पन्द्रह
भारत की खोज
सामान्यतः हम कई तरह के भ्रमों के शिकार रहते है। हम मानते हैं कि हम अपने को और अपने से जुड़ी हर चीज – अपना परिवार, परिवेश, देश, भाषा, संस्कृति, इतिहास – को किसी अन्य की तुलना में अधिक अच्छी तरह जानते हैं और इनके विषय में अधिकार पूर्वक बात कर सकते हैं, पर ऐसे अवसर भी आते हैं जब हमें पता चलता है कि कुछ मामलों में हम अपने को दूसरों से भी कम जानते है।
केवल इतर की नहीं स्व की खोज भी, अपने को जानना, अपने को पाने और इतर से जो कुछ लभ्य है उसको पाने और सुपाच्य बना कर अपनी ऊर्जा को अक्षय बनाने का एकमात्र उपाय है। इसके अभाव में अपने और अपनों के विषय में हमारा ज्ञान सतही और कामचलाऊ होता है। हमें यह तक पता नहीं हो पाता कि भविष्य की हमारी दिशा क्या हो सकती है।
इसलिए अन्य जरूरी कामों की तरह अपने को खोजने का समय अवश्य निकालना चाहिए, क्योंकि खोजना अपने को पाने का भी पर्याय है। स्व हो या पर, हम जिस सीमा तक इसे जानते हैं उसी के भीतर अपने लिए कुछ पा भी सकते हैं। उस पाने के साथ नई जिज्ञासा और खोज की नई दिशाएँ खुलती हैं और उन तक पहुँचने की प्रविधियों और युक्तियों का आविष्कार होता है। ये सभी एक-दूजे-पर-निर्भर या अन्योन्याश्रित प्रक्रियाएँ हैं। इसकी आदत पड़ जाने पर, इससे अधिक आकर्षक दूसरा कोई मनोरंजन नहीं रह जाता।
बहुत प्राचीन काल से भारत अपनी उपलब्धियों के कारण सभ्यता की दिशा में किन्हीं भी कारणों से अग्रसर समाजों के लिए रहस्यमय देश बना रहा है और अपना कुतूहल शांत करने के लिए उन देशों के कतिपय साहसी जन भारत आते रहे हैं जिनमें से केवल कुछ के विवरण हमें आज उपलब्ध हैं, जब कि भारत से बाहर जाने वालों के लिखे उन देशों के विषय में हमें कोई जानकारी नहीं मिलती, या मिलती है तो ठीक उस भाषा में जिसमें ईसाई मिशनरियों द्वारा गैर-ईसाई देशों और समाजों का वर्णन मिलता रहा है। बाह्य जगत के विषय में जिज्ञासा और पहल का अभाव गौरव का नहीं ग्लानि का विषय है, परंतु यह एक ऐसा रोग है जो अपनी असाधारण सफलता के बाद नशे की तरह सभी सभ्यताओं के भीतर दिखाई देता है- अन्यथा ब्रिटेन और अमेरिका ने आज के चुनौती भरे व्यस्त समय में दाशमिक प्रणाली अपना ली होती।
पर एक दौर ऐसा भी था जब वे दावा करते थे कि दुनिया के ऐसे अगम्य स्थलों पर पहुँच कर जहाँ उनसे पहले कोई न पहुँचा था (विश्वा धामानि अमिता मिमाना) उन्होंने अपने जनों के लिए बस्तियाँ बसाई हैं (स्वां प्रजां बृुदुक्थो महित्वा आवरेषु अदधात् आ परेषु।) वही भारतीय सभ्यता का चरम उत्कर्ष काल है।
परंतु यहाँ हम जिन तीन खोजों की बात कर रहे हैं, उनमें पहली है वास्को-डि-गामा द्वारा भारत पहुँचने के मार्ग की खोज; दूसरा गांधी द्वारा भारतीय अवस्था की खोज और तीसरा नेहरू द्वारा दो हजार साल से कुछ पीछे जाकर शांति का अग्रदूत बनने की खोज।
(जारी)