विषादपर्व
यह उस लंबी बहस की यथासाध्य सटीक प्रस्तुति है जिससे बचने के लिए मैं सोना नहीं चाहता था, कई सालों की नींद नशे तरह सहला कर अपनी दबोच में लेती थी। आंख झपकते ही अपने आप से तकरार। मेरी रातें व्याधि का रूप लेती चली गई।
विचित्र विरोध। जीवन सामान्य, ब्लड प्रेशर ठीक, न तो ताप, न दर्द, न कोई चिन्ता, न उलझन, वजन में अधिक गिरावट और और फिर भी इतना बेचैन जैसे कोई मुझे भीगे कपड़े की तरह निचोड़ रहा हो रहा हो।
उपमा के सहारे किसी बात को समझाया नहीं जा सकता; कोई चीज किसी दूसरी चीज जैसी होती नहीं। अब इस अनुभव को क्या कहेंगे। पलक झपकते ही आपके सामने एक पांडुलिपि आ गई है जिसकी स्थापनाएं ऐसी डरावनी सूचनाओं से भरी हुई हैं कि मैं घबरा कर भागना चाहता हूं और फिर जिद करके उसको सारी काटता बदलता रहता हूं। पूरी रात इस दुःस्वप्न में । सुबह जागना पड़ता है, नींद से भरी आंखें लिए हुए । परेशानी में सोचता हूं शायद नींद की दवा से नींद गहरी होने पर इससे इससे मुक्ति मिल सके। नहीं मिलती।
डॉक्टर का मानना है माइंड को ऑक्सीजन की सप्लाई में कमी आ गई लगती है। बात समझ में नहीं आती। होती तो इतने लंबे दौर का काम कैसे सध पाता। फिर सोचता हूूँ तो ऑक्सीजन की सप्लाई की कमी समझ में आती है। ब्रांकाइस के उपद्रव से पिछले तीन साल से बचा रहा। ऐसा नहीं है फेफड़ा बदल गया था, या हवा का पॉल्यूशन लेवल बहुत कम हो गया था, एक्जीमा के प्रकोप और उसकी टीस ने उसकी वेदना को ढ़क रखा, उसे उभरने का मौका न दिया। उसकी सुरक्षा कवर के नीचे भरता रहा था भीतर का पूरा कचरा घर।
जो लिखा है वह अक्षरशःसत्य है; जो लिखा है वह अक्षरशः असह्य है। इतने असह्य को कहना । वह भाषा कहां मिलेगी? उसे समझेगा कौन?
समझने की चिंता करके जो लिखता है, वह समझने वालों की अपेक्षाओं को पूरा करता है। यह एक तरह की खुशामद है। सच को लिखने की ताकत इधर-उधर देखने वाली भाषा में नहीं होती।सत्य अपनी भाषा लेकर आता है। यह शब्दकोश से जुड़ा मामला नहीं है; सत्य की अपनी प्रकृति से जुड़ी समस्या है। यदि तुम्हारे पास वह भाषा ही नहीं है तो लिखा क्या?