पन्द्रह(क)
नेहरू जी जेल की बोरियत कम करने के लिए किताबों में भारत की खोज कर रहे थे। किताबों में देश और समाज नहीं मिलता, उनके विषय में कुछ सूचनाएँ मिलती हैं जो सही हों यह जरूरी नहीं। औपनिवेशिक जरूरतों के चलते भारत के इतिहास का जातक ही बिगाड़ दिया गया था और इतिहास के नाम पर किसी दूसरे स्रोत का उन्हें ज्ञान न था, यदि होता तो उस पर उन्हें भरोसा नहीं हो सकता था।
विलायती शिक्षा-प्राप्त व्यक्ति उस नकली इतिहास को सच मानता था जिसमें भारत का सब कुछ – लोग, भाषा, सभ्यता के औजार सभी पाँच हजार साल के भीतर ही बाहर से आया था। भारतीय समाज उतने ही नकली पुराण को अपना सच मानता था, जिसमें सृष्टि के आदि से भारतीय मनुष्य अपने समस्त सांस्कृतिक दाय के साथ इसी में बसा हुआ है और यहीं से पूरी दुनिया में फैला है।
भारत की खोज भारत का भौगोलिक सर्वेक्षण नहीं हो सकता था। यह भारतीय समाज के मानस की ही खोज हो सकती थी जिससे रागात्मक तादात्म्य स्थापित करने के बाद उसकी शक्तियों और सीमाओं की सही समझ रखते हुए उसकी ऊर्जा को एकदिश करते हुए किसी लक्ष्य की प्राप्ति में उसका विवेकपूर्ण उपयोग किया जा सकता था।
उन्होंने जिस भारत को खोजा वह पश्चिमी जगत द्वारा खोजे और गढ़े हुए का परिचय मात्र था जिससे वह भारत को नहीं समझ सकते थे; भारत को विलायती भारतविद क्या समझता है, इसे अवश्य जान सकते थे और यही समझ पाए। वह न भारत को खोज सके, न भारत को पा सके और इसलिए इसके बाद के स्वतंत्रता आंदोलन में न तो इतिहास की उनकी समझ का उपयोग दिखाई देता है, भारतीयों के साथ बाद के उनके व्यवहार में इसी का आभास मिलता है। वह आजीवन भारतीयों के साथ अंग्रेज हाकिमों की तरह पेश आते रहे और जिस सतह पर थे उससे नीचे झाँकने की जगह ऊपर उड़ान भरने की सोचते रहे। इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है।
कांग्रेसियों के बीच उन्हें समाजवादी तो लगभग सभी मानते थे, परन्तु हैरानी की बात है कि बिहार में जमीदारी उन्मूलन का प्रस्ताव रखने पर उन्होंने झिड़कते हुए बेनीपुरी जी को चुप करा दिया था। चौधरी चरण सिंह की दृढ़ता थी जिससे उत्तर प्रदेश में जमींदारी ‘उन्मूलन’ संभव हुआ।
वर्णवाद को कमजोर करने के लिए चरण ने यह सुझाव रखा था कि यदि कोई सवर्ण अस्पृश्य वर्ण से विवाह संबंध बनाए तो उसे सरकारी नौकरियों में विशेष रियायत दी जानी चाहिए। चरण सिंह के लिए यह खोखला सुझाव न था, उन्होंने इस पर अमल किया था, परंतु नेहरूजी ने बिहार के जमींदारी उन्मूलन की तरह इसे भी झिड़क कर किनारे कर दिया था कि प्रेम और विवाह जैसे संवेदनशील संबंध को इतना यांत्रिक नहीं बनाया जा सकता। आदर्श सही है, यथार्थ इस पर भारी पड़ता था, क्योंकि विवाह संबंध में जाति, वर्ण, गोत्र के साथ दहेज अधिक निर्णायक हुआ करता था। भाषावार राज्यों का गठन हो गया, पर नेहरू जी के जीवन काल में किसी भी राज्य में उसकी भाषा में काम करने की छूट न दी गई कि इस दशा में केन्द्रीय भाषा के रूप में हिंदी को आने से नहीं रोका जा सकेगा।
वह अपने धेवते को वह उद्योगपति बनाना चाहते थे और छोटी कार के उत्पादन की योजना को उसके इंजीनियर बन कर लौटने तक लटकाते जा रहे थे जिसका लोहिया ने इशारा करते हुए उपहास भी किया था। लोहिया जी इस पर भी तंज कसने के बाज न आते थे, परंतु अपने लक्ष्य की ओर उनकी प्रत्येक चाल शतरंज की गोटों जैसी दूर की सोच से निर्देशित होती थी। वंशाधिकार में विजय लक्ष्मी सशक्त प्रतिस्पर्धी न बन सकें इसलिए उन्हे लगातार राजदूत बना कर रखा।
नेहरू के पूरे जीवन को देखें ता यह चित्रवत सामने आ जाएगा कि वह त्यागने और गँवाने की राजनीति में विश्वास नहीं करते थे और इसका ध्यान रखते हुए ही हम इस नतीजे पर पहुँचे थे कि स्वतंत्रता आंदोलन में पूरे परिवार की प्रतीकात्मक भागीदारी शासनाधिकार की योजना के साथ किया गया ‘विनिवेश’ था जिसकी सचाई उसकी चकाचौंध में लक्ष्य नहीं की जा सकती थी। इतिहास का व्यंग्य कि उनकी योजना ठीक उनकी चाहत के अनुसार घटित नहीं हुई परन्तु यह बात किसी से छिपी न थी कि वह अपने उत्तराधिकारी के रूप में किसे तैयार कर रहे थे।