Post – 2020-01-20

इतिहास के खुले खेत में साँड़ (5)
जो डर गया वह मर गया

इतिहास गाली गलौज के लिए नहीं होता, यदि कोई ऐसा करता है तो वह बदहवास है और यह बदहवासी इस बात का प्रमाण कि उसे कितनी गहरी चोट पहुँची है।

चोट किस आघात से पहुँची है यह भी उसकी आलोचना और स्थापना से ही प्रकट हो जाती है। यह आघात कितना व्यापक था, और कितना दीर्घजीवी यह चार्ल्स ग्रांट से ले कर दूसरे सभी मिशनरी, उन पर भरोसा करने वाले मिल, स्टीवर्ट, हेगेल और मार्क्स तक ही नहीं सीमित रहा, जिन्होंने परुष मुहावरों का प्रयोग किया, यह उनमें भी पाया जा सकता है जो अपने जुमले कुछ सावधानी से गढ़ते हैं, जिनमें स्वयं जोन्स, कोलब्रुक, बेंटली, पार्रे, मैक्समुलर आदि आते हैं। यह उन सभी विद्वानों में भी तलाशा जा सकता है जिन्होंने असंभव को जानते हुए भी ‘असंभव-दर-असंभव-दर-असंभव’ को स्वीकार करते रहे हैं।

मैने जिस बात को स्पष्ट करने के लिए इस मुहावरे का इस्तेमाल किया है उसे समझने के लिए आर्यों के आक्रमण पर और उसकी कसौटियों पर ध्यान देना उपयोगी होगा:

क्या भाषा, साहित्य, पुरातत्व, नृतत्व, किसी भी स्रोत से इसका एक भी निर्णायक प्रमाण मिला है? (इसका उत्तर सभी स्रोतों से नहीं में मिलेगा।)
फिर यह क्यों कहा जाता है कि संस्कृत-भाषी भारत में बाहर से आए ? (उत्तर, इसलिए कि भारत में ब्राह्मणों के अतिरिक्त कोई संस्कृत बोलता ही नहीं, इसलिए इस भाषा का आगमन भारत में कहीं अन्यत्र से हुआ होगा। भाषा के पाँव नही होते, बोलने वालों के पास होते हैं इसलिए भाषा संस्कृत बोलने वाले ब्राह्मणों के साथ आई होगी।)

क्या कहीं ऐसी भाषा मिली है जिसे संस्कृत, संस्कृतसम या संस्कृत का पूर्व रूप कहा जा सके और संस्कृत भाषियों को वहाँ से आया सिद्ध किया जा सके? (उत्तर, नहीं में मिलेगा।)

फिर संस्कृत भाषियों को बाहर से आया क्यों मान लिया गया ? (इसलिए कि सभी देशों – सुमेर, ईरान, यूनान, रोम, जर्मन, केल्टिक, गॉथ, स्लाव, लिथुआनियन, सभी की पुराणकथाओं में यह पाया जाता है कि वहाँ सभ्यता का सूत्रपात करने वाले कहीं अन्यत्र से आए थे। इससे सिद्ध हुआ कि जो लोग आज जिस देश में मिलते हैं वे सदा से वहीं नहीं रहे हैं, इसलिए भारत के संस्कृत भाषी बाहर से आए होंगे।

बात तो जँचती है, भारत की अपनी परंपरा क्या कहती है? (भारत की परंपरा कहती है कि इसके पूर्वजों ने ही विश्व में सभ्यता का प्रसार किया था। उन्होंने ही शेष जगत को आबाद किया था। यह विश्वास साहित्यिक परंपरा में भी है और आसुरी -असुर कहानी – दोनों में है।)

इसका मतलब क्या है, इसे समझते हैं आप? जहाँ इतिहास के फटे हुए पन्ने के दोनों सिरे मिल कर एक हो जाते हों, इसका मतलब समझते हैं आप? (जवाब हैरानी की मुद्रा से मिलेगा, क्या आप इतने भारत प्रेमी हो गए हैं कि आप भारत को विश्व सभ्यता का जनक सिद्ध करना चाहते हैं ?)

कहना होगा कि मैं कुछ नहीं सिद्ध करना चाहता । स्वयंसिद्धियाँ सिद्ध नहीं की जाती हैं। परन्तु आप जो अपने को सिद्ध कर रहे हैं उसका सही नाम लूँ तो आप मानहानि का दावा कर देंगे।

आप समझ सकते हैं कि देश-देशांतर में विख्यात और इतिहास का निर्माता होने का दावा करने वालों को सही विशेषण से पुकारने की जगह जोगाड़िया कह कर ही संतोष क्यों कर लेता हूँ।

मैं अपने को इतिहासकार जिन कारणों से नहीं मानता उनमें से एक है कि इतिहासकार तो ऐसे ही होते हैं जिनमें विशेष ज्ञान होता हैं, सामान्य ज्ञान नहीं होता। ऊपर मैंने कोई बात ऐसी नहीं कही है जिससे ज्ञान प्रकट होता हो। ये वे प्रश्न हैं जो कोई बच्चा कर सकता है। वही कह सकता है कि राजा नंगा है, दूसरे ज्ञानियों का हाल राजा के दरबारियों जैसा है जिन्हें ठगों ने समझा दिया था कि जो वर्णसंकर होंगे उन्हें यह वस्त्र दिखाई न देगा। यहाँ वर्णसंकर कहाने का डर नहीं तो राष्ट्रवादी, हिंदी-हिदू-हिंदुस्थानवादी, भगवावादी, पुनरुत्थानवादी, भाजपाई, संघी जैसी गालियों का डर तो होगा ही। सेकुलरिज्म की सनद छिन जाने का भी डर रहेगा। मैंने केवल इस भय पर आज से पचास साल पहले पाया। यही था अपने विरुद्ध समर में उतरना और परिभाषाएं सुधारना। जानकारी में तो मेरे पाठकों में अनेक मुझसे अधिक जानते हैं।

जारी