स्पष्टीकरण
मैं जेएनयू के वी.सी. को जो पत्र ई-मेल से भेज चुका था उसकी प्रतिलिपि मैंने फेसबुक पर इसलिए पोस्ट की थी कि मैं मानता हूँ कि सामाजिक सरोकार के विषयों पर जो कुछ कहता या लिखता हूं वह निजी नहीं हो सकता। उसके प्रति मेरी जिम्मेदारी है, और दूसरे यदि जानना चाहें कि मैंने क्या और क्यों लिखा है तो अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना चाहिए। न्याय विचार यह है कि यह जाने बिना किसी को मेरे विषय में कोई फैसला नहीं लेना चाहिए पर हम अपने व्यवहार में न्याय अन्याय का इतना सूक्ष्म निर्वाह नहीं करते इसलिए रूठने और आज से मेरी कुट्टी (संबंध कट गया) का विकल्प तो होना ही चाहिए।
यह बताना जरूरी है कि यदि पूछा होता कि आप इनका समर्थन क्यों कैसे कर सकते हैं तो मैंने उसका जवाब दिया होता, इसके लिए ही मैंने उसे प्रकाशित किया था, कि यदि किन्हीं को आपत्ति हो तो वे आपत्ति करें और मैं अपना पक्ष रखूँ, भले उससे भी उनका असंतोष बना रहे।
एक महिला ने जो कुट्टी की सूचना देते हुए एक मजमून भेजा, जिसमें अनेक दूसरे लोगों के नाम थे। एक दूसरे व्यक्ति ने उसी मजमून के साथ मैत्री समापन की सूचना दी, तब मुझे लगा कि यह एक अभियान है न कि अलग अलग लोगों को नागवार गुजरी कोई चीज और मैंने इसीलिए ऐसे सभी लोगों से जो अपनी ओर से अपनी मित्रता समाप्त करने का आमंत्रण पोस्ट किया।
कुछ मित्रों ने जवाब चाहा, अलग-अलग जवाब देना संभव न था, इसलिए सबके विचार जानने के बाद नीचे के स्पष्टीकरण।
कुछ मित्रों के आक्षेप की भाषा कुछ दूसरों को क्षोभकर लगी, इस पर आपत्ति दर्ज कराई, इसके लिए धन्यवाद, परन्तु मुझे स्वयं उनकी भाषा से कोई शिकायत नहीं। भाषा की परुषता इसका पैमाना है कि मेरे विचारों से वे स्वयं कितने आहत हुए।
यह बात मैं समय समय पर दुहराता कि कोई, ईश्वर भी, इतना सही नहीं हो सकता कि सभी को उससे सहमत होना चाहिए, या जो असहमत है वह गलत है। अपना यह विचार मैंने कल फिर दो तुकबन्दियों से दिया था, पहली ‘सुनो, उसकी भी सुनो, जो कि गलत लगता है….।’ और परुष भाषा के विषय में ‘गालियाें, जख्मों से, बदनामियों, गुमनामियों से।
बच के रहते हैं जो, सड़ने को भी तैयार हैं वे ।।’
ऐक्टिविज्म की बात भी तीसरी में इसलिए की थी यदि लिखना यदि किन्हीं गलतियों, विकृतियों और शक्तियों के विरुद्ध समर है तो इसमें उतरते हुए आप यह सोच कर न उतरें कि आपको खरोंच न आएगी। ऐसा सोचते हैं तो आप ऐक्टविस्ट हैं ही नहीं। उसी को ऊपर दुहराया है।
1970 की उसी कविता की कुछ आगे की पंक्तियाँ हैं ‘मैं जानता हूँ/ मैं कई बार भाग खड़ा हुआ था कई मोर्चों से/ पर आज खड़ा होता हूँ / अपने विरुद्ध एक नए समर में/ मैं तोड़ूँगा कुछ नहीं/ सिर्फ परिभाषाएँ सुधार दूँगा/ और धुँए के पहाड़ बिखर जाएँगे। तुम देखना/ बेकार नहीं जाएगी मेरी फुसफुसाहट/ नहीं धरती धँसेगी नहीं/ नहीं झुकेगा आसमान/ पर इसके स्पर्श से/ गर्व में तने कँगूरे/ हवामुर्ग में बदल जाएँगे।’ और मुझे सन्तोष है कि मैने अपने इतिहास में हस्तक्षेप से गर्व में तने कँगूरों को हवामुर्ग में बदलते देखा है।
मेरे पत्र लिखने के तीन कारण थे। पहला मैं 5 जनवरी की घटना को एक गंभीर दुर्घटना मानता था और प्रतीयमान रूप से मुझे पुलिस की सहमति लग रही थी, जो पुलिस को ऐसे लोगों को भीतर घुस कर गिरफ्तार करने का आदेश देने में शिथिलता के कारण वी.सी. के विषय में जुगुप्सा पैदा कर रही थी। पुलिस के विषय में मैंने 6 की पोस्ट में लिखा और वी.सी. के विषय में उनको लिखे पत्र में पहला वाक्य इसी धारणा से संबंधित था एक पत्रकार के साथ टहलते हुए बात करते हुए भावहीन चेहरे को देखकर लगा था इतनी बड़ी घटना के बाद उनके चेहरे पर किसी तरह का अफसोस नहीं । मैंने अपनी पुत्रवधू को, जो कुछ दिनों के लिए अमेरिका से आई है, बुला कर चेहरा दिखाते हुए निरे अगंभीर, लाठी छाप चेहरे को दिखाते हुए कहा था इस व्यक्ति को अभी तक इस पद से नहीं हटाया क्यों नहीं गया? लगा यह संघ से संबंध रखता होगा।
दूसरों की पोस्टों को खँगालते हुए हैं मुझे वह लंबा पत्र मिला जिसको मैने शेयर भी किया जिससे पता चला कि यूनियन के लोग जब सर्वर आदि को तोड़ रहे थे उस समय भी वी.सी. ने पुलिस को भीतर घुसने को नहीं कहा था और तोड़फोड़, मार-पीट, की शुरुआत भी उन्होंने की थी। मेरी पोस्ट 10 जनवरी की और संलग्न पत्र जिसकी कुछ पंक्तियाँ हैं, Alas ! Media has finally waken up with half truths ….. JNU is again flashing back in the headlines …..
Where were the media when JNU website was hacked for two days by the agitating students with masks (except the one, who perhaps is pursuing the ambition of being another Kanaiya Kumar)? Where were the media when the windows were broken, when the central server of JNU was vandalized, lakhs of rupees of optic fiber wires were cut and destroyed, staffs were evicted from the Communication & Information Service Centre (CIS), by a group of students, in order to disrupt the registration process of the willing students ? This is the heinous crime I ever heard of from the student community ….. this is incredible that some of our students like terrorists are hiding their faces and destroying the public properties of the University of national eminence. Ironically the media selectively and briefly shared the news. Ironically the JNU Teachers’ Association (JNUTA) instead of condemning remained mysteriously silent about this act of vandalism. Even after that some of us were surprised to learn that no police was called inside the campus and no action has been taken so far against those students who committed this crime. Only the internal security somehow cleared the blokage and we heard that students guarding the gate were beaten up. We heard (and saw the pictures) that the central server is damaged so much that it is still under restoration and the registration could not be started even today. We have learnt that JNUSU have strongly condemned the assault towards the students who were guarding the CIS. Curiously I asked one of the agitating student whom I taught, that “you talk about democratic rights and you condemned the assault of some students but you are not condemning this act of vandalism ? He replied “this was done by some miscreant students whom we don’t have control”. I asked then why you condemn the assault ? Don’t you think they deserve some punishments ? The answer is obviously blowing in the wind ……
इसी क्रम में वी.सी. को हटाने की माँग के समर्थन में एक बयान आया जिससे पता चला कि यह वी.सी. जेएनयू के सांस्कृतिक माहौल को नष्ट कर रहे हैं, क्योंकि यहाँ अध्यापक और छात्र मित्र भाव से रहते आए हैं, क्लास में छात्र सिगरेट पीते रहते हैं। कहने वाला कहता है अर्थ हम ग्रहण करते हैं। (चरस भी पीते रहें तो रोकने वाला कोई है नहीं होगा, रोका तो बेइज्जत कर देंगे।) मुझे लगा कि यहाँ अध्यापकों की कायरता या उदासीनता से मनचलापन इतना बढ़ गया है कि ऐसे छात्रों और अध्यापकों को सुधारगृह भेजा जाना चाहिए।
धूम्रपान तो सिम्प्टम है, व्याधि गहरी है, लालेसनेस को संस्कृति बनाया जा चुका है: (क) छात्रों और अध्यापकों को यह तक नहीं मालूम या है तो चिंता नहीं कि सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान अपराध है; (क) अपराध इसलिए है कि आप किसी को पैसिव स्मोकिंग का शिकार नहीं बना सकते। मैं चार साल पहले अपने पड़ोस के पार्क में पास के ही कालेज के कुछ लड़कों को जो शगलबाजी के लिए आकर बैठते थे, सिगरेट पीने से रोक देता था, पास जाकर सिगरेट की जगह लेक्चर पिला देता था, सिगरेट पीते हुए कोई घुसा तो इशारे से बाहर निकाल दिया करता था और कभी कोई समस्या नहीं पैदा हुई।
इसके बाद ही जब इंडियन एक्सप्रेस में अध्यापकों और छात्रों के विभिन्न स्तरों से इंटरव्यू से जगदेश जी का परिचय मिला तो मुझे लगा जिस पैनी सोच, समझ, योग्यता और साहस वाले चिकित्सक की जेएनयू को जरूरत थी वह बड़े भाग्य से मिला है। एक ऐसे समय में जब उस पर प्रहार हो रहा है, यदि में उसका नैतिक समर्थन नहीं करता हूँ तो मैं अपने दायित्व के निर्वाह में प्रमाद करता है।
एक मित्र ने अपेक्षा की है कि हंगामेबाजी को परिभाषित करूँ। मेरी यह धारणा है कि आपात काल के दौर से ही यूनियन के अध्यक्षों को आदत पड़ी कि यूनिवर्सिटी के वी.सी., प्राक्टर, डीन, अध्यापक, सभी उनके निर्देशों का पालन करेंगे। आपात में हर तरह का दुस्साहस सही लगता है। अध्यक्ष डीपीटी थे। नामवर जी आपात काल का विरोध नहीं कर रहे थे, क्योंकि उनका सीपीआई से जुड़ाव था, और तब सीपीआई और सोवियत संघ आपात काल के समर्थक थे। इस अपराध के लिए नामवर जी को सरेराह धोती खींच कर नंगा करने का प्रयत्न किया गया।
यूनियन के लोग और उनकी सह पर छात्र किसी का अदब लिहाज नहीं रखते, जिसे वे कहते हैं कि यहाँ अध्यापकों और छात्रों में याराना चलता है, मेरी समझ से उसका सारसत्य यूनियन के माध्यम से पैदा किया गया यह दहशत का माहौल है और इसमें किसी को पहनी मर्यादा की जिंता नहीं।
इसके बाद कोई न कोई हंगामा करके अटपटे आचरण की न्यूजवैल्यू के कारण प्रचार पाने का रास्ता अपनाने और राजनीतिक दलों में सुरंग बनाने का एक क्रम चल रहा है। कथन या करनी जितनी अधिक उत्तेजक, अनर्गल और गैरजिम्मेदाराना हो नाम उतनी ही तेजी से उछलेगा। भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्ला इंशा अल्ला, या आजादी आजादी, कश्मीर का फैसला. सीएए, रजिस्ट्रार ने यूनियन की अनुमति के बिना, फीस कैसे बढ़ा दी । कारण कोई भी हंगामा ऐसा होना चाहिए कि लंबे समय तक सुर्खियों में छाए रहें। जेएनयू से आरंभ हुई यह व्याधि संक्रामक रूप ले कर कितनी तेजी से हैदराबाद, यादवॉपुर आदि में फैली है, इससे हम अवगत हैं। अध्ययन का कितना समय बर्वाद हुआ है, गैरजिम्मेदाराना काम और बयान और मनचलापन कितना बढ़ा है इसका हिसाब जिन्हें करना हो करें। इसे मैं हंगामेबाजी मानता हूँ।
शिक्षा के दो काम हैं ज्ञान देना और संस्कार देना और लोकतांत्रिक देश में अधिक समझदार और जिम्मेदार नागरिक पैदा करना। इसके अभाव में देश का क्या हाल है, हमारे सामने है।
मैं कोई काम या कथन जल्दबाजी में, उत्तेजना में नहीं करता, इसलिए जहाँ भी मतभेद हो बहस की जानी चाहिए। फेसबुक से अच्छा मंच इसके लिए नहीं है।