सोलह
(अधूरा)
समय के सामने मनुष्य का, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, इतना भी महत्व नहीं होता जितना किसी बच्चे के हाथ में आए खिलौने का। इस तथ्य का तोल्स्तोय ने युद्ध और शांति में जितनी मार्मिकता से प्रस्तुत किया है उसे सही सही रेखांकित करना भी हमसे संभव नहीं। उसके बाद इस पर बहस की गुंजाइश नहीं रह जाती। व्यक्तियों का उल्लेख इसलिए करना होता है कि किसी युग की प्रवृत्तियां कुछ व्यक्तियों में अधिक प्रखरता से व्यक्त होती हैं, पर यह भी संभव है कि वे उसमें नितांत एकांगी या विकृत रूप में व्यक्त हों, और इतर पक्षों का प्रतिनिधित्व करने वाली किसी संस्था के अभाव में हम उसे ही उसका समग्र समझ लें।
हम समझना चाहते हैं हिंदू (समाज) और हिंदुत्व (सांस्कृतिक प्रतीकों और मूल्यों) के प्रति नफरत की ऐसी भावना कैसे पैदा हो गई जो ईसाई जगत में व्याप्त यहूदीद्रोह से भी आगे बढ़ कर, हिंदू समाज को उनकी अपेक्षा अधिक संकटग्रस्त सिद्ध करती है। यहूदीद्रोह की भावना को इसकी तार्किक परिणति पर नाजियों ने पहुंचाया हो, परंतु यह भावना एक मिथ्या दुष्प्रार के कारण पूरे ईसाई जगत में व्याप्त थी जो हिटलर के महासंहार में घनीभूत हो गई। हिटलर को बदनाम करने वाले उसके बाद उस पुरानी मनोबद्धता से मुक्त हो सके होते तो हम यह मान सकते थे कि मनुष्य का विवेक उसके पूर्वाग्रहों पर भारी पड़ता है। परंतु हाल (2002-2003)[1] के अध्ययनों में पाया गया कि आज भी पूरे यूरोप में यहूदी विरोध जटिल रूप में विद्यमान है जो बातचीत में फिकरों, लेखों, टिप्पणियों और कलात्मक विधाओं में प्रकट होता रहता है।
जब हम हिन्दू समाज और हिंदुत्व को संकटग्रस्त कहते हैं ताे इसलिए कि आज की दुनिया में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार जाे दूसरे समुदाय हैं – यहूदी, यजीदी, कुर्द, अहमदिया, एक-दूसरे के लिए सुन्नी-शिया – इनमें कोई ऐसा नहीं दिखाई देता जिसका एक भी सदस्य ऐसा हो जो अपने ही समुदाय की मान्यताओं के विरोध में खड़ा दिखाई दे। ऐसे नमूने केवल हिंदू समाज में देखने को मिलते हैं। ऐसे सुपठित लोगों की संख्या काफी बड़ी है जो अपने को हिंदू माता पिता की संतान होने और खान-पान व्यवहार की सीमा तक हिंदू, अपनी धर्म दृष्टि में सेकुलर, विचार-दृष्टि में वामपंथी मानते हैं, परंतु जुमलों का कमाल यह है कि हिन्दू न रह जाने के बाद भी हिंदू मूल्याें – उतारता, समावेशिता, विविधताओं के सह अस्तित्व की परंपरागत भारतीय विशेषताओं की रक्षा की चिंता भी सबसे अधिक इन्हें ही है। वे मानते हैं कि इस महान मूल्य प्रणाली को सबसे अधिक खतरा हिंदुत्व की रक्षा के नाम पर उभरने वाले इन हिंदू संगठनों से है। यदि इनकी चले तो ये भारत को पाकिस्तान बना कर रख देंगे। भारत नाम को भारत पर व्यवहारतः पाकिस्तान हो जाएगा।
बुद्धि की कमी के कारण एक ही नतीजे पर ले जाने वाले मुहावरों को इतने हुमच-हुमच कर बोलने वाले इतने सारे लोग को लगातार सुनते रहने से ऐसी आजिजी पैदा होती है कि सोचता हूँ उनकी बात मान ही लूँ कि तभी देखता हूँ जहाँ भी भारत और पाक के बीच चुनाव अपरिहार्य हो जाता है, वे पाक के साथ खड़े हो जाते हैं और मैं फिर उसी अनिश्चय में पहुँच जाता हूँ जहाँ से मेरी जिज्ञासा आरंभ हुई थी।
पिछले सात सालों से शिकायत का एक नया स्वर मुस्लिम समाज के सबसे प्रबुद्ध तबके – कलाकार, न्यायविद, उच्च पदों पर भारत का पूरी याेग्यता से प्रतिनिधित्व करने वाले अधिकारी – सभी को जो पहले पूरी तरह सुरक्षित अनुभव करते आ रहे थे और अधिकाधिक सुरक्षित होते जा रहे थे, उभर कर सामने आने लगा। वे बिना किसी ठोस कारण या असुविधा के बैठे-ठाले असुरक्षित ही अनुभव नहीं करने लगे, अपितु इसका खुला इजहार करने लगे। वह अंतर क्या था। नजर तंग है, दूर तक जा नहीं पाती। जहाँ तक जाती है उसमें जो कुछ दिखाई देता है वह यह कि इससे पहले यह घोषित करने की नौबत आ गई थी कि इस देश की परिसंपत्तियों पर अल्पमत का अधिकार है। संभवतः यह उनकी सुरक्षा की गारंटी थी। बदलाव यह आया कि सबका सबकुछ है। सबका साथ सबका विकास। असुरक्षित क्या वे हैं जो दूसरों के विकास को अपने विकास में बाधक मानते हैं?
[1] Manifestations of Antisemitism in the EU 2002 – 2003 Based on information by the National Focal Points of the RAXEN Information Network, (Robert Purkiss Beate Winkler (Chair of the EUMC Management Board) (Director EUMC)