Post – 2020-01-28

कुछ_तो_अपनी_भी_कहो (3)
“अतिप्रश्न मत कर गार्गी, कहीं तेरा सिर न फट जाय!” याज्ञवल्क्य

मुझे बोलना नहीं आता, इसका एक कारण यह भी है कि जब बोलना सीख रहा था, उसी समय प्रश्नों ने मुझे घेरना शुरू कर दिया।

यह अकेला मेरे साथ नहीं, सभी शिशुओं के साथ होता है। संसार उसके सामने आश्चर्य के रूप में उपस्थित होता है। परंतु उनके प्रश्नों का उत्तर मिलता जाता, आश्चर्यलोक सिकुड़ते-सिकुड़ते कार्य-कारण की शृंखला बन कर शून्य में बदल जाता है और वे उस अधोगति को पहुंच जाते हैं जिसमें जिसका कार्य कारण समझ में नहीं आता, जिसका सही उत्तर नहीं मिलता, उस पर भी आश्चर्य नहीं कर पाते। इन्हें वे इसलिए मान लेते हैं कि उनसे समझदार बहुत सारे लोग इन बातों को मानते हैं, या मानते चले आए हैं, इसलिए वे ठीक ही होंगे।

यह खतरनाक स्थिति है, एक तरह की आंशिक मौत।

जानता हूं, मैं अपनी बात कह चुका हूं, परंतु यह बात आप तक नहीं पहुंची, और लिहाज से आप में से कई लोग, यह मान लेंगे कि मैंने कहा है तो ठीक ही होगा।

मैं मानने वालों से डरता हूँ। मानने वालों के बीच रहना, अर्धमृत-अर्धजीवित लोगों के बीच रहना है।

यह मुर्दों के बीच रहने से भी बुरा है।

मुर्दाें में सड़ाँध आने के साथ ही, आप वहाँ से अलग हो जाएँगे। समझते देर न लगेगी कि यहाँ रहा तो जिंदा न रहूँगा।

मान्यताओं के शिकार, अर्धजीवित लोगों के साथ, लंबे समय तक, रहने के बाद भी आप को यह पता नहीं चलता कि आप अपने आश्चर्य लोक से बाहर जाकर, प्रश्नों की दुनिया से बाहर जाकर, स्वयं आधे मर चुके हैं।

ऐसा विचारधारा के कारण हो, या परंपरा की लाज, कुल-रीति के निर्वाह की लालसा के कारण, या जिन्हें आप प्यार करते हैं, जिन का सम्मान करते हैं, उनका निरादर न हो जाए, इस लिहाज से वैसा मानो या बन जाओ का चलन, आदमी को जिंदा नहीं रहने देता। इसलिए, यदि पीछे के पन्नों को पलटें तो, आपको पता चलेगा, मैंने कितनी बार यह याद दिलाया है कि मेरी किसी बात को मत मानो। नकारो भी मत। इनको परखो और सभी निर्णय अपनी ज्ञान सीमा में, जो सही लगता है, उसके अनुसार करो।

लगता होगा, मैं इस तरह अपनी नम्रता का प्रदर्शन करते हुए आपकी नजरों में कुछ ऊपर उठना चाहता हूँ। आप अपनी सीमा में सोचें, यह उसी आग्रह की कड़ी है जिसमें आप से अपनी नजर से देखने और अपने दिमाग से सोचने को कहता हूँ। आप से शिकायत तो हो ही नहीं सकती।

शिकायत अपने आप से मेरी यही है, कि जो बात करनी चाहिए, उसे छोड़कर ऐसी बातें करने लगता हूं, जिनको कहता तो हूं, पर समझा नहीं पाता। सही मुहावरे तलाशने तक में देर लगाता हूँ।

अर्धमृत का अर्थ मैं आपको समझा पाया? नहीं न!

फिर समझाता हूं। आपने अपनी संवेदनशील त्वचा पर लगातार किसी चीज का रगड़ होते रहने के बाद, वहां घट्ठे पड़े देखे होंगें, जिनमें रक्त संचार बंद हो जाता है, वेदना की अनुभूति नहीं होती, परंतु उसके दबाव से जीवित अंश में वेदना होती है।

एक ही घटक को लगातार सुनते रहने, देखते रहने या सहते रहने से अपनी संवेदनाएं मर जाती है, जैसे चमड़ी में घट्ठे पड़ते हैं, वैसे ही दिमाग में भी घट्ठे पड़ जाते हैं। उनसे हम समझौता कर लेते हैं। कोई पहली बार उन्हें देखकर चकित हो जाए, उद्वेलित हो जाए, तो हमें लगता है, ज्ञानी गुरु मिल गया।

‘ज्ञानी गुरु’ के अपने दिमाग के भी घट्ठे हो सकते हैं, जिनके कारण सापेक्ष रूप में एक का ज्ञानी दूसरे का ज्ञानी हो सकता है। यह मानने वाले कि गुलामों में आत्मा नहीं होती इसलिए उन्हें कोई भी यातना दो, कोई कष्ट नहीं होता, लिंचिंग करने वाले, वर्ण-व्यवस्था के अन्याय से विक्षिप्त हो सकते सकते हैं, और दोनों समुदाय अपने को दूसरे से बड़े मान सकते हैं। अंतिम निर्णय इस बात पर रह जाता है कि तलवार किसके हाथ में है ? अपनी बात कौन बनवा सकता है? बात दिमाग की हो तो तलवारों के भी कई रूप होते हैं।

ईश्वर यदि कहीं जिंदा बचा हो तो आपकी रक्षा करे और मेरे इन तलवारों की व्याख्या में उतरने से पहले आकाशवाणी करा दे, “मत सुनो उसकी, खुद जो कहता है, कहना क्या है समझ नहीं आता।”

और मुझे हाथ जोड़ कर खड़ा होना पड़े, “आप जो भी हों, हैं दुरुस्त मगर, मुझसे चुप भी रहा नहीं जाता।”

सोचिए। इतनी बड़ी भूमिका सिर्फ यह कहने के लिए, कि मैं, माई के सामने, पहली बार, एक अतिप्रश्न बन कर खड़ा हुआ। वह उत्तर भी जानती थी, परंतु अतिप्रश्न का उत्तर नहीं होता, पता हो, देने चलो तो उत्तर देने से पहले सिर फट जाएगा। इसकी जिद नहीं पालनी चाहिए।

मुझे आज तक मां के मरने का तो नहीं, सजे सँवरे सिंदूर-तिलकित-अनावृत-भाल दरवाजे पर टिकटी पर रखे शव का दृश्य याद है, और वह उद्वेलन भी जिसमें चाहता था, दौड़ूं और उस उसके साथ, अंतिम बार के लिए सो जाऊँ, अब फिर कभी, सो नहीं पाऊंगा, और साथ ही यह जानता था कि यह संभव नहीं है। शब्दों से अलग मनोभावों की, स्पर्श, गंध और स्वाद की भी स्मृतियाँ होती हैं, यह किसी को समझा नहीं सकता। अतिभाषिक को भाषा के माद्यम से समझाया नहीं जा सकता, पर होती हैं और अधिक टिकाऊ होती हैं, यह दावा कर सकता हूँ।

यदि पुराना घर टूटा न होता, बाद में कोई चीज सड़ी-गली नहीं होती तो मैं बता सकता था कि ओसारे की किस खँभिया को अपनी बाँहों में भींचे, जैसे वही माँ हो, अपलक उसे देख रहा था। दुख से नहीं, आश्चर्य से, उस दिव्य सौंदर्य से अभिभूत, जो इससे पहले कभी देखा ही न था। उसके इस साहस पर चकित, कि वह किसी की चिंता किए बिना, सबके सामने सोई पड़ी थी और इस लालसा और तड़प और बोध के बीच भीतर से दो फाँक कि दौड़ कर जाऊँ उसके पास अंतिम बार के लिए लिपट कर सो जाऊँ और यह कि ऐसा संभव नहीं है।

पहली बार दुख की अनुभूति, छटपटाहट बन कर, विस्फोट के रूप में, तब प्रकट हुई थी जब उनकी टिकटी को कंधे पर उठाकर लोग चल पड़े थे, और मैं, उस वय में पीछे दौड़ पड़ा था और नोहर की मां ने अपने मरियल हाथों में मुझे इतनी जोर से पकड़ लिया था, कि वह मुझे एक राक्षसी के रूप में याद आती रही।

मैं जानता था, मां मर चुकी है, लोगों ने उसे जला भी दिया। फिर भी जब बताया गया कि पिताजी मां को लेने गए हैं तो पीछे की सारी बातें भूल गईं। लगा सच होगा।

माई ने दीदी को, भैया को, एक-एक करके देखने को बुलाया था। जब मेरी बारी आई तो मैंने अनजाने ही अतिप्रश्न कर दिया, जिसकी इबारत भूल गई पर शब्दानुवाद संभव है, “मुझसे क्या चूक हुई थी? तुम रूठ कर कहां चली गई थीं?”
कुछ नहीं याद! कुछ नहीं याद, सिवाय इसके कि संवेद्य संचार के उस क्षण ने माई को चूर-चूर कर दिया था। कोई जवाब नहीं। उसने मेरे माथे पर द्रवित भाव से अपना हाथ रखा था। और महामाया ने आगे चलकर उसके उस हाथ को ही तोड़ दिया था, “यही तो है जिसमें तेरी वह प्रतिस्पर्धी जीवित है, जिसे मिटा कर ही तू जीवित रह सकती है।”