्ध करने का ही प्रयत्न नहीं किया जाता रहा है, अपितु एक गुंडे खान भाई (मुसलमान का इस भूमिका में नाम नहीं रह जाता खान भाई बन कर सांप्रदायिक प्रतिनिधि बन जाता है) हिंदू की उपेक्षा और अविश्वास के बाद भी उसका अनन्य हितैषी, उसकी आबरू का एकमात्र रक्षक बना रहता है और उसके उपकारों के नीचे दबा हिंदू इसके बाद भी उसके प्रति असहिष्णु बना रहता है। (फिल्मों का नाम याद नहीं पर प्राण और नाना पाटेकर की भूमिकाएं या’द आ रही हैंं)।

मैं यह बताना चाहता हूं यह हमारी वस्तुदृष्टि है जो उस कट्टर इस्लामी वस्तुदृष्टि का आभ्यन्तरीकरण है जिसका इजहार करते हुए मोहम्मद अली ने खिलाफत में गांधी का उपयोग करने के बाद कांग्रेस के मंच से कहा था, ‘गिरा से गिरा हुआ मुसलमान गांधी से अच्छा होता है। यह उनकी कृतघ्नता नहीं थी, यह वही इस्लामी सच था जिसके चलते मुहम्मद साहब के पितृतुल्य चचा अबूतालिब को मुसलमान न होने के चलते दोजख की आग में जलना ही था। यह कट्टर मुसलमानों (यद्यपि लिबरल कब तक लिबरल रहता है और कहाँ से कट्टरता हावी हो जाती है यह तय करना आसान नहीं होता), की धारणा हो तो हैरानी की बात नहीं है। इसे उदारचेता हिंदू सेकुलर समाज इतने सहज भाव से अपनी अंतश्चेतना, विचारदृष्टि और कलादृष्टि का अंग बनाकर काल्पनिक ‘यथार्थ’ को वास्तविक यथार्थ पर आरोपित करके ‘यथार्थवादी’ साहित्य रचता रहा और आशा करता रहा कि समाज उसके यथार्थवाद को स्वीकार कर लेगा। उसके सुझाए आदर्श के अनुसार अपने को बदल लेगा।

यह उसकी बौद्धिक पराकाष्ठा का सूचक है। हिंदी लेखन में ही यह इतना स्वीकार्य रहा, यह अलग विचार का विषय है।

हिंदी का पाठक साहित्यविमुख नहीं हुआ, हिंदी के तथामन्य सेकुलर साहित्यकारों और पत्रकारों ने इसे साहित्यविमुख होने को बाध्य कर दिया। हिन्दी प्रदेश के वैचारिक खोखलेपन की, इसे काउबेल्ट बनाने की जिम्मेदारी इन्हीं बुद्धिविक्रयी जनों की है जो इसे काउबेल्ट कहने में भी सबसे आगे रहते हैं।